– डॉ. राममनोहर लोहिया
समाजवादी आंदोलन के प्रणेता दार्शनिक-चिंतक
राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। सबका रास्ता अलग-अलग है। राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यक्तित्व में और शिव की असीमित व्यक्तित्व में, लेकिन हरेक पूर्ण है। किसी एक का एक या दूसरे से अधिक या कम पूर्ण होने का कोई सवाल नहीं उठता। पूर्णता में विभेद कैसे हो सकता है? पूर्णता में केवल गुण और किस्म का विभेद होता है। हर आदमी अपनी पसंद कर सकता है या अपने जीवन के किसी विशेष क्षण से संबंधित गुण या पूर्णता चुन सकता है। कुछ लोगों के लिए यह भी संभव है कि पूर्णता की तीनों किस्में साथ-साथ चलें, मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व साथ-साथ रह सकते हैं। हिंदुस्तान के महान ऋषियों ने सचमुच इसकी कोशिश की है। वे शिव को राम के पास और कृष्ण को शिव के पास ले आए हैं और उन्होंने यमुना के तीर पर राम को होली खेलते बताया है। लोगों के पूर्णता के ये स्वप्न अलग किस्मों के होते हुए भी एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं, लेकिन अपना रूप भी अक्षुण्ण बनाए रखे हैं। राम और कृष्ण, विष्णु के दो मनुष्य रूप हैं जिनका अवतार धरती पर धर्म का नाश और अधर्म के बढ़ने पर होता है। राम धरती पर त्रेता में आए जब धर्म का रूप इतना अधिक नष्ट नहीं हुआ था। वह आठ कलाओं से बने थे, इसलिए मर्यादित पुरुष थे। कृष्ण द्वापर में आए जब अधर्म बढ़ती पर था। वे सोलहों कलाओं से बने हुए थे और इसलिए एक संपूर्ण पुरुष थे। जब विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया तो स्वर्ग में उनका सिंहासन बिल्कुल सूना था। लेकिन जब राम के रूप से आए तो विष्णु अंशतः स्वर्ग में थे और अंशतः धरती पर।
इन मर्यादित और उन्मुक्त पुरुषों के बारे में दो बहुमूल्य कहानियां कही जाती हैं। राम ने अपनी दृष्टि केवल एक महिला तक सीमित रखी, उस निगाह से किसी अन्य महिला की ओर कभी नहीं देखा। यह महिला सीता थी। उनकी कहानी बहुलांश राम की कहानी है जिनके काम सीता की शादी, अपहरण और कैद-मुक्ति और धरती जिसकी वे पुत्री थी) की गोद में समा जाने के चारों ओर चलते हैं। जब सीता का अपहरण हुआ तो राम व्याकुल थे। वे रो-रोकर कंकड़, पत्थर और पेड़ों से पूछते थे कि क्या उन्होंने सीता को देखा है। चंद्रमा उन पर हंसता था। विष्णु को हजारों वर्ष तक चंद्रमा का हंसना याद रहा होगा। जब बाद में वे धरती पर कृष्ण के रूप में आए तो उनकी प्रेमिकाएं असंख्य थीं। एक आधी रात को उन्होंने वृंदावन की सोलह हजार गोपियों के साथ रास नृत्य किया। यह महत्व की बात नहीं कि नृत्य में साठ या छह सौ गोपिकाएं थीं और रासलीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे । सबको थिरकाने वाला स्वयं अचल था। आनंद अटूट और अभेद्य था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण ने चंद्रमा को ताना दिया कि हंसो। चंद्रमा गंभीर था। इन बहुमूल्य कहानियों में मर्यादित और उन्मुक्त व्यक्तित्व का रूप पूरा उभरा है और वे संपूर्ण हैं।
सीता का अपहरण अपने में मनुष्य-जाति की कहानियों की महानतम घटनाओं में से एक है। इसके बारे में छोटी-से-छोटी बात लिखी गई है। यह मर्यादित, नियंत्रित और वैधानिक अस्तित्व की कहानी है। निर्वासन काल के परिभ्रमण में एक मौके पर जब सीता अकेली छूट गई थी तो राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने एक घेरा खींचकर सीता को उसके बाहर पैर न रखने के लिए कहा। राम का दुश्मन रावण उस समय तक अशक्त था जब तक कि एक विनम्र भिखमंगे के छद्मवेश में सीता को उसने उस घेरे के बाहर आने के लिए राजी नहीं कर लिया। मर्यादित पुरुष हमेशा नियमों के दायरे में रहता है। उन्मुक्त पुरुष नियम और कानून को तभी तक मानता है जब तक उसकी इच्छा होती है और प्रशासन में कठिनाई पैदा होते ही उनका उल्लंघन करता है। राम के मर्यादित व्यक्तित्व के बारे में एक और बहुमूल्य कहानी है। उनके अधिकार के बारे में, जो नियम और कानून से बंधे थे, जिनका उल्लंघन उन्होंने कभी नहीं किया और जिनके पूर्ण पालन के कारण उनके जीवन में तीन या चार धब्बे भी आए। राम और सीता अयोध्या वापस आकर राजा और रानी की तरह रह रहे थे। एक धोबी ने कैद में सीता के बारे में शिकायत की। शिकायती केवल एक व्यक्ति था और शिकायत गंदी होने के साथ-साथ बेदम भी थी। लेकिन नियम था कि हर शिकायत के पीछे कोई न कोई दुःख होता है और उसकी उचित दवा या सजा होनी चाहिए। इस मामले में सीता का निर्वासन ही एकमात्र इलाज था। नियम अविवेकपूर्ण था, सजा क्रूर थी और पूरी घटना एक कलंक थी जिसने राम को जीवन के शेष दिनों में दुःखी बनाया। लेकिन उन्होंने नियम का पालन किया, उसे बदला नहीं। वे पूर्ण मर्यादा पुरुष थे। नियम और कानून से बंधे हुए थे और अपने बेदाग जीवन में धब्बा लगने पर भी उसका पालन किया।
मर्यादा पुरुष होते हुए भी एक दूसरा रास्ता उनके लिए खुला था। सिंहासन त्याग कर वे सीता के साथ फिर प्रवास कर सकते थे। शायद उन्होंने यह सुझाव रखा भी हो, लेकिन उनकी प्रजा अनिच्छुक थी। उन्हें अपने आग्रह पर कायम रहना चाहिए था। प्रजा शायद नियम में ढिलाई करती या उसे खत्म कर देती। लेकिन कोई मर्यादित पुरुष नियमों का खत्म किया जाना पसंद नहीं करेगा जो विशेष काल में या किसी संकट से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है। विशेषकर जब स्वयं उस व्यक्ति का उससे कुछ न कुछ संबंध हो। इतिहास और किंवदंती दोनों में अटकलबाजियों या क्या हुआ होता, इस सोच में समय नष्ट करना निरर्थक और नीरस है। राम ने क्या किया था, क्या कर सकते थे, यह एक मामूली अटकलबाजी है, इस बात की अपेक्षा कि उन्होंने नियम का यथावत पालन किया जो मर्यादित पुरुष की एक बड़ी निशानी है।
राम मर्यादा पुरुष थे। ऐसा रहना उन्होंने जान-बूझकर और चेतन रूप से चुना था। बेशक नियम और कानून आदेश पालन के लिए एक कसौटी थे। लेकिन यह बाहरी दबाव निरर्थक हो जाता यदि उसके साथ-साथ अंदरूनी प्रेरणा भी न होती। विधान के बाहरी नियंत्रण और मन की अंदरूनी मर्यादा एक-दूसरे को पुष्ट और मजबूत करती हैं। किसी भी प्रेरक की प्राथमिकता का तर्क देना निरर्थक होगा। किसी मर्यादित पुरुष के लिए विधान की बाहरी जंजीरें मन की अंदरूनी प्रेरणा का दूसरा नाम होंगी। मर्यादित पुरुष का काम दोनों में मेल-जोल और समानांतर का निर्णय करना है। मर्यादाएं बाहरी नियंत्रण तो हैं ही लेकिन अंदरूनी सीमाओं को भी वे छूती हैं। मर्यादित नेतृत्व वास्तव में नियंत्रित नेतृत्व है लेकिन साथ-साथ वह मन के क्षेत्र में भी पहुंचता है। राम सचमुच एक नियंत्रित व्यक्ति थे लेकिन उनका केवल इतना ही वर्णन करना गलत होगा क्योंकि वे साथ-साथ मर्यादित पुरुष थे और नियम के दायरे में चलते थे।
रावण के आखिरी क्षणों के बारे में एक कहानी कही जाती है। अपने जमाने का निस्संदेह वह सर्वश्रेष्ठ विद्वान था। हालांकि उसने अपनी विद्या का गलत प्रयोग किया, फिर भी बुरे उद्देश्य परे रखकर मनुष्य-जाति के लिए उस विद्या का संचय आवश्यक था। इसलिए राम ने लक्ष्मण को रावण के पास अंतिम शिक्षा मांगने के लिए भेजा। रावण मौन रहा। लक्ष्मण वापस आए। उन्होंने अपने भाई से असफलता का बयान किया और इसे रावण का अहंकार बताया। जो हुआ था उसका पूरा ब्यौरा राम ने उनसे पूछा। तब पता लगा कि लक्ष्मण रावण के सिरहाने खड़े थे। लक्ष्मण पुनः भेजे गए कि रावण के पैताने खड़े होकर निवेदन करें। फिर रावण ने राजनीति की शिक्षा दी।
शिष्टाचार की यह सुंदर कहानी अद्वितीय और अब तक की कहानियों में सर्वश्रेष्ठ है। शिष्टाचार निश्चय ही उतना महत्वपूर्ण है जितनी नैतिकता, क्योंकि व्यक्ति कैसे खाता है या चलता है, या उठता-बैठता है, या कैसा दीख पड़ता है, कैसे कपड़े पहनता है, अपने लोगों से कैसे बात करता है या उनके साथ कैसे रहता है, दूसरों की सुविधा का हमेशा खयाल रखता है या नहीं, या हर प्राणी से कैसे बर्ताव करता है, यह शिष्टाचार का सवाल जरूर है, लेकिन किसी दूसरी चीज से कम महत्वपूर्ण नहीं। कृष्ण शिष्टाचार के उतने बड़े नमूने थे जितना कोई मर्यादित पुरुष हो सकता है। उन्होंने सद्व्यवहारी पुरुष या स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की परिभाषा दी है। ऐसा व्यक्ति अपने ऊपर वैसा नियंत्रण रखता है जैसे कछुआ अपने शरीर पर, अपने नियंत्रण के कारण जब चाहे अपने अंगों को समेट सकता है। असावधानी में कोई हरकत नहीं हो सकती। अन्य क्षेत्रों में चाहे जो भी भेद हो, लेकिन शिष्टाचार के क्षेत्र में सचमुच अपने निखरे रूप में उन्मुक्त पुरुष मर्यादित होता है। जो भी हो, मरणासन्न और श्रेष्ठ विद्वान के साथ शिष्टाचार की श्रेष्ठतम कहानी के रचयिता राम हैं।
राम अक्सर श्रोता रहते थे। न केवल उस व्यक्ति के साथ जिससे वे बातचीत करते थे, जैसा हर बड़ा आदमी करता है, बल्कि दूसरे लोगों की बातचीत के समय भी। एक बार तो परशुराम ने उन पर आरोप लगाया कि वह अपने छोटे भाई को बेरोक और बढ़-चढ़कर बात करने देने के लिए जान-बूझकर चुप लगाए थे। यह आरोप थोड़ा-बहुत सही भी है। अपने लोगों और उनके दुश्मनों के बीच होने वाले वाद-विवाद में वे प्रायः एक दिलचस्पी लेने वाले श्रोता के रूप में रहते थे। इसका परिणाम कभी-कभी बहुत भद्दा और दोषपूर्ण भी हो जाता था, जैसा लक्ष्मण और रावण की बहन शूर्पणखा के बीच हुआ। ऐसे मौकों पर राम दृढ़ पुरुष की तरह शांत और निष्पक्ष दीखते थे, कभी-कभी अपने लोगों की अति को रोकते थे और अक्सर उनकी ओर से या उन्हें बढ़ावा देते हुए एकाध शब्द बोल देते थे। यह एक चतुर नीति भी कही जा सकती है लेकिन निश्चय ही यह मर्यादित व्यक्ति की भी निशानी है जो अपनी बारी आए बिना नहीं बोलता और परिस्थिति के अनुसार दूसरों को बातचीत का अधिक से अधिक मौका देता है। कृष्ण बहुत वाचाल थे। वे सुनते भी थे। लेकिन वे सुनते केवल इसीलिए थे कि वे और दिलचस्प बात कर सकें। उनके रास्ते पर चलने वालों को उनके शब्द आज भी जादू जैसे खींचते हैं। राम चुप्पी का जादू जानते थे, दूसरों को बोलने देते थे, जब तक कि उनके लिए जरूरी नहीं हो जाता था कि बात या काम के द्वारा हस्तक्षेप करें। राम मर्यादा पुरुष थे इसलिए अपनी चुप्पी और वाणी दोनों के लिए समान रूप से याद किए जाते हैं।
राम का जीवन बिना हड़पे हुए फलने की एक कहानी है। उनका निर्वासन देश को एक शक्तिकेंद्र के अंदर बांधने का एक मौका था। इसके पहले प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केंद्र थे-अयोध्या और लंका। अपने प्रवास में राम अयोध्या से दूर लंका की ओर गए। रास्ते में अनेक राज्य और राजधानियां पड़ीं जो एक अथवा दूसरे केंद्र के मातहत थीं। मर्यादित पुरुष की नीति-निपुणता की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति तब हुई जब राम ने रावण के राज्यों में से एक बड़े राज्य को जीता। उसका राजा बालि था। बालि से उसके भाई सुग्रीव और उसके महान सेनापति हनुमान दोनों अप्रसन्न थे। वे रावण के मेलजोल से बाहर निकल कर राम की मित्रता और सेवा में आना चाहते थे। आगे चलकर हनुमान राम के अनन्य भक्त हुए, यहां तक कि एक बार उन्होंने अपना हृदय चीरकर दिखाया कि वहां राम के सिवा और कोई भी नहीं। राम ने पहली जीत को शालीनता और मर्यादित पुरुष की तरह निभाया। राज्य हड़पा नहीं, जैसे का तैसा रहने दिया। वहां के ऊंचे या छोटे पदों पर बाहरी लोग नहीं बैठाए गए। कुल इतना ही हुआ कि एक द्वंद्व में बालि की मृत्यु के बाद सुग्रीव राजा बनाए गए। बालि की मृत्यु भी राम के जीवन के कुछ धब्बों में एक है। राम एक पेड़ के पीछे छिपे खड़े थे और जब उनके मित्र सुग्रीव की हालत खराब हुई तो छिपे तौर पर उन्होंने बालि पर बाण चलाया। यह कानून का उल्लंघन था। कोई संस्कारी और मर्यादा पुरुष ऐसा कभी नहीं करता। लेकिन राम कह सकते थे कि उनके सामने मजबूरी थी।
प्रशा के फ्रेडरिक महान की तरह जो बहुत सफाई के साथ व्यक्ति और राज्य-नैतिकता में भेद करते थे और इस भेद के आधार पर एक झूठ अथवा और वादाखिलाफी के जरिए आम हत्याकांड या गुलामी रोकने के पक्षपाती थे और इसीलिए उन्होंने ऐसे राजाओं को क्षमा किया जो संधियों के प्रति वफादार तो थे लेकिन जीवन में जिन्होंने एक बार कभी संधि तोड़ी। राम भी तर्क कर सकते थे कि उन्होंने एक व्यक्ति को, यद्यपि थोड़ा-बहुत गलत तरीके से, मारकर आम हत्याएं रोकीं और उन्होंने अपने जीवन के केवल एक दुष्टतापूर्ण काम के जरिए एक समूचे राज्य को अच्छाई के रास्ते पर लगाया और अपने सिवाय किसी और क्रम में विघ्न नहीं डाला। स्वाभाविक था कि सुग्रीव अच्छाई के मेलजोल में आए और लंका विजय करने के लिए बाद में अपनी सारी सेना आदि दी। यह सही है कि यह सब कुछ बालि की मृत्यु से हासिल हुआ। राज्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहा और राम से दोस्ती संभवतः वहां के नागरिकों की स्वतंत्र इच्छा से की गई। फिर भी तबियत यह होती है कि कोई मर्यादा पुरुष, छोटा या बड़ा, नियम न तोड़े-अपने जीवन में एक बार भी नहीं।
बड़े और अच्छे शासन के लिए राम की बिना हड़पे हुए फैलाव की कहानी में, बिना साम्राज्यशाही के एकीकरण और राजनीति की भाग-दौड़ में मर्यादित रूप से काम करने आदि के साथ-साथ दुश्मन के खेमे में अच्छे दोस्तों की खोज चलती रही। उन्होंने लंका में इस क्रम को दोहराया। रावण के छोटे भाई विभीषण राम के दोस्त बने। लेकिन किष्किंधा की कहानी दोहराई नहीं जा सकी। लंका में काम कठिन था, इसके दुर्गुण घोर और विद्वत्ता की बुनियाद पर बने थे। घनघोर युद्ध हुआ और बहुत से लोग मारे गए। आगे चलकर विभीषण राजा बना और उसने रावण की पत्नी मंदोदरी को अपनी रानी बनाया। लंका में भी अच्छाई का राज्य स्थापित हुआ। आज तक भी विभीषण का नाम जासूस, द्रोही, पंचमांगी और देश अथवा दल से गद्दारी करने वाले का दूसरा रूप माना जाता है, विशेषकर राम के शक्ति-केंद्र अवध के चारों ओर। यह एक प्रशंसनीय और दिशाबोधक बात है कि कोई कवि विभीषण के दोष नहीं भूल सका। मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने मित्र को आम लोगों की नजर में स्वीकार्य नहीं बना सके और राम की मित्रता मिलने पर भी विभीषण का कलंक हमेशा बना रहा। मर्यादा पुरुष अपने मित्र को स्वीकार्य बनाने का चमत्कार नहीं कर सके। यह शायद मर्यादा पुरुष की निशानी हो कि अच्छाई जीती तो जरूर लेकिन एक ऐसे व्यक्ति के जरिए जीती जिसने द्रोह भी किया और इसलिए उसके नाम पर गद्दारी का दाग बराबर लगा रहे।
कृष्ण संपूर्ण पुरुष थे। उनके चेहरे पर मुस्कान और आनंद की छाप बराबर बनी रही और खराब से खराब हालत में भी उनकी आंखें मुस्कराती रहीं। चाहे दुःख कितना ही बड़ा क्यों न हो, कोई भी ईमानदार आदमी वयस्क होने के बाद अपने पूरे जीवन में एक या दो बार से अधिक नहीं रोता। राम अपने पूरे वयस्क जीवन में दो या शायद केवल एक बार रोए। राम और कृष्ण के देश में ऐसे लोगों की भरमार है जिनकी आंखों में बराबर आंसू डबडबाए रहते हैं और अज्ञानी लोग उन्हें बहुत ही भावुक आदमी मान बैठते हैं। एक हद तक इसमें कृष्ण का दोष है। वे कभी नहीं रोए। लेकिन लाखों को आज तक रुलाते रहे हैं। जब वे जिंदा थे, वृंदावन की गोपियां इतनी दुःखी थीं कि आज तक गीत गाए जाते हैं।
निसि दिन वर्षत नैन हमारे कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूं उर बिच बहत पनारे।
राम और कृष्ण पर तुलनात्मक दृष्टि डालने पर विचित्र बात देखने में आती है। कृष्ण हर मिनट में चमत्कार दिखाते थे। बाढ़ और सूर्यास्त आदि उनकी इच्छा के गुलाम थे। उन्होंने संभव और असंभव के बीच की रेखा को मिटा दिया था। राम ने कोई चमत्कार नहीं किया। यहां तक कि भारत और लंका के बीच का पुल भी एक-एक पत्थर जोड़कर बनाया। भले ही उसके पहले समुद्र-पूजा की विधि करनी और बाद में धमकी देनी पड़ी। लेकिन दोनों के जीवन की संपूर्ण कृतियों की जांच करने और लेखा मिलाने पर पता चलेगा कि राम ने अपूर्व चमत्कार किया और कृष्ण ने कुछ भी नहीं। एक महिला के साथ दोनों भाइयों ने अयोध्या और लंका के बीच 2,000 मील की दूरी तय की। जब वे चले तो केवल तीन थे, जिनमें दो लड़ाई और एक व्यवस्था कर सकते थे। जब वे लौटे, एक साम्राज्य बना चुके थे। कृष्ण ने सिवा शासक वंश की एक शाखा से दूसरी को गद्दी दिलाने के और कोई परिवर्तन नहीं किया।
यह एक पहेली है कि कम से कम राजनीति के दायरे में मर्यादा पुरुष महत्वपूर्ण और सार्थक, और उन्मुक्त या संपूर्ण पुरुष छोटा और निरर्थक साबित हुआ। यह काल की पहेली के समान ही है। घटनाहीन जीवन में हर क्षण भार बन जाता है और बर्दाश्त के बाहर लंबा लगता है। लेकिन एक दशक या एक जीवन में उसका संकलित विचार करने से सहज और जल्दी बीता हुआ लगता है। उत्तेजना के जीवन में एक क्षण मोहक लगता है और समय इच्छा के विपरीत तेजी से बीतता लगता है। पर साल-दो साल बाद पुनर्विचार करने पर भारी और धीरे-धीरे बीता हुआ लगता है। मर्यादा के सर्वोच्च पुरुष, मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने राजनीतिक चमत्कार हासिल किया। पूर्णता के देव कृष्ण ने अपनी कृतियों से विश्व को चकाचौंध किया, जीवन के नियम सिखाए, जो किसी और ने नहीं किया था लेकिन उनके संपूर्ण व्यक्तित्व की राजनीतिक सफलता ठोस होने की बजाय बुलबुले जैसी है।
1955, अगस्त में पत्रिक मैनकाइंड में प्रकाशित आलेख ‘राम, कृष्ण और शिव’ के संपादित अंश आईटीएम यूनिवर्सिटी ग्वालियर के संग्रह से साभार
विराट व्यक्तित्व के विविध आयामों पर सूक्ष्मता से दृष्टि डालता, चमत्कृत करता हुआ सा आलेख है यह👌🙏
अद्भुत तुलनात्मक विवेचना राम कृष्ण दोनों चरित्र की। उस दौर में अपनी अपनी जगह दोनों ही सही थे, पर इस दौर में तो राम की राजनीति की पुनः स्थापना survival के लिये आवश्यक है। हार्दिक बधाई सहित