ऐ वतन मेरे वतन : सच्चे नायकों की कहानी
पूजा सिंह, स्वतंत्र पत्रकार
यह आजादी से ठीक पांच साल पहले यानी 14 अगस्त 1942 का दिन था। उस दिन भारत में रेडियो पर एक आवाज गूंजी, “ये है कांग्रेस रेडियो, 42.34 मीटर्स पर हिंदुस्तान में कहीं से…” यह आवाज क्रांतिकारी ऊषा मेहता के गुप्त रेडियो स्टेशन से प्रसारित हुई थी। यह वह स्टेशन था जिसने भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब प्राय: सभी प्रमुख कांग्रेस नेता जेल में थे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को एकसूत्र में पिरोये रखा और उनका मार्गदर्शन किया।
यह वही समय था जब महात्मा गांधी का ‘करो या मरो’ का नारा देश में बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ चुका था। ब्रिटिश सरकार ने प्रेस की अभिव्यक्ति को दबा दिया था और तब ऊषा मेहता के रेडियो ने जनता को घटनाओं और सूचनाओं से अवगत करवाया। इसका प्रसारण प्रतिदिन सुबह और शाम अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में होता था। ब्रिटिश हुकूमत की नजरों से बचाने के लिए इस खुफिया रेडियो सेवा के स्टेशन की फ्रीक्वेंसी रोज बदल दी जाती थी लेकिन ऐसी कोशिशें कहां छिप सकती थीं भला? तमाम कोशिशों के बावजूद खुफिया कांग्रेस रेडियो सेवा एक धोखे की शिकार हुई। एक तकनीशियन ने अंग्रेजों को इस गुप्त स्टेशन की सूचना दे दी और 12 नवंबर 1942 को ऊषा मेहता व उनके सहयोगियों को पकड़ लिया गया।
यह सारा जिक्र इसलिए क्योंकि एमेजॉन प्राइम पर ऊषा मेहता और उनके साथियों की इसी साहसिक कोशिश पर एक फिल्म आयी है जिसका नाम है- ‘ऐ वतन मेरे वतन।’ यह फिल्म इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बढ़ते राजनीतिक ध्रुवीकरण, राजनेताओं के बौने होते कद और गढ़े हुए नायकों की पूजा के इस दौर में यह फिल्म सच्चे नायकों की कहानी कहती है। ऐसे नायक जिनमें नायकत्व की कोई चाह न थी। वे तो बस देशप्रेम की लगन में अपना काम कर रहे थे। फिल्म ऊषा मेहता (सारा अली खान द्वारा अभिनीत) की कहानी कहती है जो ब्रिटिश राज के एक भारतीय जज की बेटी है।
कांग्रेस से जुड़ाव रखने वाली ऊषा मेहता यह विचार करती हैं कि आखिर बड़े नेताओं की अनुपस्थिति में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ नियमित संवाद और संचार कैसे कायम किया जाए? काफी मुश्किलों के बाद आखिरकार वह अपने दो करीबी मित्रों कौशिक (अभय वर्मा) और फहद (स्पर्श श्रीवास्तव) के साथ मिलकर कांग्रेस रेडियो की शुरुआत करती है।इन दिनों जबकि प्रोपगंडा आधारित फिल्मों का बोलबाला है, इस फिल्म की खूबसूरती यही है कि वह इतिहास के एक ऐसे घटनाक्रम से दर्शकों को रूबरू कराती है जिसके बारे में आज के युवाओं को ज्यादा पता नहीं है। यह एक पीरियड फिल्म है।
इंस्टा और फेसबुक रील तथा यूट्यूब शॉर्ट के इस दौर में दर्शकों खासकर युवाओं को सन 1940-50 के दशक की कहानी के साथ बांधकर रखना अपने आप में एक बड़ी चुनौती रही होगी। ‘ऐ वतन मेरे वतन’ इस चुनौती पर खरी उतरती है। आजादी की लड़ाई से जुड़ा विषय होने के बावजूद इस कहानी में बांधे रखने वाला हर तत्व मौजूद है: युवा नायिका, अधूरा प्रेम, देश के प्रति बेइंतहा मुहब्बत, सख्त लेकिन प्यार करने वाला पिता वगैरह…ऐसे तमाम तत्व हैं जो फिल्म की कहानी को रोचक बनाए रखते हैं और सत्य घटना पर आधारित होने के बावजूद फिल्म कहीं बोरिंग नहीं होती।
फिल्म में कई ऐसे संवाद हैं जो देश के वर्तमान राजनीतिक हालात को नए अर्थ देते हैं। उदाहरण के लिए फिल्म के शुरुआती कुछ मिनटों में जब ऊषा और उसके जज पिता के बीच आजादी को लेकर बहस होती है और पिता कहते हैं कि अंग्रेज नहीं रहेंगे तो यह देश कौन चलाएगा? इस पर ऊषा कहती है, “अंग्रेजों ने हमसे सोचने-समझने की शक्ति छीन ली है इसलिए आप कहते हैं कि अंग्रेज नहीं तो कौन?”इसी तरह एक अन्य दृश्य में फहाद कहता है, “सारे अखबार झूठ बोल रहे हैं। हम क्या देखेंगे, क्या सोचेंगे, क्या बोलेंगे सब कंट्रोल किया जा रहा है और हम कंट्रोल हो रहे हैं।” इस पर ऊषा कहती है, “अखबारों के संपादकों को डरा दिया गया है और खबरें दबाई जा रही हैं। रेडियो तो झूठ फैलाने का काम कर ही रहा है। अंग्रेज सरकार ने जनता को अफीम चटा रखी है और हम चाट रहे हैं। झूठ का नशा केवल सच की घुट्टी से तोड़ा जा सकता है और यह घुट्टी केवल संपर्क के माध्यम से पिलाई जा सकती है।”
फिल्म के कथानक की बात करें तो सन 1942 के आंदोलन के प्रमुख किरदार महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू अज्ञात वजहों से बहुत कम समय के लिए आते हैं जबकि राम मनोहर लोहिया (जिनका किरदार इमरान हाशमी ने बखूबी निभाया है) को बहुत अधिक स्क्रीन स्पेस दिया गया है। फिल्म इसकी वजह स्पष्ट नहीं करती है। ऊषा मेहता के ऐतिहासिक किरदार को जीवंत बनाने के लिए उनके वस्त्र-विन्यास, केश सज्जा आदि पर खूब ध्यान दिया गया है लेकिन अदाकारी के मोर्चे पर वह इस गंभीर भूमिका में भी कोई विशेष छाप छोड़ती नजर नहीं आतीं। पोलियो से ग्रस्त लोहिया के प्रशंसक कांग्रेस कार्यकर्ता फहद की भूमिका निभाने वाले कलाकार स्पर्श श्रीवास्तव ने जरूर बेहतरीन प्रदर्शन किया है। वह इससे पहले भी नेटफ्लिक्स की सिरीज ‘जामताड़ा’ और फीचर फिल्म ‘लापता लेडीज’ में अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके हैं।
फिल्म की एक बड़ी कमी यह भी है कि पूरी फिल्म वास्तविक लोकेशंस के बजाय सेट्स पर फिल्मायी गयी लगती है। यह सही है कि एक पीरियड फिल्म को सेट पर ही फिल्माया जा सकता है लेकिन ऐसे प्रयास किए जाने थे जिससे यह वास्तविकता के करीब नजर आती। कुछ कमियों के बावजूद यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान दौर में यह एक साहसी फिल्म है जो आज़ादी की लड़ाई के ऐसे नायक-नायिकाओं की कहानी कहती है जिनके बारे में सार्वजनिक जीवन में बहुत कम चर्चा होती है।
इस दौर में जबकि विस्मृति के माध्यम बहुत अधिक हैं और आभासी तथा वास्तविक दुनिया का अंतर समाप्त हो गया है, ‘ऐ वतन, मेरे वतन’ जैसी फिल्में हमें हकीकत से मिलाती हैं और यह याद दिलाती हैं कि हमने यह आजादी कितनी कुर्बानियों के बाद हासिल की है।
आखिर में ऊषा मेहता के बारे में जानना उचित होगा जिनकी कहानी इस फिल्म में दिखायी गयी है। रेडियो वुमन के नाम से प्रसिद्ध हुई ऊषा मेहता का जन्म 25 मार्च 1920 को सारस गुजरात में हुआ था। उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से गांधीवादी विचारधारा में स्नातक किया और 30 वर्षों तक विल्सन कॉलेज में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। वह गांधी पीस फाउंडेशन की अध्यक्ष थीं। उनके ऐतिहासिक योगदान के लिए 1998 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। 11 अगस्त 2000 को 80 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।