भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार है राइट टू स्लीप (सोने का अधिकार)
जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
सोने का अधिकार (राइट टू स्लीप) संविधान के तहात आपका मौलिक अधिकार है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि अगर कोई आपके सोने में बाधा बनता है या आपकी नींद में खलल डालता तो आप उस पर केस भी दर्ज करवा सकते हैं। भारत के संविधान अनुच्छेद 21 के ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार’ के तहत नींद के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। अनुच्छेद 21 के अनुसार, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
संविधान के अलावा देश की सर्वोच्च अदालत भी इस पर अपना स्पष्ट रुख रख चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने जीवन के अधिकार का दायरा बढ़ाकर एक नागरिक के शांति से सोने के अधिकार को अपने अंतर्गत ला दिया है। एक नागरिक को गहरी नींद का अधिकार है क्योंकि यह जीवन का मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक मामले की सुनवाई के दौरान नींद को बुनियादी मानव अधिकार करार दिया था।
दरअसल, अभी हाल में ही बॉम्बे हाईकोर्ट ने पीएमएलए की धारा 50 के तहत बुलाए गए व्यक्तियों के बयान देर रात दर्ज करने की प्रवर्तन निदेशालय की प्रैक्टिस की आलोचना की। कोर्ट ने नींद के अधिकार को बुनियादी मानवीय आवश्यकता के रूप में रेखांकित कियाऔर कहा कि ईडी सोने का अधिकार छीनकर किसी व्यक्ति का रात में बयान दर्ज नहीं कर सकती। इसके बाद राइट टू स्लीप को लेकर एक नई बहस शुरू हो गयी है।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि नींद का अधिकार किसी भी व्यक्ति की एक बुनियादी मानवीय आवश्यकता है और इसे प्रदान न करना किसी व्यक्ति के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। जस्टिस रेवती मोहिते-डेरे और जस्टिस मंजूषा देशपांडे की पीठ ने प्रवर्तन निदेशालय को निर्देश दिया कि जब एजेंसी द्वारा धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत समन जारी किया जाए तो बयान दर्ज करने के लिए समय का ध्यान रखने के निर्देश जारी किए जाएं। पीठ ने अपने आदेश में कहा, सोने का अधिकार/पलक झपकाने का अधिकार एक बुनियादी मानवीय आवश्यकता है, इसे प्रदान न करना किसी व्यक्ति के मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि सोने का अधिकार’/ ‘पलक झपकाने का अधिकार’ एक बुनियादी मानवीय आवश्यकता है, इसे प्रदान न करना किसी व्यक्ति के मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है। यह किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, उसकी मानसिक क्षमताओं, संज्ञानात्मक कौशल आदि को ख़राब कर सकता है। इस प्रकार बुलाए गए उक्त व्यक्ति को उचित समय से परे एजेंसी द्वारा उसके बुनियादी मानव अधिकार यानी सोने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। बयान आवश्यक रूप से कामकाज के घंटों के दौरान दर्ज किए जाने चाहिए, न कि रात में जब व्यक्ति की संज्ञानात्मक कौशल क्षीण हो सकता है।
अदालत ने याचिकाकर्ता के बयान की देर रात की रिकॉर्डिंग की निंदा की, जो सुबह 3:30 बजे तक जारी रही। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि पीएमएलए की धारा 50 के तहत, समन किए गए व्यक्ति आवश्यक रूप से आरोपी नहीं है, लेकिन वह गवाह या जांच किए जा रहे अपराध से जुड़ा कोई व्यक्ति हो सकता है।
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि पीएमएलए के तहत जांच सीआरपीसी के तहत जांच से अलग है और कहा कि धारा 50 के तहत बयान व्यक्ति के सोने के अधिकार का सम्मान करते हुए उचित घंटों के दौरान दर्ज किए जाने चाहिए। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ने पहले जांच में सहयोग किया था और उसे किसी अलग दिन बुलाया जा सकता था।
भारत में, हाल के वर्षों में, सोने के अधिकार ने महत्वपूर्ण ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से एक ऐतिहासिक मामले में रामलीला मैदान हादसा बनाम गृह सचिव और अन्य। (2012), जब सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का धारा 144 लागू करते हुए आधी रात के दौरान रामलीला मैदान में सो रहे प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया, जिससे भगदड़ फैल गई। इस प्रकरण को सर्वोच्च न्यायालय ने सुओ मोटो स्वयं खुद के हाथ में ले लिया क्योंकि सोती हुई भीड़ को परेशान करना मौलिक अधिकार का उल्लंघन था। इस मामले ने सर्वोच्च न्यायालय ने नींद के महत्व पर प्रकाश डालते हुए एक रास्ता तैयार किया क्योंकि भारतीय संविधान में नींद के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।
नींद का अधिकार भारतीय संविधान के भाग III में शामिल है, जो इस मौलिक अधिकार की पुष्टि और सुरक्षा करता है। मौलिक अधिकार, संविधान की मूल संरचना होने के कारण, इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता है; मौलिक अधिकारों में किसी भी तरह की परिवर्तन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगी। भारत में मौलिक अधिकार भारतीय नागरिकों और यहां तक कि विदेशियों दोनों के लिए उपलब्ध हैं।
नींद के अधिकार का सार अनुच्छेद 21 से समझा जा सकता है। इसका दायरा बहुत व्यापक है; कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 21 संविधान का एकमात्र ऐसा अनुच्छेद है जो संविधान बनने के बाद से कई बार व्याख्या की गया है। अनुच्छेद 21 में तीन तत्व हैं- जीवन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाएं।
कानून द्वारा स्थापित यह अवधारणा अमेरिकी संविधान से लिया गया है। किसी भी व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता बिना कानून के उचित प्रक्रिया को अपनाएं। परन्तु भारत में, हम अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर की सिफारिश पर कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया का उपयोग करते हैं, जो केवल प्रक्रियात्मक कानून और मनमानी कार्यकारी कार्रवाई पर केंद्रित है।
वर्ष 1978 तक हमें केवल मनमानी कार्यकारी कार्रवाई से ही सुरक्षा मिलती थी; फिर मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में अनुच्छेद 21 के दायरे को विस्तार से बताया गया और फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता की व्यापक परिभाषा पर विचार किया गया। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले किसी भी प्रक्रियात्मक कानून को तर्कसंगतता (रीजनेबिलिटी) की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी और प्रक्रिया निष्पक्ष, उचित और तर्कसंगत होनी चाहिए। कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य में आज तक अनुच्छेद 21 के तहत कई नए तत्वों को शामिल किया गया है, जैसे निजता, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि का अधिकार और अब सोने का अधिकार। आपातकाल के दौरान भी अनुच्छेद 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता है। 1978 का 44 वां संशोधन अधिनियम में यह घोषित किया गया कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
भारतीय संविधान में सोने का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के तहत मौलिक अधिकार के रूप में शामिल है; यह प्रदान करता है कि प्रत्येक नागरिक को एक सभ्य वातावरण, शांति से रहने का अधिकार, रात में सोने का अधिकार और अवकाश का अधिकार है। रात में शांतिपूर्ण माहौल में सोने के दूसरे के अधिकार का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता है क्योंकि सोने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में सीमित कर दिया गया है, यह पूर्ण अधिकार नहीं है; इसमें कुछ प्रतिबंध हैं। जैसे, अनुच्छेद 19, जिसमें भारत के नागरिकों के लिए विभिन्न स्वतंत्रताएं जैसे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि शामिल हैं, पूर्ण अधिकार नहीं हैं; वे कुछ कानूनी उचित प्रतिबंधों से बंधे हैं।
सोने का अधिकार एक निहित अधिकार है; इसमें सोने की जगह, सोने का समय और सोने के तरीके जैसे कुछ प्रतिबंध हैं। कोई भी नागरिक अनुचित कार्य नहीं कर सकता, जैसे दिन में सोना, नग्न होकर सोना, सार्वजनिक स्थानों पर सोना आदि। जबकि दुनिया की अधिकांश कानूनी प्रणालियों में, सोने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है; इसके बजाय, इसे अक्सर जीवन, स्वास्थ्य और कल्याण के अधिकार जैसे मानव अधिकारों और श्रम कानून के कानूनी ढांचे के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षित किया जाता है। इसे स्वास्थ्य और सम्मान के अधिकार के रूप में सुरक्षित रखा गया है। भारत इस संवेदनशील विषय पर नज़र डालने वाला पहला देश है क्योंकि नींद जीवन की समग्र गुणवत्ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
अमेरिकी संविधान और कानून के तहत नागरिकों को फुरसत से बैठने का, सोने का और यहां तक कि चुप रहने का अधिकार है। वहीं किसी मामले की जांच के दौरान संबंधित शख्स के दरवाजे पर दस्तक देना (चाहे दिन में हो या रात में) यानी बिना अदालती आदेश के तलाशी के लिए भी पहुंचना उस व्यक्ति की निजता में घुसपैठ होने के साथ एक नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना जाता है।
कई देशों ने हवाई अड्डों पर पूरी तरह से रात का कर्फ्यू लगा दिया जाता है। यानी उन शहरों में देर रात में लैंडिंग और टेक-ऑफ पर प्रतिबंध है क्योंकि वहां अच्छी नींद की अवधारणा को अच्छे स्वास्थ्य से जोड़ा गया है।
भारत में संविधान सर्वोपरी है और कानून के शासन की बाध्यता है। अनुच्छेद 21 का आयाम निरंतर नई सीमाओं की ओर बढ़ रहा है। नींद को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करते हुए, भारतीय संविधान ने एक बार फिर संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता को प्रदर्शित किया और साबित किया कि मानव जाति की गरिमा सुनिश्चित करने के लिए संविधान आवश्यक है।
ऐतिहासिक मामले जिनके कारण नींद के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में पेश किया गया
सईद मकसूद अली बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (2001)मामले में, कुछ हद तक, सोने के अधिकार की अप्रत्यक्ष रूप से व्याख्या की गई।
सईद मकसूद अली, एक हृदय रोगी, जिसका घर डॉ. बटालिया आई हॉस्पिटल, घंटाघर, जबलपुर के पास सिंधी धर्मशाला के किनारे स्थित था। धर्मशाला में कई धार्मिक आयोजन होते थे और इसे शादी-ब्याह व अन्य समारोहों के लिए किराये पर भी दिया जाता था। जिसमे तेज आवाज में संगीत बजाने के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल किया जाता था जिससे याचिकाकर्ता को परेशानी थी। पुलिस प्राधिकरण को विभिन्न शिकायतें की गईं क्योंकि पुलिस को ध्वनि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई करने का अधिकार पुलिस अधिनियम, 1861 के धारा 30 के तहत प्राप्त है, लेकिन इसके तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई है। अतः मामला उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश में दायर किया गया।
याचिकाकर्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत प्रतिवादी संख्या 7 के खिलाफ ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के प्रावधानों के तहत लाउडस्पीकर और अन्य पब्लिक एड्रेस सिस्टम के उपयोग के लिए शिकायत दर्ज की है, जिससे उसको परेशानी हुई और सार्वजनिक शांति प्रभावित हुई। यह शिकायत इसलिए दर्ज किया गया क्योंकि अत्यधिक शोर उत्पन्न करना कानूनन अनुचित है और नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अत्यधिक ध्वनि से सुरक्षा का अधिकार है।
वर्ष 2017 में, उच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी “प्रत्येक नागरिक को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक सभ्य वातावरण में रहने का अधिकार है और रात में शांति से सोने का अधिकार है।”
रामलीला मैदान हादसा बनाम गृह सचिव और अन्य (2012)
जून 2011 में दिल्ली में बाबा रामदेव की रैली में सो रही भीड़ पर पुलिस के एक्शन की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाया था कि पुलिस की कार्रवाई से लोगों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ। मनुष्य की मानसिक-शारीरिक सेहत के लिए पर्यापत नींद बेहद जरूरी है. ऐसे में नींद एक तरह से मौलिक और बुनियादी आवश्यकता है. जिसके बिना जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है. कोर्ट ने नींद को बुनियादी मानव अधिकार बताते हुए यह टिप्पणी की थी।
कोर्ट ने पुलिस की इस दलील की भीड़ शांति भंग करने की योजना बना रही थी को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह मानना कि कोई व्यक्ति सोते समय सार्वजनिक शांति को बाधित करने की योजना बना रहा था। हालांकि कोर्ट ने ये भी कहा इंसान के लिए नींद एक बुनियादी जरूरत है, विलासिता नहीं।