विश्व पुस्तक दिवस आज :
पूजा सिंह, स्वतंत्र पत्रकार
फोटो: गिरीश शर्मा
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें/ मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं।
– जौन एलिया
यह शेर पढ़कर एकबारगी रश्क होता है। उस कमरे को देखने की इच्छा होती है जहां किताबें ही किताबें हैं। करीने से लगी हुई किताबें, बेतरतीबी से बिखरी हुई किताबें। कुछ पढ़ी हुई किताबें, कुछ पढ़े जाने के इंतजार में रखी हुई किताबें। कहानियों-कविताएं और उपन्यास, यात्रा संस्मरण, डायरी और जाने किस-किस विधा की किताबें।
आज विश्व पुस्तक दिवस है, हम जैसे पुस्तक प्रेमियों के लिए एक खास दिन। कहने वाले कहेंगे कि क्या किताब पढ़ने का भी कोई एक दिन हो सकता है? नहीं हो सकता है लेकिन जब अपने आसपास मोबाइल में डूबे और 10 से 30 सेकंड की फेसबुक-इंस्टा रील में डूबे युवाओं को देखती हूं तो मुझे लगता है कि किताबों की बात करना कई वजहों से जरूरी है :
अपने युवा दोस्तों को इस आभासी संसार से बाहर लाने और धर्म, दर्शन, कला, इतिहास और साहित्य की सच्ची शिक्षा देने के लिए किताबों से जोड़ना जरूरी है। अपने छोटे बच्चों को किताबों से जोड़ना जरूरी है ताकि उनकी कल्पनाओं को पंख लग सकें, वे परियों से मिल सकें और महापुरुषों के बारे में जान सकें। वे जान सकें कि झूठ के पांव नहीं होते और सच हमेशा तर्क की कसौटी पर खरा और अकाट्य होता है। किताबें पढ़ना इसलिए जरूरी है ताकि जब व्हाट्सऐप विश्वविद्यालय से निकला झूठ का तूफान घर के बच्चों-बुजुर्गों को एक साथ भ्रम के जाल में उलझा रहा हो तब एक किताब उठाकर सच की झाड़ू से उस जाले को साफ किया जा सके।
क्या आपको भी कभी किसी किताब में दबा कोई फूल मिला है, जो वर्षों पुरानी किसी प्रेमिल याद में ले गया हो, या कोई ग्रीटिंग कार्ड अचानक सामने आया है, जिसे आपने बहुत पहले दुनिया से छुपा कर किसी किताब में रख दिया था जैसे अपने सीने में छिपाया हो? इस संभावना से ही दिल नहीं धड़क उठा तो फिर काहे के इंसान?
कहते हैं किताबें जीवन बना देती हैं लेकिन मुझे तो लगता है कि किताबें आपको ‘बिगाड़ती’ भी हैं। किताबें पढ़कर आप दुनिया की पारंपरिक कसौटियों के लिहाज से ‘बिगड़’ जाते हैं। किताबें आपको सच बोलने का साहस देती हैं, गलत बातों को रेखांकित करने की प्रेरणा देती हैं, सवाल करने की हिम्मत देती हैं और अपनी कल्पना का विस्तार करने का अवसर देती हैं। दुनियावी अर्थों में यह सब करना बिगड़ना ही तो है। किताबें पढ़कर ही मैंने रुढ़ियों और अंधविश्वासों पर प्रश्नचिह्न लगाना शुरू किया। किताबें पढ़कर ही मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि हिंदू समाज में सभी सुहाग चिह्न (चूड़ी, बिंदी, बिछुआ, मंगलसूत्र) महिलाएं ही क्यों धारण करती हैं? मुस्लिम समाज में बुरका केवल महिलाएं ही क्यों पहनती हैं और दुनिया के अधिकांश (या शायद सभी) धर्मों में महिलाओं को पतियों का सरनेम क्यों धारण करना पड़ता है। जाहिर है इन सवालों के साथ मुझे तो बिगड़ना ही था। पहले मैं बिगड़ी फिर मैंने और किताबें पढ़ीं और हाथ से बाहर ही हो गयी। बहरहाल, मुझे तो यही लगता है कि जो किताबें पढ़कर बिगड़े वे अपने जीवन में कुछ बन गये।
जिस समय मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की उस समय इंटरनेट की इस कदर धूम नहीं थी। बतौर पत्रकार भी हमें बहुत सारा समय पुस्तकालयों में देना होता था, अखबारों के दफ्तरों में संदर्भ कक्ष होते थे जहां मोटी-मोटी किताबों और फाइलों से संदर्भ निकालने होते थे। यह एक अलग किस्म का चस्का था। कई बार ऐसा होता था कि मैं किसी एक संदर्भ की तलाश में जाती और वहां से बहुत देर बाद कुछ और ही पढ़कर चमत्कृत होती हुई लौट आती। इस तरह मैंने जाना कि किताबों में आपकी घड़ी को रोक देने की क्षमता है। कुछ दिलचस्प पढ़ते हुए ऐसा होता है कि आपको समय का पता ही नहीं चलता।
मेरे बहुत सारे सपनों में से एक सपना अपना पुस्तकालय बनाने का भी है। एक पुस्तकालय जो नि:शुल्क हो। जहां कोई केयरटेकर न हो। लोग आएं, अपनी पसंद की किताबें पढ़ें और जाएं। कोई किताब ले जानी हो तो वहां रखे रजिस्टर में दर्ज करें और समय पर उसे वापस लाकर रख दें। एक ऐसा पुस्तकालय जिसमें कोई ताला न हो, जो कभी बंद न हो। कहते हैं सपने देखते रहने चाहिए क्योंकि इससे उन्हें पूरा करने की हिम्मत भी मिलती है।
एक बहुत पुरानी कहावत है कि पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी और सच्ची मित्र होती हैं। आप दु:खी और निराश हों तो एक पुस्तक आपको उतना ही सहारा देती है जितना कोई सच्चा दोस्त दे सकता है। वे आपको कभी चोट नहीं पहुंचाती, कभी धोखा नहीं देतीं। वे बस सहारा देती हैं। जैसे कह रही हों- मेरे पास आओ, मुझसे कहो अपनी परेशानी, मैं हूं न।
इस विश्व पुस्तक दिवस पर प्रण लीजिए कि पढ़ने की आदत अगर छूट रही है तो उसे दोबारा शुरू करेंगे। धार्मिक, पौराणिक, साहित्यिक, तार्किक हर प्रकार की पुस्तकों को पढ़ेंगे और उनका सार ग्रहण करेंगे, उसे जीवन में उतारेंगे।
आखिर में, पुस्तकों की बात हो और भारतीय संविधान की बात न हो तो बात अधूरी रह जाएगी। हमारा संविधान वह जीवंत दस्तावेज है जो देश के नागरिकों को, लोक सेवकों और जन प्रतिनिधियों को उचित आचरण की राह दिखाता है। हमारा संविधान वह कानूनी दस्तावेज है जिससे देश में विधि का शासन सुनिश्चित होता है। संविधान की प्रस्तावना अपने आप में एक महाकाव्य के समान है जिसके एक-एक शब्द की विशद व्याख्या की जा सकती है। समता-समानता, बंधुता, गरिमा, न्याय ये केवल शब्द नहीं हैं, ये ऐसे मूल्य हैं जिन्हें हम अगर अपने जीवन में उतार सकें तो हमारे जीवन की और एक समाज के रूप में हमारे देश की दिशा ही बदल जाएगी।
इस प्रतिगामी दौर में जहां हर अच्छी चीज को नष्ट किया जा रहा है आइए एक प्रण लेते हैं कि अपने जीवन में जितना संभव होगा, पुस्तकों के लिए स्थान बढ़ाएंगे, अपने बच्चों और पास-पड़ोस के लोगों को किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे, पुस्तकालयों की आलमारियों से धूल झाड़ेंगे और एक विवेकसंपन्न समाज बनाने में योगदान देंगे। किताबों के बिना हम और हमारे बिना किताबें अधूरी हैं, किसी काम की नहीं। सफ़दर हाशमी की नज्म की दो पंक्तियां लें तो-
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
यह चित्र चैन्नई रेलवे स्टेशन पर बने हिंदी पुस्तकालय का है। रेलवे ने हर स्टेशन पर पुस्तकालय स्थापित कर साहित्यकारों के नाम पर उनका नामकरण किया था। इसकी क्या दशा है इस पर फिर कभी बात होगी।
No better friend than books in our life. Excellent summation
मैंने काफी पहले अपने गांव में पुस्तकालय के लिए कोशिश की थी। हालांकि वह पुरजोर कोशिश नहीं थी, इसलिए असफल रहा। एक बार पुनः प्रयास करेंगे।
What a wonderful explanation about the importance of habit of reading books. The writer is very practical and her motivational appeal will definitely compel everyone to make the books, their best friends.
Congratulations…