हिंसा की मार्केटिंग: हिंसा को बेचने का खेल किस हद तक उचित?
योगेश कुमार ध्यानी, मरीन इंजीनियर और स्वतंत्र लेखक
5 जुलाई को सिनेमाघरों मे प्रदर्शित होने जा रही करन जौहर के प्रोडक्शन की एक फिल्म का नाम ‘किल’ है। इस फिल्म के टीजर में लिखा हुआ आता है ‘मोस्ट वायलेंट फिल्म एवर मेड इन इंडिया’। छोटे से ट्रेलर में ही हिंसा के इतने विदारक दृश्य हैं कि कमजोर दिल वालों के लिए इस ट्रेलर की शुरुआत में ही अत्यधिक हिंसा के दृश्यों के होने की चेतावनी अलग से दी गयी है।
फिल्ममेकर के हिसाब से वायलेंट होना इस फिल्म की उपलब्धि है। मुझे याद नहीं पड़ता कि इससे पहले किसी फिल्म को वायलेंट होने की क्वालिटी के कारण प्रसिद्धि मिली हो। हालांकि गैंग्स आफ वासेपुर और मिर्जापुर जैसी सीरीज मे हिंसा भरपूर थी लेकिन सिर्फ इस वजह से ये फिल्म या सीरीज चली हो ऐसा नही कहा जा सकता।
इसके अलावा हम जानते हैं कि धीरे-धीरे ऐक्शन जॉनर मे बड़े प्रयोग किये जा रहे हैं। जवान, पठान और टाइगर जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। फिर भी बड़े से बड़ी फिल्म भी कहानी के अभाव मे नकार दी जायेगी। ऐक्शन स्थापित जॉनर है जो सत्तर के दशक की फिल्मी फाइटिंग से बढ़ते हुए अब तकनीक के जरिये अकल्पनीय दृश्यों तक पंहुच गया है।
ऐक्शन वाले दृश्य ही बढ़ते हुए वायलेंट हो जायेंगे। उनमे चोट होगी, खून होगा। लंबे समय से देखते रहने के बाद धीरे-धीरे दर्शक भी देखने का अभ्यस्त होने लगता है। उसकी पलकें नही झपकती, गर्दन नहीं मुड़ती, आंख नहीं मिचती और चीख नही निकलती। मुझे याद है बचपन में ऐसी हिंसा के दृश्य टीवी पर आने पर मां हमारी आंखों पर अपना हाथ रख देती थीं और अपनी आंख भी बंद कर लेती थीं। उसकी आंख आज भी बंद होती है लेकिन अब हमारी नहीं होती।
फिल्म को मोस्ट वायलेंट फिल्म की तरह से प्रमोट करते हुए फिल्ममेकर एक तरह से नये जॉनर की घोषणा कर रहा है। जैसे रोमांटिक, कॉमेडी, ऐक्शन, हॉरर वगैरह वैसे ही वायलेंट।
जॉनर भी समय के साथ अपने प्रयोगों से धीरे-धीरे प्रगाढ़ होते गये। जैसे प्रेम के भाव को दीर्घ करने की मंशा से गीत बने होंगे कि भाव पर चार-पांच मिनट तक टिका जा सके। हँसाने के लिए पहले कॉमेडियन का उपयोग किया जाता था। बाद मे लंबी और निरंतर हँसी की मांग को देखते हुए सिचुएशनल कॉमेडी फिल्में बनाई जाने लगीं। फिल्ममेकर्स ने अपने-अपने जॉनर में निपुणता भी हासिल की। जहां यश चोपड़ा रोमांटिक फिल्मों के जानकार हुए तो वहीं डेविड धवन और प्रियदर्शन ने कॉमेडी फिल्मों की झड़ी लगा दी। रोहित शेट्टी ‘सिंघम’ जैसी एक्शन फिल्मों को आगे लेकर गये।
यह सब देखते हुए क्या हम अंदाज लगा सकते हैं कि आने वाले समय मे बनने वाली वायलेंट जॉनर की फिल्में कितनी वायलेंट हो जायेंगी!
सवाल है कि क्या फिल्म को मोस्ट वायलेंट कहते हुए प्रमोट करना ठीक है? फिल्म देखते हुए हम हँसते हैं, प्रेम को सोचते हैं, डरते हैं… हमारे भीतर कुछ न कुछ घटित होता है जो किसी भाव को उद्दीप्त करता है, रोओं को उठाता है, नसों मे खून का प्रवाह बढ़ाता है। इस उद्दीपन के लिए क्या किसी भी हद तक की हिंसा को स्वीकार किया जाना चाहिए। आखिर फिल्मों से हम खाली हाथ तो नही लौटते हैं। कुछ न कुछ चूरा तो हमारे पास छूट ही जाता है। भले ही पर्दे पर दिखाई जा रही चीजें झूठी हैं। उन्हें फिल्माते हुए किसी को चोट नही लगी है कोई मरा नहीं है फिर भी हमारे ऊपर पड़ने वाला असर तो असली है। वह कहीं न कहीं हमे प्रभावित तो करता ही होगा।
यह भी एक विमर्श का विषय हो सकता है कि पूर्व में जब सत्तर-अस्सी और नब्बे के दशक में फिल्मों में हिंसा बढ़ी तो उसका हमारे समाज पर क्या प्रभाव पड़ा। क्या उसकी हिंसक प्रवृत्तियों मे भी इजाफा हुआ। इसका ठीक-ठीक आंकलन करना कठिन होगा। हालांकि फिल्ममेकर कहते आये हैं कि फिल्मों में वही सब दिखाया जाता है जो हमारे समाज में पहले से मौजूद है। फिर भी फिल्में सीधे तौर पर भी समाज को प्रभावित करती ही हैं, यह बात हम कपड़ों के चलन मे प्रायः देखते हैं।
फिल्ममेकर शायद इसलिए अपनी फिल्म को मोस्ट वायलेंट के टैग के साथ प्रमोट करना चाहता है क्योंकि वह जानता है इस तरह कहने से दर्शक फिल्म देखने आयेंगे। वो देख चुका है कि कुछ ही समय पहले दर्शकों ने हिंसा से भरपूर ‘एनिमल’ को ब्लॉकबस्टर कराया है।