सुरजीत पातर: अलविदा शब्दों के समर्थ कवि
- टॉक थ्रू एडिटोरियल टीम
11 मई की सुबह सुबह खबर मिली कि सुरजीत पातर नहीं रहे। वे सुरजीत पातर जो मानते थे कि कविता में लफ्जों का इस्तेमाल बड़ी संजीदगी से होना चाहिए क्योंकि यह कई राज खोलते और छिपाते भी हैं। पद्मश्री डॉ. सुरजीत पातर जिन्हें पंजाब के युग कवि पुकारा गया और जिन्हें शब्दों का समर्थ कवि की संज्ञा दी गई। उनकी कविताएं भले ही पंजाबी में लिखी गईं लेकिन उनमें सारे जहान की अनुभूति समाहित है और इसी कारण कविताएं अनुवाद के रूप में पंजाब, भारत का दायरा लांघ कर पूरे विश्व में पहुंची हैं।
उनसे भोपाल के प्रतिष्ठित आयोजन में तीन बार मुलाकात हुई और व्यक्तित्व की आभा ऐसी कि एक कोने में खड़ा खामोश शख्स सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करता था। फिर उनकी कविताएं तो काव्य प्रेमियों के आकर्षण का सबसे बड़ा कारक है ही। साहित्य अकादमी के सालाना कार्यक्रम में पहुंचे डॉ. सुरजीत पातर की यह तस्वीर मध्य प्रदेश के प्रख्यात कवि नीलोत्पल और दिलीप झंवर की एक यादगार मुलाकात की छवि बन कर रह गई है।
वे शब्दों के जादुगर थे और उनके पास एक ऐसा अनुभव भी था जो वे अकसर सुनाया करते थे। वे बताते थे, मुझे कोलंबिया की याद जीवनभर रहेगी। कोलंबिया के लोगों ने दाढ़ी और पगड़ी का कवि नहीं देखा था। वहां बच्चे ने उन्हें मागो (जादूगर) समझ लिया था। उस बच्चे ने दाड़ी-पगड़ी वाला आदमी देख कर कहा, ‘तुम मागो हो तो मेरी साइकिल को घोड़ा बना दो।’ तब कवि सुरजीत पातर ने बताया कि वे बच्चों के मागो नहीं, बड़ों के मागो हैं तो बच्चे ने फरमाइश कर दी, ‘फिर मेरे माता-पिता के घर को महल बना दो।’
आखिर जब रहस्य खुला तो बच्चे ने हंसते हुए कहा- अच्छा तो आप पोएट हो। वे साइकिल चलाते मुस्कुराते हुए पार्क से चले गए और उनकी कविता में शामिल हो गए।
पूरे जीवन साहित्य को समर्पित रहे सुरजीत पातर का जन्म 14 जनवरी 1941 को जालंधर जिले के गांव पत्तड़ कलां में हुआ। उन्होंने गांव के स्कूल में चौथी कक्षा तक की पढ़ाई की। इसके बाद दूसरे गांव खैरा माझा से हाईस्कूल तक की पढ़ाई की। रंधीर कॉलेज कपूरथला से स्नातक करने के बाद उन्होंने पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से पंजाबी में एमए किया। मन साहित्य के तरफ था तो गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर से गुरु नानक वाणी में लोकधारा का रूपांतरण विषय में पीएचडी की। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना में पंजाबी के प्रोफेसर भी रहे। उन्हें वर्ष 1993 में सुरजीत पातर को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 2012 में साहित्य और शिक्षा में योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
प्रकृति से अथाह प्रेम करने वाले सुरजीत पातर की रचनाओं में प्रकृति अपने सौम्य रूप में तो प्रस्तुत होती है, मानवता और हमारी संवेदना के क्षरण के बड़े बिम्ब और प्रतीक रूप में भी दिखाई देती है।
एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि बचपन में दो आकांक्षाएं थीं। पहला संगीतकार बनने की और दूसरा कवि बनने की। इनमें से कवि बनने वाली राह पकड़ ली। कॉलेज के दूसरे साल में ही कविता के प्रति काफी लगाव हुआ। कविताएं कहीं प्रकाशित हों इसलिए कई जगह भेजता था। पहले तीन बार कविताएं वापस गईं। उसके बाद तो पूरा पन्ना ही मेरी कविताओं से भर गया था। पहली बार वर्ष 1964 में प्रीतलड़ी पत्रिका में पहली बार मेरी कविता छपी। प्रीतलड़ी ने पत्तड़ का नाम पातर किया।
कवि के जीवन का एक रंग और है जो हमें उनके कोमल मन से रूबरू करवाता है। उन्होंने बताया था कि मैंने चौथी जमात में गुरु पर्व पर कविता लिखी थी। उस वक्त तो मेरे मन में भाव नहीं होते थे। कोशिशों का कुआं खोदता रहता था, बाद में इसमें पानी भी आया। बात कॉलेज की है। कॉलेज में मैग्जीन के लिए शिक्षक ने कविता मांगी थी। मेरे शिक्षक नाटककार थे। जब उन्होंने मेरी कविता देखी तो मुझसे कहा किसकी कविता चुराकर लाए हो। उस वक्त मेरे आंखों में आंसू आए लेकिन मैंने उन आंसुओं को छुपा लिया था। तीसरे दिन जब शिक्षक पढ़ाने आए तो सभी बच्चों को एक अफसोस की चिट्ठी लिखने को कहा। मैंने बहुत ही बेहतरीन चिट्ठी लिखी। उन्होंने जब मेरी चिट्ठी पढ़ी और फिर कहा कि वह कविता लेकर आओ।
मेडलिन शहर में कवि सम्मलेन के दिनों
उबेरू पार्क में एक बच्चा आया मेरे पास साइकिल पर
मेरी पगड़ी और दाढ़ी देख पूछने लगा
‘क्या तुम जादूगर हो?’ मैं हंसने लगा
कहने वाला था ‘नहीं’ पर अचानक कहा, ‘हाँ, मैं जादूगर हूँ’
मैं आसमान से तारे तोड़ किशोरियों के लिए हार बना सकता हूँ
मैं जख्मों को बदल सकता हूँ फूलों में
दरख्तों को साज बना सकता हूँ
और हवा को साज नवाज
सचमुच! बच्चे ने कहा
तो फिर तुम मेरी साइकिल को घोड़ा बना दो
नहीं। मैं बच्चों का नहीं बड़ों का जादूगर हूँ
तो फिर महल बना दो हमारे घर को
नहीं। सच बात तो यह है के मैं चीजों का जादूगर नहीं
जादूगर हूँ शब्दों का
ओह। अब समझा, तुम कवि हो।
बच्चा साइकिल चलाता हाथ हिलाता
चला गया पार्क से बाहर
और दाखिल हो गया मेरी कविता में।
आज हमारे बीच शब्दों का समर्थ कवि नहीं है लेकिन उनकी कविताएं हैं। उन्हीं कविताओं के साथ उन्हें श्रद्धांजलि।
मेरी माँ को मेरी कविता समझ न आई
बेशक वो मेरी माँ बोली में लिखी थी
वो तो केवल इतना समझी
बेटे की रूह को दुःख है कोई
पर इसका दुःख मेरे होते आया कहाँ से
कुछ और गौर से देखी
मेरी अनपढ़ माँ ने मेरी कविता
देखो लोगों
कोख के जाए
माँ को छोड़
दुःख कागज़ को बताते है
मेरी माँ ने कागज़ उठा सीने से लगाया
शायद ऐसे ही कुछ
करीब हो मेरा जाया।
मातम
हिंसा
ख़ौफ़
बेबसी
और अन्याय
यह हैं आजकल मेरी नदियों के नाम।
मैं जिन लोगों के लिए पुल बन गया था
वे जब मुझ पर से गुज़र रहे थे
मैंने सुना मेरे बारे में कह रहे थे
वो कहाँ छुप गया है चुप सा आदमी ?
शायद पीछे लौट गया है
हमें पहले ही ख़बर थी कि उसमें दम नहीं है।
मेरी सूली बनाएँगे
या रबाब
जनाब
या कि मैं यूँ ही खड़ा रहूँ ताउम्र
करता रहूं पत्तों पर
मौसमों का हिसाब-किताब
जनाब
कोई जवाब
मुझे क्या पता-मुझे कहाँ भेद
मैं तो ख़ुद एक वृक्ष हूँ तुम्हारी तरह
तुम ऐसा करो
आज का अखबार देखो
अखबार में कुछ नहीं
झड़े हुए पत्ते हैं
फिर कोई किताब देखो
किताबों में बीज हैं
तो फिर सोचो
सोच में जख्म हैं
दांतों के निशान हैं
राहगीरों के पदचिह्न हैं
या मेरे नाखून
जो मैंने बचने के लिए
धरती के सीने में घोंप दिए हैं
सोचो, सोचो और सोचो
सोच में कैद है
सोच में खौफ है
लगता है धरती से बंधा हुआ हूँ।
जाओ फिर टूट जाओ
टूटकर क्या होगा
वृक्ष नहीं तो राख सही
राख नहीं तो रेत सही
रेत नहीं तो भाप सही
अच्छा फिर चुप हो जाओ
मैं कब बोलता हूँ
यह तो मेरे पत्ते हैं
हवा में डोलते हुए।