जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं पर आधारित
संजीव शर्मा, स्वतंत्र लेखक
जबसे हम होश संभालते हैं हम यही सीखते हैं कि जीवन को ठीक से जीने, आगे बढ़ने और जीवन में एक मुकाम हासिल करने के लिए महत्वाकांक्षा या एम्बिशन एक जरूरी चीज है और यदि यह हमारे जीवन में नहीं होगी तो हमारा जीवन व्यर्थ हो जाएगा और हम एक नीरस, निस्तेज और नाकारा जीवन जीवन जीते हुए मर जाएंगे। लेकिन क्या वाकई में ऐसा है?]
सबसे पहले पता करते हैं कि महत्वाकांक्षा का हमारे लिए मतलब क्या है? आम तौर पर हमारे लिए महत्वाकांक्षा का मतलब है कि हम जिस भी स्थिति में है वह ठीक नहीं है और हमें उससे आगे की किसी स्थिति के लिए कोशिश करते रहना है। यानी हमें निरंतर हर चीज का विस्तार करते रहना है, आय का, साधनों का, सुविधाओं का, सामाजिक स्थिति का, लोकप्रियता का, फैन फालोइंग का; कुल मिलाकर हर चीज का। अब इसके लिए हमको कीमत क्या देनी पड़ेगी यह हमको नहीं पता; तनाव हो, चिंता हो, सुख-चैन छिन जाए, जिनके साथ जीवन बिताना चाहते हैं उनके साथ बिताने के लिए वक्त न बचे, लेकिन हम डटे रहते हैं। यानी, जीवन भले ही नरक हो जाए लेकिन हमें फैलते जाना है, आगे बढ़ते जाना है, नया से नया हासिल करते जाना है।
यदि किसी तरह से हमने इन सबकी व्यर्थता देख ली और मन इन सबसे मन उचाट हो जाता है तो महत्वाकांक्षा अपनी दिशा बदल लेती लेकिन उतनी ही मजबूती से जमी रहती। अब मुझे आध्यात्मिक जगत में आगे बढ़ना है, भीतरी जगत में नया से नया हासिल करना है, साधना को आगे बढ़ाना है, ज्यादा से ज्यादा लोगों को ज्ञान देना है, गुरु बनना है। अब इसके लिए भी मैं कोई भी कीमत देने को तैयार हो जाता हूं, एक नए किस्म का संघर्ष शुरू हो जाता।
दोनों ही स्थितियों के मूल में एक ही भाव है कि मैं जो हूं, जैसा हूं वह बहुत बेकार है, क्षुद्र है और मुझे आगे बढ़ना है, लगातार कुछ हासिल करना है, निरंतर कुछ पाना है। क्या हम इस प्रश्न पर विचार कर सकते हैं कि जीवन को ठीक से जीने, एक अच्छी जीवनशैली के लिए क्या महत्वाकांक्षा अनिवार्य है? क्या महत्वाकांक्षा के बगैर हम खत्म हो जाएंगे, दुर्दशा में पहुंच जाएंगे? या यदि हम महत्वाकांक्षा की जलन से मुक्त हो जाएं (बिना एक और आफत पाले कि मुझे महत्वाकांक्षा से किसी भी तरह मुक्त होना है) तो क्या हमारे जीवन की गुणवत्ता बढ़ जाएगी?
जीवन को यथासंभव ठीक से जीने के लिए हमारी कुछ वास्तविक जरूरतें होती हैं और कुछ जरूरतें हमें लगती हैं कि हमारी जरूरतें हैं लेकिन हमने कभी जांच-पड़ताल नहीं की होती कि यह हमारी जरूरतें हैं भी या नहीं। हमारे खुद के द्वारा, समाज द्वारा, परिवार द्वारा, किसी फिल्मी सितारे द्वारा, किसी इंफलुएंसर द्वारा, किसी विज्ञापन द्वारा या किसी आध्यात्मिक गुरु द्वारा बताई गई जरूरतें अक्सर हमारी वास्तविक ज़रूरतें होती ही नहीं हैं। यदि हम वास्तविक जरूरतों की बजाय काल्पनिक जरूरतों को अपनी जरूरतें मान लेते हैं तो महत्वाकांक्षा को पांव पसारने का भरपूर मौका मिलता है, और हमारे संघर्ष, तनाव, द्वंद्व और मानसिक-शारीरिक बीमारियों में फ़ंसने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।
अब सवाल आता है कि हम कैसे पता करें कि हमारी वास्तविक जरूरतें क्या है? उसके लिए पहला कदम तो अपने आप से दोस्ती करना ही है। मैं जो हूं, जैसा हूं उसे बिना धिक्कारे, बिना तारीफ किए, शांति से, प्रेम से, इत्मीनान से देखना, महसूस करना, परखना, छूना; जैसे ही हमारा खुद के साथ यह अफ़ेयर, यह प्रेम संबंध शुरू होता है हम वास्तविक जरूरतों और काल्पनिक जरूरतों के भेद को समझने लगते हैं। हमको समझ आने लगता है कि इन जरूरतों की पूर्ति के लिए हमको क्या करना है। फिर हमको जीवन की गुणवत्ता के लिए महत्वाकांक्षा के निरंतर संघर्ष, तनाव और जलन की कोई जरूरत नहीं रहती।