स्मृति लेख और चित्र: सुरेश जी, पुणे
बाई की यह मुद्रा अचानक नहीं होती थी, महीने भर इंतजार करने के बाद मैं जब पुणे से अपने घर पहुंचता तो मां हमारे पहले मकान के पहले कमरे में खिड़की खोल के बैठी होती थी। कहने को तो वह दूध लेने के लिए बैठी होना बताती थी लेकिन उसे मेरे आने का इंतजार करना होता था। जैसे ही मैं दरवाजे से अंदर जाता था हल्की मुस्कान के बाद एक ही नजर में पूरा एक्सरे कर लेती थी। दुबला हुआ, काला हुआ, बाल सफेद हुए या डाई नहीं की सब एक ही नजर में देख लेती थी। इसके बाद जब तक मैं ब्रश करके चाय पीने के लिए आता तब तक वह पलंग छोड़कर सोफे पर बैठ जाती थी। महज इसलिए कि मैं रात भर ट्रेन में सफर पूरा करके आया हूं तो थक गया होऊंगा। ठंड के दिनों में तो रजाई तक लाकर रख देती थी।
जब बाई सोफे पर इस मुद्रा में बैठी होती थी तो मैं समझ जाता था कि महीने भर की गहन चिंताओं और चिंतन करने के बाद वह किसी फाइनल डिसीजन पर पहुंच चुकी है और मुझे कुछ कहना चाह रही है।
जब मैं बाई से इतना ही पूछता कि कई व्यो? ( क्या हुआ) तो वह बोलने का सिलसिला शुरु कर देती थी जिसमें मोहल्ले भर की खबरें, रिश्तेदारों की बातें, पेंशन में बढ़ोतरी, किसी की बीमारी और मौत की खबरें भी उसके पास होती थी। इन सब के बीच वह अपनी बीमारी को भूल जाती थी। शुगर की पेशेंट थी इसलिए HB1C ( जिसे वह तीन महीने वाली जांच कहती थी) का जरुर कहती थी। अणी बार तो जांच करवानी पड़ेगा। जब जांच हो जाती थी तो रिपोर्ट अच्छी आने पर खुद के परहेज को इसका श्रेय देती थी।
मदर्स डे पर इस फोटो को देख कर मुझे बस एक बात ही याद आई.. बाई तू आज वेती तो (मां तू आज होती तो)। कितना अच्छा लगता सुनील ने दुकान खोल ली है रेडिमेड की, गोल की अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई है, गोलू की शादी हो गई है, बहू भी इंदौर की है और पुणे में अच्छी कंपनी में नौकरी कर रही है। इंदौर वाला ब्याईजी भी अच्छा है। शादी इंदौर में भी अच्छी हुई और महिदपुर रोड में भी। मेरी तबीयत भी ठीक है। बस एक तू ही नहीं है, आज तू वेती तो…
बहुत ही भावपूर्ण. मां तो मां होती है, जी जीवन में सुख बोती है। हार्दिक बधाई :
– माँ कबीर की साखी जैसी तुलसी की चौपाई सी
– माँ मीरा की पदावली सी माँ है ललित रुबाई सी
सर हिंदी साहित्याचा एक नजराणा सरळ,सुरेख आणि भावस्पर्शी