प्रीति राघव, गुरुग्राम
शनीचरा व पौड़े हनुमान जी से मिलाने के बाद अपनी घुमक्कड़ी जारी रखते हुए आज उस बेशकीमती धरोहर से मिलाती हूं…जो पर्यटकों की बाट जोह रही है। अपने मन की कहूं तो ये कतई आवश्यक नहीं कि जानी-मानी जगहें और स्मारक आदि ही देखने लायक हों। अक्सर हम लोग अपनी ही दुनिया में मगन रहने वाले किसी छोटे से शहर को किसी अफवाह या डर से अनदेखा, अनछुआ ही छोड़ देते हैं। जिसके कारण वहां की नैसर्गिक सुंदरता के साथ-साथ बेशकीमती पौराणिक धरोहर के इतिहास से भी वंचित रह जाते हैं। ऐसे में हमें इस ओर अपनी सोच की दिशा बदल कर स्वयं से एक प्रश्न करना है कि विदेशी पर्यटक पागलों की तरह विपरीत परिस्थितियों में भी क्यूं और क्या देखने को आते रहते हैं हमारे देश में?
हमें ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ लोकोक्ति से हटकर बस इतना भर सोचना है कि हाजमा दाल से ही सही रहता है, मुर्गी से तो स्वाइन फ्लू भी हो सकता है। खैर ये तो मजाक की बात हुई। हमें इस कूपमंडूक सोच से बाहर आकर खुले दिल और दिमाग से समझना है कि हमारे देश की भूमि अमूल्य रहस्यमयी धरोहरों, कला, ज्ञान व शिक्षा की ट्रैजर बाक्स है।
बहरहाल..पौड़े हनुमान जी से वापस शनीचरा आ कर मुख्य द्वार से सीधे हाथ की सड़क को पकड़ हम बढ़ निकले। हम पड़ावली के एक छोर से आये थे और अब दूसरे छोर की ओर बढ़ चले हैं। यहां से लगभग 15 से 20 मिनट के रास्ते पर ‘बटेसर’ मिला। मुख्य सड़क से यू-टर्न ले कर बड़े से लोह गेट के भीतर सपाट पक्की सड़क, आसपास छायादार दरख्त लगे हुए हैं। यहां चारों ओर पथरीली जमीन में भी लुभावनी हरियाली अपनी ओर खींच रही थी। गाड़ी सडक पर रख हम पुनः एक गेट में गए तो देख कर आंखें व मन भौचक्का था, लगा ये कहां आ गये हम! कशीदाकारी, नक्काशी करे पत्थरों के मंदिरों का ऐसा अद्वितीय समूह कि इन्हें देखकर दिल आश्चर्य व खुशी से झूम गया।
एक-दो नहीं, लगभग आधा सैकड़ा से अधिक शिव मंदिर, जिन्हें आठवीं शताब्दी की कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना कहेंगे। यह ‘बटेसर मंदिर समूह’ ख़जुराहो मंदिर से भी तीन सौ वर्ष पूर्व के बने हैं। हर दीवार व पत्थर को बारीकी से तराश कर बनाई गई बेशकीमती वास्तुशिल्प अपने होने पर इतराती, इठलाती खड़ी हो जैसे। ये धरोहर भले ही पर्यटकों से अछूती है पर अपनी उत्कृष्टता को संजो कर गर्व से मुस्कुराती है। ये कहने को तो खंड़हर हैं, भग्नावशेष हैं मगर छाप ऐसी छोड़ते हैं मानो हम उसी प्राचीन युग में पहुंच गये हों जिस समय इन्हें बनाया गया था।
मंदिर से जुड़ा इतिहास
मुरैना से लगभग 35 किलोमीटर अंदर बीहड़ के बीच बटेश्वर मंदिर समूह का निर्माण 8 वीं शताब्दी से 11 वीं शताब्दी में प्रतिहार राजाओं के वंश के दौरान किया गया। आप को जान कर हैरानी होगी पर यह सच है कि बटेसर मंदिरों का यह समूह लगभग 1000 साल पुराना है।
यह प्राचीन धरोहर वास्तव में 200 से अधिक मंदिरों के समूह के रूप में निर्मित की गई थी, जो मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के इतिहास का महिमामंडन करती है। कहते हैं कि आज अगर हिंदू धर्म भारत में बचा हुआ है उसका श्रेय परिहार राजवंश को जाता है। यह सत्य है कि कोई भी राजवंश स्थाई शासन ना कर सका फिर भी प्रतिहारों ने अरबी मुगलों से 300 वर्ष तक लगभग 200 से ज्यादा युद्ध किए जिसका परिणाम है कि हम अपनी गौरव-गाथा समेटे हैं समय के गर्भ में। यहां अनेकों क्षत्रिय राजवंशों ने समय-समय पर अपनी वीरता, शौर्य, नीतियों व कला के प्रदर्शन से शासन किया।
इन मंदिरों का निर्माण प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय राजवंश के सम्राट मिहिरभोज के शासनकाल से प्रारंभ हुआ और सम्राट विजयपाल प्रतिहार के शासनकाल के समय इन मंदिरों का निर्माण कार्य पूरा हुआ।
भगवान् शिव और विष्णु को समर्पित ये अद्वितीय मंदिर खजुराहो से भी तीन सौ वर्ष पूर्व बने थे। दुर्भाग्य यह रहा कि ये चंबल के डाकुओं के भय से उपेक्षित ही रह गये और समयरथ पर पिस कर ध्वस्त हुए। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान ने दखल देकर इसकी जांच आरंभ नहीं की थी तब तक बटेश्वर मंदिरों का समूह डकैतों के कब्जे में था।
गूगल पर अब इन मंदिरों के बाबत आवश्यक जानकारी उपलब्ध है कि कैसे इनका जीर्णोद्धार हुआ? भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) के डायरेक्टर केके मुहम्मद के प्रयासों ने इन मंदिरों को पुनर्स्थापित किया। केके मुहम्मद इन मंदिरों को अपना तीर्थ मानते हैं और चाहते हैं कि आने वाले समय में इस स्थान को तीर्थ यात्रा के रूप में मान्यता मिले। केके मुहम्मद ने भारत के विभिन्न स्थानों पर कई मंदिरों का जीर्णोद्वार किया है। वे मंदिरों व भारतीय मान्यातों का बहुत गूढ़ ज्ञान और श्रद्धा रखते है। शायद बिना श्रद्धा व लगन के इस तरह का पुनर्निर्माण व संरक्षण संभव नहीं होता।
अब मैं बहुत रोचक बात साझा करती हूं जो आपको गूगल चचा भी ना दे सकेंगे! ये जानकारी मैंने मंदिर के बगीचे में पानी देते कुछ ग्रामीणों से व स्थानीय केयरटेकर जसवंत सिंह से बातचीत के दौरान एकत्र की। वृद्ध जसवंत जी मोहम्मद सर के समय से यहां हैं। जसवंत जी ने एक खास बात भी कही कि के के मोहम्मद साब को सपने में भूतेश्वर बाबा (शिव) ने दर्शन दे कर कहा कि वर्षों से मेरी अनेक पिंडियां और मेरे मंदिर क्षत-विक्षत हो भू-गर्भ में फलानी जगह पर दबे हैं,जाओ और उन्हें सुरक्षित करो। और तभी मोहम्मद सर ने अपने पुरातात्विक विभाग से सिफारिश की यहां तबादले की और उत्थान कार्य का श्री गणेश करवाया। यही नहीं उन्होंने उस वक्त निडर हो कर डाकू निर्भय सिंह गुर्जर से भी सविनय निवेदन कर साथ मांगा जिनका उस समय इस खंड़हर क्षेत्र पर पूरी तरह कब्जा था। प्रतिहार गुर्जर होने की वजह से वो डाकू सरगना तैयार हो गया व गांव वालों की व पुरातात्विक टीम की हर संभव सहायता की।
रोमांचित करने वाली कड़ियां
असली भूतेश्वर बाबा की तस्वीर भी लाई हूं आप सबके लिये जिन्होंने सपना दिया मोहम्मद साहब को। (विज्ञान नकारता है जिन बातों को उनको हम कभी नहीं नकार सकते। मैं मानती हूं कि जसवंत बब्बा ने सच कहा और उन सबसे मोहम्मद सर ने … क्योंकि मुझे भी स्वप्न में कयी बुलावे आये हैं और जिन जगहों को देखना दूर सोचा तक नहीं वहां तक गई हूं उन सपनों के बाद। मानो या न मानो जैसा है यह।)
यही नहीं यहां रखी एक शिला पर भगवान विष्णु के बारह अवतार तक अंकित हैं जिसमें अभी ‘कलकी’ अवतार होना बाकी है पुराणों के अनुसार। भूतेश्वर के द्वार पर एक तरफ यमुना जी कछुये पर हैं वहीं दूसरी तरफ गंगा मैया मगरमच्छ पर। पंचमुखी शिवलिंग विराजमान हैं एक तरफ तो दूसरी ओर शिव और उनकी योगिनी।
यहां विराजे गणपति हैं तो एक ओर खनन में निकली हनुमान बाबा की देश की इकलौती मूर्ति जो आधे नर हैं व आधी नारी और उनके पैर के नीचे दबे हुये रति व कामदेव भी हैं। कहते हैं कि एक बार हनुमान जी की तपस्या भंग करने के लिए ये दोनों आए थे किंतु विफल रहे। तब क्रोध में हनुमान जी ने रति और काम को पैर के नीचे दबा लिया और आधे नर व आधी नारी का रूप धारण किया।
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह सब लिखते-लिखते मैं भी फिर से वहीं पहुंच गई हूं। तन यहां और मन वहीं रमा है मेरा। केके मोहम्मद जैसे लोग कम ही होते हैं। मेरे पहुंचने तक कुल 108 मंदिर सही कर दिए गए थे और अब काम बंद है। लोहे की सलाखें, कील, पेंच सब ऐसा ही रख छोडा है क्योंकि मोहम्मद साहब का रिटायरमेंट हो गया है। मेरी गुज़ारिश है कि मित्रगण इस बचे जीर्णोद्धार के काम की गुहार लगाने में मदद करें जिससे बचा हुआ कार्य संपन्न हो और एक अद्भुत पौराणिक धरोहर को दुनिया के आगे रखा जा सके क्योंकि मोहम्मद जी के अनुसार उन शिव-मंदिरों की संख्या 365 है।
दुःखद पहलू
यही नहीं अब उस इलाके में बढ़ते पत्थर के खनन से एक डर व्याप्त है कि वो खनन माफिया इस धरोहर को पुनः ध्वस्त कर खत्म ना कर दें। पत्थरों को तोड़ने के लिए कई तरह के विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाता है। ये जमीन पर एक बहुत ही भारी कंपन पैदा करते हैं, जिसकी वजह से मंदिर के आधार प्रभावित हो रहे हैं।
खैर, मुझे अभी आगे के और पड़ावों पर बढ़ना है तो …एक उम्मीद के साथ बढ़ रही हूं कि मेरे लिखने के बाद कोई तो वहां समय निकाल कर पहुंचे या फिर मेरी उठाई आवाज पुरातात्विक विभाग के अधिकारियों तक जा टकराए ताकि वे आएं और सहेजें इस ऐतिहासिक सुंदरता व कला के नमूने को।
पत्थरों के चबूतरे के बीचोंबीच सुंदर एकाकी मंदिर
पढ़ावली स्थित शिवमंदिरों के समूह को देखने के बाद आप सब भी मेरे साथ आगे के सफर पर चलते चलिये। हमारे वहां से निकलते ही मौसम धूप-छांव की लुका-छुपी खेल रहा है। बटेसर के बड़े से गेट से बाहर आकर दस-बारह कदम पर ही सीधे हाथ पर काफी ऊंचाई पर मंदिर दिखा। बाह्य संरचना बटेसर की जैसी ही प्रतीत हो रही थी। जसवंत बब्बा ने बातों- बातों में जिक्र किया था विष्णु मंदिर का, शायद ये वही मंदिर था।
मौसम की मुड़कियों से उमस व गर्मी बढ़ने लगी थी और कोई ऊपर साथ जाने को राजी न था। यहां तक आकर खाली जाना मुझे रास ना आया और गाड़ी रोक उतर कर चढ़ने लगी सीढ़ियां,जो कि काफी ऊंचाई पर खत्म हुईं और विशाल पत्थरों के चबूतरे के बीचोंबीच एक सुंदर एकाकी विशाल मंदिर दिखाई दिया। मानो क्षीर सागर में विष्णु शांत अंबुज पर एक तरफ बैठे मुस्कुरा कर अतीत के कमलगट्टे भविष्य के हित में बो रहे हों ।
अपनी अद्भुत शिल्प का बखान कर मानो इतरा रहा हो नशे में चूर ये मौन। स्तंभ गरुणों ने संभाले हुए हैं और खंडित मगर सुंदर देवी-देवता, गणेश, ब्रह्मा आदि सभी इस तरह चहुं ओर विराजमान हैं जैसे राज दरबार सजा हो देवों का। बहुत सी तस्वीरें खींची मैंने यहां, वे स्वयं अपनी कथा कह देंगे। पिकनिक, दर्शन और फोटोग्राफी के लिए अनुकूल एकांत स्थान।
सीढियों से वापस उतरते नीचे की ओर पास की तस्वीरें भी ली और नीचे खडी अपनी ‘रामप्यारी’ में बैठ आगे की कुलांचें भरने निकल पड़े।
लगभग थोड़ी ही दूर घुमावदार सड़क से एक गढ़ी पढावली का गुंबद भवन सा मंदिर देखते हुये मुख्य द्वार तक आये लगभग 10 से 12 मिनिट में। ये भी एक विशाल मंडप वाला शिवमंदिर था, जिसे मिनी खजुराहो भी कहा जाता है। यहां टंकित शिलालेख इसकी कथा के विषय में भान कराता है। स्थानीय लोगों से कुछ खास जानकारी न बटोरी जा सकी। बटेसर मंदिर से थोडी भिन्नता लिये संरचना थी इसकी।
मंदिर के अंदर की दीवारों पर हिंदु देवी-देवताओं की प्रतिमायें अंकित हैं जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य,चंद्र, गणपति, काली मैया एवं विष्णु के सभी अवतारों का अंकन है। ये जानकारी बाहर एक ग्रामीण से मिली जो कि साइकिल पर खड़ा था। उसने उमस के कारण गमछा लपेट रखा था और मोटे चैक की नीली सफेद कमीज और स्लेटी पतलून पहनी हुई थी। उसी ने बताया कि दोपहर होने के कारण मंदिर के मुख्य मंडप के बाहर लोहे की शटर पर ताला जडा हुआ है।
शिलालेख के अनुसार मंदिर का निर्माण 10 वीं शती का बताया जाता है। 19 वीं शती में जाट राणाओं ने इसे गढ़ी में बदल दिया और ये हिस्सा अब गढी-पढावली कहलाने लगा है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अनुश्रुति के अनुसार मध्यभारत के नागाओं की राजधानी कांतिपुरी और पढ़ावली दोनों नगरियां तीसरी चौथी सदी ई. में साथ ही साथ संपन्न तथा समृद्ध दशा में थी किंतु ऐतिहासिक महत्व की वस्तुएं यहां 9 वीं-10 वीं शताब्दी की ही पाई गई हैं।
ये सफर अभी यहां नहीं थमा है आगे फिर किसी अनछुई मगर अद्भुत जगह घुमाने ले चलूंगी। तैयार रहिएगा।