कलम सभ्यता के बहाने ‘नरकट’ की याद
पूजा सिंह, स्वतंत्र पत्रकार
यूं तो कलम की कीमत लगाना असंभव सा काम है लेकिन फिर भी बाजार में कुछ रुपयों से लेकर लाखों रुपये तक कीमत वाले कलम उपलब्ध हैं। ऐसे में नरकट से बने कलम की याद उस दौर में ले जाती है जहां इसने एक अनूठी परंपरा का रूप लिया था और हमें अपने आसपास की चीजों से जुड़ने का सबक सिखाया।
फेसबुक पर चहलकदमी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की एक पोस्ट पर नजर अटक गई। उन्होंने खोखली लकड़ी से बने कलम की तस्वीर साझा करके लिखा था कि यह उनके बचपन का साथी रहा है। उनकी पोस्ट मुझे बचपन के दौर में ले गई। यह नरकट से बना हुआ कलम था। बचपन में हमने सुना था कि जो अपने लिखने की शुरुआत नरकट के कलम से करता है उसकी राइटिंग बहुत सुंदर होती है। शायद यह भी एक वजह थी कि मैंने भी अपने बचपन में नरकट का ही कलम थामा।
नरकट से मेरा परिचय पांच-छह साल की उम्र में हुआ था। छुट्टियों में जब हम सभी भाई-बहन गांव जाते तो अपने चचेरे भैया-दीदियों के साथ गांव की प्राथमिक पाठशाला में भी जाना होता। इस दास्तान में मैं उनमें से केवल चचेरी दीदी की बात करना चाहूंगी जिनकी उम्र मुझसे महज दो साल अधिक थी। मेरी और उनकी आत्मीयता बहुत ज्यादा थी। छुट्टियों के इन दो महीनों का एक-एक पल मैं उनके साथ बिता लेना चाहती थी।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के रहने वाले लोग जानते होंगे कि लगभग दो-ढाई दशक पहले तक वहां के प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने के कुछ तय मानक थे। उदाहरण के लिए आपको अपने बैठने की टाट-पट्टी अपने साथ ले जानी होती थी और साथ ही ले जानी होती थी लिखने के लिए लकड़ी की काली पट्टी, सफेद दवात और नरकट का कलम। मैं दीदी के साथ उनके स्कूल भी जाना जाती थी लेकिन उन्हें शायद मेरा उनके स्कूल जाना पसंद नहीं था। मेरे जिद करने पर वह मुझसे कहती कि अगर मैं जाना ही चाहती हूं तो मुझे उनकी बोरी उठाकर पीछे-पीछे जाना होगा। शायद उन्हें लगता था कि मैं शहरी और खड़ी हिंदी बोलने वाली लड़की होने के नाते बोरी उठाने से अपमानित महसूस करूंगी और बोरी लेकर जाने से इनकार कर दूंगी।
परंतु बहन के प्यार के आगे यह कथित अपमान फीका पड़ जाता और मैं खुशी-खुशी उसकी टाट और झोला उठाकर स्कूल चल देती। स्कूल में शिक्षकों को पंडित जी और बहन जी कहने का चलन था। मैं उन्हें सर और मैडम कहती थी जो उन्हें बहुत पसंद आता था। मैं खड़ी हिंदी के बीच कुछ शब्द अंग्रेजी के भी बोल लेती थी और इससे पूरी कक्षा में मेरा रौब कायम हो जाता था।
खैर, विषय पर लौटते हैं। दीदी बहुत मेहनती थी। वह एक-एक अक्षर बहुत साफ और करीने से लिखा करती थी। मैं उसे लिखते हुए देखती थी। वह नरकट के कलम को दवात में डुबोती और अपनी काली पट्टी पर जब अक्षर लिखती तो ऐसा लगता मानो कोई चित्रकार बहुत तन्मय होकर कोई चित्र बना रहा है। मेरे लिए वह पूरे दिन का सबसे सुंदर पल होता था।
हमारे गांव वाले घर के ठीक सामने बांस का झुरमुट था। दीदी उसके पास उगे नरकट से रोज कलम बनाती। वह ढेर सारे कलम बनाती और उनमें से कुछ मुझे भी दे देती। मैं ने भी अपनी राइटिंग सुधारने के लिए नरकट के कलम से लिखने का प्रयास किया लेकिन मुझे न तो उससे लिखने में कोई खास कामयाबी मिली और न ही मेरी राइटिंग अच्छी हुई।
मैं हर बार गांव से शहर लौटते समय खुद से वादा करती कि मैं अगले साल नरकट की कलम से लिखना सीख जाऊंगी। उधर, मेरे गांव के दोस्तों को इस बात का रंज था कि मैं पेंसिल से लिखती हूं और मेरी पहुंच सचमुच की कलम तक है। उनको यह बात समझ में नहीं आती थी कि अगर किसी की पहुंच पेंसिल और पेन तक है तो वह भला नरकट से क्यों लिखना चाहेगा?
बहरहाल, तमाम प्रण करने के बावजूद मैं कभी नरकट से नहीं लिख सकी। दीदी ने भी आगे चलकर कलम थाम ली और नरकट का कलम हमारे सुंदर अतीत की एक खुशनुमा याद बनकर रह गया। नरकट जो हमारे कलम इतिहास का पुरखा है। क्या पता नरकट न होता तो हम कभी लिखना सीख भी पाते या नहीं। नरकट ने इतिहास में कभी अपने जायज स्थान की मांग नहीं की। वह बस महंगे कलमों के दौर में सहजता से नेपथ्य में चला गया।
मैं भी पिछले डेढ़ दशक में कलम से दूर होकर कीबोर्ड की सिपाही बन गई। अब तो लगता है कलम से किसी पिछले जन्म में लिखा करती थी और संदेह है कि कलम से लिखना पड़ा तो दो पन्ने भी लिख सकूंगी या नहीं। कलम और कीबोर्ड से आगे अब तो तकनीक जेस्चर यानी हाथ के इशारों से लिखने तक पहुंच गई है लेकिन लगता है नरकट का स्थान इतिहास के अजायबघर में हमेशा सुरक्षित रहेगा।
जिन लोगों ने नरकट का नाम नहीं सुना उन्हें बता दूं कि यह एक किस्म की लंबी घास होती है जिसका तना खोखला होता है और यही बात उसे कलम बनाने के अनुकूल बनाती है। नरकट का बना कलम शायद दुनिया की सबसे प्राचीन लेखनी का सबसे करीबी रिश्तेदार है जिसे करीब चार हजा़र साल पहले मिस्र में पतले बांस से बनाया जाता था। ठीक नरकट की तरह बांस के एक सिरे को नुकीला करके उसे स्याही में डुबोया और लिखा जाता था।
इसके बाद जल्दी ही कलम के निर्माण में इंसानी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल होने लगा और चिड़िया के पंखों, फाउंटेन पेन, बॉल पॉइंट पेन, जॉटर, पायलट, जेल आदि तमाम तरह के पेन हमारे बीच आ गए। इस बीच नरकट का कलम खामोश से गायब हो गया। वह कलम जो हमें सिखाता था कि किसी वस्तु का अभाव कितना सुंदर कितना कलात्मक हो सकता है। खासकर जब वह परंपरा में बदल जाए और आपको चीजों की अनुपस्थिति खलने न दे।
आज जब दुनिया में लाखों बल्कि करोड़ों रुपये मूल्य के कलम उपलब्ध हैं तब नरकट के कलम की याद वैसी ही है जैसे पीएनजी के दौर में दुनिया की पहली आग की याद या फिर सुपर कारों के इस दौर में दुनिया के पहले पहिए की याद। दुनिया भर में कलम की यात्रा चाहे जितनी आगे निकल जाए। नरकट की कलम को इतिहास से कभी मिटाया नहीं जा सकेगा।
सुंदर लेख। कितनी यादें ताज़ा हो गईं।
मैंने भी बचपन में टाक पेन से लिखा है। यह नरकट से थोड़ा भिन्न होता था और रेडीमेड मिलता था। इसे भी नरकट की तरह स्याही में डुबो कर लिखना पड़ता था।
सुंदर लेख के लिए धन्यवाद।