
- आशु चौधरी
आज शरद की पूर्णिमा है। पतझड़ की ऋतु की सबसे उजली रात। महारास की रात। मन के आनंद के अति तीव्र होने की निशा। रजनी जिसकी गंध मानव मन-मानस में उजाला फैलाती रही है, जाने कब से। पहली बार किसने पहचाना होगा कि यह है शरद की पूर्णिमा? किसने दिया होगा इसे यह नाम? जब नहीं पहचाना गया होगा तब भी इतनी ही धवली होती होगी यह रात्रि। जितनी धवल की मन की कलुषता दुबकने को मजबूर हो जाए। शरद की पूनम पर भाव खिल आते हैं… ऐसे ही भावों से पगी रचनाओं को पढ़ने का श्रेष्ठ मौका है यह।
1)
एक रोज चाँद
बह निकला मेरे आँगन में,
चाँदनी की नदी
सज कर चली इठलाती हुयी,
सापेक्ष ले चली
साथ मेरे स्वप्नों को,
यूँ ही पूरे होते हैं
मेरे ख़्वाब आधी रातों में।
2)
आज कुछ चाँद हो जाये
यह दीदार देता रहता है न,
मेरे मन के अंदर बाहर
आता जाता रहता है न,
यह ज्यादा देर नहीं रह पाता
बिन मेरे प्यार के, दीदार के।
फ्रंट वाली बालकोनी में
जब खड़ा होता है ज़माने का डर,
दिन भर के ऑफ़िस का थका
ये पीछे वाली ख़िड़की से
छुप कर ताक़ता रहता है न
तो चलो आज कुछ चाँद हो जाए।
3)
भाद्रपद चँद्र
देखा था इसी बरस,
न देखने की तमाम
नाकाम कोशिशों
के बाद भी।
आह!
केवल यही स्वर
निकल पाया था
बरबस ही।
दृश्य!
जैसे सद्यस्नाता
का आकर्षण
बह निकला हो,
पर्वतों को चीरते
झरनों की तरह।
आह!
कुछ कथायें सदैव
मिथक नहीं होतीं॥
4)
वो नृत्य करता है मेरे मन में
मेरी हँसी के संगीत पर।
मेरे दुःख और उदासियाँ
उसे गहरे क्षोभ में ले जाती हैं।
बात नहीं होती हममें,
संवाद तो नाममात्र के भी नहीं।
बस यही साझा सुख-दुःख
हमारे भावों के संवाद गढ़ते हैं…,
किंतु ये व्युत्क्रमित नहीं होते
और अनुभव किये जाते हैं।
उसकी ख़ुशी पर मैं झूम लेती हूँ,
मेरे दुःख पर वो रो लेता है,
बस इसी तरह हम दोनों में
प्रेम हमेशा झिलमिलाता रहता है।
संवादों से प्रेम घटता है
अक्सर कुछ बढ़ने के बाद…,
संभवतः संवादित प्रेम चाँद होता है।