प्रीति राघव, गुरुग्राम
मेरी पलकों में बचपन का एक संदूक हमेशा छुपा रहता है जिसके खुलते ही रहस्यमयी गाती-खिलखिलाती इक रंगबिरंगी नगरी अपने तले में से झांकती है। भावनाओं की शिरायें इस नगरी को सीधे हृदय से जोड़ती हैं। फिर स्पंदन हास्य भरे हों या करुण रस समेटे हों… हृदय आंखों तक अपनी बारिशें पहुंचा ही देता है! वो हंसते-हंसते भी बरस पड़ती हैं और रोते-रोते भी।
बहरहाल, बचपन तो हम सबका ही ढ़ेरों लोरियों, किस्सों-कहानियों का सबरस पिटारा होता है। झांकी, सांझी, गुड्डे-गुडिया, पोशम्पा, सितौलिया, कंचे, पतंगें… अमूमन हम सबके बचपन की यादों का उत्सव बन जब-तब इस भागदौड़ वाली जिंदगी में खुशियां बिखेर ही जाते हैं।
गुड़िया-गुड्डे हम सबके ही बचपन का एक सुकोमल, सपनों, रंग-बिरंगी सजावटों से भरा गुदगुदी करने वाला हिस्सा रहे हैं। गुड़िया शब्द जेहन में आते ही तमाम तरह की गुड़ियों का लकदक बाजार उमड़ पड़ता है आंखों में। कपड़े की, प्लास्टिक की, रबर की, मिट्टी की, प्लास्टर ऑफ पेरिस की, कांच की, लकड़ी की और ना जाने कितनी तरह की गुड़ियायें! कोई पलक झपकाती, कोई रोती, कोई गाती तो कोई नाचती। जितनी तरह की गुड़िया उनकी उतनी ही तरह की वेशभूषा भी। बदलते समय में बार्बी, कैंडी ने हर घर पर कब्जा जमाया हुआ है जिसमें उसके किचिन सेट, डॉक्टर सेट, वॉर्डरोब सेट जैसे ढ़ेरों आइडिया बदल बदल कर आने लगे हैं।
हर वर्ष जून का दूसरा शनिवार इन्हीं गुड़ियाओं को समर्पित किया गया है। इस वर्ष 8 जून को ‘गुड़िया दिवस’ मनाया गया। देश की राजधानी दिल्ली में एक वर्षों पुराना अनूठा गुड़िया संग्रहालय भी है, जिसे सभी ‘शंकर्स अंतरराष्ट्रीय गुड़िया संग्रहालय’ के नाम से जानते हैं। यहां दुनिया भर की संस्कृति व परिधानों से परिचय कराती बेहद सुंदर गुड़ियायें संग्रहित हैं। संग्रहालय में 150 प्रकार की भारतीय गुड़ियायें भी हैं, जो देश की संस्कृति, विरासत और कला के रूपों का प्रदर्शन करती हैं। इन गुड़ियाओं को देश के सभी प्रांतों की साड़ी, जेवर और पारंपरिक परिधानों से सुसज्जित किया गया है। यही नहीं यहां पर हमारे देश में सभी प्रांतों के विवाह की परंपरा, पोशाक को दिखाती छोटी-छोटी दूल्हे और दुल्हन वाली गुड़ियायें भी हैं। इसकी रूपरेखा व स्थापना बहुत ही प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर पिल्लई ने करवाई थी। यहां गुड़ियों की एक वर्कशॉप तो है ही साथ में एक क्लीनिक भी है जहां टूटी-फूटी, क्षत-विक्षत गुड़ियों का उपचार व रखरखाव किया जाता है।
गुड़ियों का संसार भले ही निर्जीव हो परंतु यह हर बच्चे के मन में उमड़ता हुआ जीता-जागता तिलस्म बनाए रखता है। हमारे देश में अक्षय तृतीया वाले शुभ दिन गुड़िया-गुड्डे का विवाह करने का चलन रहा है। बच्चों की इस रोचक गतिविधि में सभी वयस्क भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। बदलते समय और आधुनिकता का सोपान चढ़ते हुए ऐसी ढ़ेरों गतिविधियों ने दम तोड़ दिया है, जिसमें मोहल्ले के मोहल्ले भी शामिल हुआ करते थे। गुड़ियों का स्थान इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, वीडियो गेम्स आदि ने ले लिया है। मोबाइल अपनी जड़ें गांव-देहात में भी फैला चुका है सो वहां भी यह बदलाव महसूस किया जा सकता है। बदलते समय ने खिलौनों का स्वरूप भी पूरी तरह बदल कर रख दिया है।
इस बार गुड़िया दिवस पर बैठे-बैठे यूं ही कोई बात याद हो आई। बात कुछ समय पुरानी है, जब कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन चल रहा था तो इस कारण सभी पर वक्त भारी था। जहां छात्र और नौकरीपेशा लोग ऑनलाइन होकर अपने-अपने कार्य निपटा रहे थे, वहीं गृहणियां आर्ट एंड क्राफ्ट, ना-ना कुजीन, कुकिंग के हर आयाम को छू रही थीं। प्रतिबंधों के चलते सोशल डिस्टेंसिंग का पालन भी उस समय की महती आवश्यकता थी। इसी माहौल के चलते परिवार और मित्रों से अधिकतर वीडियो कॉल, कॉन-कॉल के जरिए जुड़ा भी जा रहा था। उन्हीं दिनों में से किसी रोज ऐसी ही एक कॉल पर अपनी छोटी बहिन से मैं भी जुड़ी थी। उसने उसकी सात साल की बेटी के लिए कपड़े की गुड़िया बनाने का तरीका पूछा। वैसे हमारे बचपन के सारे खिलौनों का संदूक उसकी बेटी के पास ही है। इसके बाद एक और सिस्टर की बेटी को मिलेगा, वो अभी चार साल की ही है, फिर भाई की बेटी को, फिर बहन की छोटी बेटी को मिलेगा। तो कह सकते हैं कि ये एक पीढ़ी से दूसरी को जाती बहुमूल्य सौगातें हैं।
छोटी को गुड़िया बनाना सिखाने के लिये मैंने भी दशकों बाद उस गुड़िया को बनाया, जिसे हम ‘पुतरिया’ कहते थे। इसे बनाते हुए जेहन में हमारी गुड़ियाओं के ढ़ेरों रूप उभर आए जिनकी सजावट कभी क्रोशिया से की जाती थी तो कभी फोम और मोतियों से सुंदर डिजाइन बनाकर, कभी स्ट्रॉ पाइपों से गुड़िया परी बन जाती तो कभी पेपरमैशी से आकार ले लेती। टोकरी बनाने वाली प्लास्टिक की तारें भी इस्तेमाल की गयीं तो टॉफी की पन्नियां, साटिन के रिब्न से भी सब खटराग करे। तब रही हूंगी कोई छठीं-सातवीं कक्षा में। वैसे आजकल के बच्चों जितने हम उस वक्त ना तो विलक्षण थे, ना ही तीक्ष्ण! तकनीकी दुनिया के खेल उस जिंदगी का सरमाया कतई नहीं थे, बल्कि समूहों में मोहल्ले भर के बच्चों संग खेले जाने वाले खेल विशिष्ट हुआ करते थे।
दादी मां खट्टी-मीठी थीं, कभी सख्त तो कभी बहुत नर्म। हम मोहल्ले के हर बच्चे के संग नहीं खेल सकते थे! कह सकते हैं कि थोड़े कम ऊधमी बच्चे ही खासकर लड़कियां घर आ सकती थीं। इसी कारण गुड़िया-गुड्डे तो खूब बनाए गए लेकिन उनकी शादियां नहीं की गईं।
जी भर खेलने को सिर्फ गर्मियों की छुट्टियां ही मिला करती थीं। इसमें दिनचर्या संयुक्त परिवार के रोस्टर पर टिकी होती थी। लंच के बाद दोपहर में बड़े-बुजुर्गों का आराम का समय होता था। उस वक़्त हम बच्चों को बैठक (हॉल) में खेलने की इजाजत थी क्योंकि हॉल कमरों, बरामदे और आंगन के पार चबूतरे की तरफ था इस कारण कमरों तक शोर आने की गुंजाइश नहीं होती थी। चाचियां और मम्मी वगैरह बारी-बारी से हॉल तक आकर सब पर नजर भी रखती थी।
हॉल में बैठकर खूब कपड़े फाड़े जाते और गुडियां बनाई जातीं। गुडियों की साड़ी-लंहगे-चुन्नी के लिये कितनी ही दफे मम्मी के सिलाई के लिए रखे कटपीस ताड़ लिए जाते। कितनी ही बार मम्मी खुद झबला, फ्रॉक सिल देतीं गुड़ियों के लिए। एक बार मम्मी ने बहुत सुंदर स्कर्ट-शर्ट, बिलकुल बाजार जैसी सिलकर दी। गर्मी की छुट्टियों भर मां अपने टीचर वाले रूप से अलग बस हमारी मम्मी वाले रुप में होती थीं। मां ने गुड़िया को अपने ढंग से इंप्रोवाइज कर दिया। उन्होंने कपड़े में रुई भरकर हाथ, पैर, धड़ और मुंह सिला। मुंह पर कढ़ाई से आंखें, भौंहें, नाक, होंठ बनाए और बालों की जगह पुराने परांदे (नकली चोटी तब बहुत चलन में थी) से काटकर बाल लगा दिए या किसी गुड़िया के बाल काली ऊन से बना दिए गए। मां बहुत सुंदर फ्रॉक बनाती थी उनकी। मां के हाथ के सिले कपड़े तो मैंने और मेरी बहनों ने भी कॉलेज तक खूब पहने हैं।
दादा जी और पापा हमेशा ट्रांसफर वाली नौकरियों पर रहे इसी कारण भांति-भांति के खिलौनों की फेहरिश्त भी बढ़ती गई।
मुझे याद है… हम बहनों को रब्बर की, प्लास्टिक की और वो बैटरी वाली गुडियायें मिली हुईं थीं लेकिन अडोस-पडोस से हमारे घर खेलने आती लड़कियों के पास कपड़े की बनी गुड़िया होती थी। उनकी सजावट देखकर मन ललचाता था तो घर पर दादी, मां कवायद करतीं और जिद्द पूरी कर दी जाती थी हमारी।
मां ने सिलाई में डिप्लोमा किया था तो सुंदर कपड़ों की सिलाई और कढ़ाई उनके जिम्मे थी। दादी मां के जिम्मे था बची हुई ऊन से छोटे-छोटे स्वेटर, टोपा और स्कार्फ बुनना! उन कपड़ों की गुड़ियाओं के आगे सब खिलौने तुच्छ लगते थे। नई मालायें तक भी उन्हें सजाने को तोड़ दी जाती थीं। जिन बच्चों के पास वो गुड़िया होती थी वो सब इन्हें ‘पुतरिया’ कहते थे। पहले पहल यही नाम सुना था। बचपन की उस नगरी में फेरा करने पर कोई और नाम मिला ही नहीं मुझे।
बचपन में जब खूब पुतरियां इकट्ठी हो गई थीं तो गृहस्थी भी जोड़ी गई उनकी। ग्वालियर मेले से लकड़ी के छोटे-छोटे चकला-बेलन, इमामदस्ता, शिवपुरी से ड्रेसिंग टेबल, सोफा-सेट, न्यू मार्केट भोपाल के गुप्ता स्टील वालों के यहां से स्टेनलेस स्टील के चुन्नू-मुन्नू से बर्तन, गैस चूल्हे, कुकर से लेकर चाय छन्नी तक फुल रसोई का सामान, पुराने भोपाल से पीतल के कप/प्लेट, चाय की केतली, बाल्टी और मटकी लगा हैंडपंप और ना जाने क्या-क्या तामझाम। इंदौर से लोहे का छोटू सा फ्रिज जिसमें सॉस, दूध, जूस की बोतलें, सब्जियां, बटर ब्रिक और अंडा ट्रे भी थी और एक लकड़ी की सुंदर मसहरी जिसके लिए मां और दादी ने सुंदर गद्दे, तकिये और रजाई तक बना दी थी बिनौले की कपास भर के।
मोहल्ले की पुलिया पार बसे कुंभकारों से बनवाए गए छोटे मटके, कुलिया, सरैया बहुत कुछ, खुर्जा से चीनी मिट्टी का टी-सेट, वल्लभगढ़ से मैलामाइन का डिनर-सेट, बरेली जाते हुए रास्ते से खरीदे गए केन के छोटे सोफा सेट व सेंटर टेबल, कितना सब गुड़ियों की गृहस्थी में सालों-साल जुड़ता रहा। यह सिलसिला अब तक जारी है क्योंकि बीते महीने मुझे और बहन को पुरानी दिल्ली से रंग-बिरंगे रिक्शा व साइकिल मिले हमने वह भी खरीद लिए। मुझे याद है जब मेरी बेटी छोटी थी तब उसकी गुड़ियों के लिए मेरी छोटी बहन ने भी खूब ड्रेसेज बनाए थे। लैदर की हैट, बूट्स, स्कर्ट, जैकेट और ढ़ेरों सुंदर फ्रॉकें।
इन पुतरियों की गृहस्थी में गर्मी की छुट्टियों भर हर रोज़ कुछ ना कुछ पकता था। मां के चौके से आटा की लोई ले जाते तो कभी उबले आलू और कुछ ना मिला तो ‘पारले-जी’ से बेहतर तब से अब तक कहां कुछ हुआ है भला! उसे चूरा कर के दूध मिलाकर ‘हलुआ’ बना लेते थे तुलसी डाल के। केतली में दूध भरकर चायपत्ती डालकर छानते थे कपों में। कुछ ना मिला तो स्नैक्स की जगह प्लेटों में शीशम की फलियां या पेंसिल शेविंग रख देते थे पर वो खाये नहीं जा सकते थे।
असली पार्टी तब होती जब कोई व्रत-त्यौहार होता था। पापा मां को कहकर हमारे लिए चुनमुन सी पूडियां बनवा देते थे। आलू के भर्ते के संग और उनकी लाई हरी, लाल, पीली, नारंगी ‘हेमामालिनी’ (टूटीफ्रूटी) व रंग-बिरंगी शुगर कोटेड सौंफ हमारे लिए डेजर्ट का काम करती थी। बचपन के किस्से मासूमियत की नर्म शॉल में लिपट कर सालों-साल कुनकुने बने रहते हैं। ऐसे ही ढेरों किस्से हम सबकी संदूक में अवश्य तह बने रखे होंगे तो इन तहों को खोलकर बिखेर लीजिए अपने होंठों की मुस्कान बनाकर।