फोटो: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 जून को आयोजित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) संसदीय दल की बैठक के पहले भारत के संविधान को अपने माथे से लगाया था।
जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
भारत के लोगों ने 20 24 के आम चुनाव में खंडित जनादेश देकर देश के संविधान को बचा लिया। भारत के लोगों ने हाल ही में संपन्न हुए आम चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी को बहुमत से वंचित कर दिया है, जिसका उपयोग एक नए संविधान, राम राज्य की शुरुआत करने के लिए किया जा सकता था जैसा कि सत्ता पक्ष के कुछ वरिष्ट नेता दावा कर रहे थे। भारत के लिए 2024 के आम चुनावों का अब तक का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि सत्तारूढ़ गठबंधन अब संविधान में संशोधन नहीं कर पाएगा और देश को धर्मनिरपेक्ष राज्य से हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित नहीं कर पाएगा।
जनादेश 24 से भारत ने संविधान के मूल तत्व को बरकरार रखने का फैसला किया है, जो धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्रात्मक है। जो लोग शासन प्रणाली को अपने संस्करण ‘राम राज्य’ से बदलना चाहते थे, वे पराजित हो गए हैं। जो लोग देश के उपनिवेशवाद-विमुक्ति के नाम पर संविधान से ऊपर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के मानदंड को स्थापित करना चाहते थे, चाहे इसका अर्थ कुछ भी हो, वे अन्यायपूर्ण वैचारिक युद्ध हार चुके हैं।
संविधान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की आकांक्षाओं का अंतिम उत्पाद है और उपनिवेशीकरण के नाम पर संविधान की वैधता को नकारना स्वतंत्रता सेनानियों और भारत को स्वतंत्रता दिलाने वाले लोगों के बलिदान को नकारने का प्रयास होता है। सौभाग्यवश, भारत के संविधान पर सवाल उठाने वाली आवाजों को भारत के मतदाताओं द्वारा जोरदार जवाब दिया गया है। संविधान कोई औपनिवेशिक दस्तावेज नहीं है, बल्कि इससे कहीं अधिक है; यह कर्मकांडी पाखंड द्वारा निर्मित रूढ़िवादिता, मोहग्रस्त पदानुक्रम और असमानताओं से मुक्ति दिलाता है। संविधान इसलिए जरुरी है क्योंकि यह ब्राह्मणवाद द्वारा निर्मित रूढ़िवादिता, मोहग्रस्त पदानुक्रम और असमानताओं से मुक्ति दिलाता है।
भारतीय गणराज्य के सर्वोच्च विधान को संविधान कहा जाता है। संविधान को संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित किया गया था। इसके बाद 26 जनवरी 1950 से भारत में संविधान लागू हुआ था। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथाउन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आजादी के 75 वर्षों के काल में भारत की राज्य और समाज व्यवस्था, दोनों में ही संविधान की उपेक्षा की गई है। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि संविधान प्रचलित राज्य व्यवस्था तथा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं में बुनियादी बदलाव लाने की पहल करता है। राज्य और समाज, दोनों को ही ऐसा होना स्वीकार नहीं था।
संविधान क्यों जरुरी है यह जानने के पहले हमें यह जानना जरुरी है कि संविधान लागू करने के पूर्व हमारे देश में क्या परिस्थितियां थीं। दरअसल, हजारों साल से शोषणकारी, दमनकारी सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें जमींदारी, रैय्यतवारी और महालवारी की व्यवस्थाएं थी, जिनमें किसान और श्रमिक का संसाधन और उत्पादन दोनों पर ही कोई अधिकार स्थापित नहीं था छुआछूत, ऊंच नीच में समाज बंटा हुआ था। संविधान इन व्यवस्थाओं को समाप्त करने का वायदा कर रहा था। वर्ष 1947 में भारत की अर्थव्यवस्था मूल्यह्रास की अर्थव्यवस्था थी। उत्पादन में बहुत सारे कारकों का उपयोग उत्पादन व्यवस्था को कमजोर बनाता है। इससे उपलब्ध पूंजी का बहुत नुकसान होता है। यही तब भारत के साथ हो रहा था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने यह नीति बनाई थी कि भारत से कच्चा माल और पूंजी को ब्रिटेन ले जाया जाए और ब्रिटेन में औद्योगिकीकरण को आगे बढ़ाया जाए। इससे भारत से संसाधन वहां जाते रहे लेकिन यहां उद्योग स्थापित नहीं हुए। वर्ष 1947 में भारत की विकास दर मात्र 1 प्रतिशत सालाना थी।
स्वतंत्रता के वर्ष यानी 1947 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केवल 2.7 लाख करोड़ रुपये यानी मात्र 794 रुपये प्रति व्यक्ति था। यह वैश्विक जीडीपी का मात्र 3 प्रतिशत था। उस समय एक भारतीय की प्रतिदिन की औसत आय मात्र 63 पैसे प्रतिदिन (230 रुपये प्रतिवर्ष) थी। कृषि उत्पादन की बात करें तो जापान में जहां चावल का उत्पादन 748 किलो प्रति हेक्टेयर था, वहीं भारत में यह मात्र 110 किलो प्रति हेक्टेयर। वर्ष 1947-48 में भारत में कुल मृत्यु दर 18 प्रति हजार थी। शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार थी यानी 1000 जीवित बच्चों के जन्म लेने पर 218 बच्चे पहला जन्मदिन मनाने से पहले जीवन त्याग देते थे और भारत के लोगों की औसत उम्र मात्र 32 वर्ष थी। भारत से सूती कपड़ा, रेशम, शकर, जूट, नील आदि का निर्यात होता था, लेकिन उपनिवेशवादी सरकार की नीतियों के कारण बहुत कम कीमत पर व्यापार किया जाता था। सूती और रेशम का कपड़ा बनाने वाले बुनकरों को बाजार दर से 15 से 40 प्रतिशत कम मजदूरी मिलती थी।
भारत के संविधान को दुनिया का अब तक का सबसे लंबा और विस्तृत संवैधानिक दस्तावेज होने का गौरव प्राप्त है। दूसरे शब्दों में, भारत का संविधान दुनिया के सभी लिखित संविधानों में सबसे लंबा है। यह एक बहुत ही व्यापक और विस्तृत दस्तावेज है। भारत का संविधान सरकार की एक संघीय प्रणाली स्थापित करता है। इसमें एक संघ की सभी सामान्य विशेषताएं शामिल हैं, जैसे दो सरकारें, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, संविधान की कठोरता, स्वतंत्र न्यायपालिका और द्विसदनीयता।
भारत के संविधान ने सरकार की अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली के बजाय सरकार की ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को चुना है। संसदीय प्रणाली विधायी और कार्यकारी अंगों के बीच सहयोग और समन्वय के सिद्धांत पर आधारित है जबकि राष्ट्रपति प्रणाली दो अंगों के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित है। भारत की संसदीय प्रणाली को जिम्मेदार सरकार और कैबिनेट सरकार के ‘वेस्टमिंस्टर’ मॉडल के रूप में भी जाना जाता है। संविधान न केवल केंद्र में बल्कि राज्यों में भी संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है। संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री की भूमिका है, और इसलिए इसे ‘प्रधानमंत्री स्तरीय सरकार’ कहा जाता है।
हमारे संविधान में संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता का प्रावधान है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति के माध्यम से संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के माध्यम से संविधान के अधिकांश भाग में संशोधन कर सकती है।
भारत में लोग कानून द्वारा शासित होते हैं, किसी व्यक्ति द्वारा नहीं, यानी बुनियादी सत्यवाद कि कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नहीं है। लोकतंत्र के लिए कानून व्यवस्था बेहद महत्वपूर्ण है। इसका अधिक स्पष्ट अर्थ यह है कि लोकतंत्र में कानून संप्रभु है। अंतिम विश्लेषण में, कानून के शासन का अर्थ आम आदमी के सामूहिक ज्ञान की संप्रभुता है। इस महत्वपूर्ण अर्थ के अलावा, कानून का शासन कुछ और चीजों का मतलब है जैसे यहां मनमानी की कोई गुंजाइश नहीं है,प्रत्येक व्यक्ति को कुछ मौलिक अधिकार प्राप्त होते हैं, और उच्चतम न्यायपालिका के पास कानून की पवित्रता को बनाए रखने का अधिकार है।
भारतीय संविधान का भाग III सभी नागरिकों को छह मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है। मौलिक अधिकार भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक हैं। संविधान में मूल सिद्धांत है कि प्रत्येक व्यक्ति एक मनुष्य के रूप में कुछ अधिकारों का हकदार है और ऐसे अधिकारों का उपभोग किसी बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है। किसी भी बहुसंख्यक को इन अधिकारों को निरस्त करने का अधिकार नहीं है। मौलिक अधिकार, भारत में राजनीतिक लोकतंत्र के विचार को बढ़ावा देने के लिए हैं। वे कार्यपालिका की निरंकुशता और विधायिका के मनमाने कानूनों की सीमाओं के रूप में कार्य करते हैं। मौलिक अधिकार, प्रकृति में न्यायसंगत हैं, अर्थात्, उनको कोई छिन नहीं सकता है।
डॉ. बीआर आम्बेडकर के अनुसार, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत भारतीय संविधान की एक ‘नवीन विशेषता’ है। इनकी समायोजन संविधान के भाग IV में किया गया है। लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करने के लिए नीति निर्देशक सिद्धांतों को हमारे संविधान में शामिल किया गया था। निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य भारत में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है जहां कुछ लोगों के हाथों में धन का संकेन्द्रण नहीं हो सकेगा। वे प्रकृति में न्यायोचित हैं। मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘भारतीय संविधान की स्थापना मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन के आधार पर की गई है।’
भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है। इसलिए, यह भारतीय राज्य के आधिकारिक धर्म के रूप में किसी विशेष धर्म का समर्थन नहीं करता है। भारत के संविधान द्वारा विचारित एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की विशिष्ट विशेषताएं हैं –
राज्य स्वयं को किसी धर्म के साथ नहीं जोड़ेगा या उसके द्वारा नियंत्रित नहीं होगा जबकि राज्य हर किसी को किसी भी धर्म का पालन करने के अधिकार की गारंटी देता है (जिसमें एक विरोधी या नास्तिक होने का अधिकार भी शामिल है), यह उनमें से किसी को भी विशेष दर्जा नहीं देगा;
राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति के खिलाफ उसके धर्म या आस्था के आधार पर कोई भेदभाव नहीं दिखाया जाएगा। किसी भी सामान्य शर्त के अधीन राज्य के अधीन किसी भी कार्यालय में प्रवेश करने का प्रत्येक नागरिक का अधिकार अन्य नागरिकों के समान होगा। राजनीतिक समानता किसी भी भारतीय नागरिक को सर्वोच्च पद पाने का अधिकार देती है। इस अवधारणा का उद्देश्य एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है।
भारतीय लोकतंत्र ‘एक व्यक्ति एक मत’ के आधार पर कार्य करता है। भारत का प्रत्येक नागरिक जो 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का है, जाति, लिंग, नस्ल, धर्म या स्थिति के बावजूद चुनाव में वोट देने का हकदार है। भारतीय संविधान सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की पद्धति के माध्यम से भारत में राजनीतिक समानता स्थापित करता है।
धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की पहचान है। भारत में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों को अपनी पसंद की धार्मिक उपासना की स्वतंत्रता है। यहां सभी धर्मों को एक समान माना गया है। भारत में जिस तथ्य की सराहना की गई वह यह कि सभी धर्म मानवता से प्रेम करते हैं और सत्य का समर्थन करते हैं। आधुनिक भारत के सभी समाज सुधारकों और राजनीतिक नेताओं ने धार्मिक सहिष्णुता, धार्मिक स्वतंत्रता और सभी धर्मों के लिए समान सम्मान की वकालत की है। इसी सिद्धांत को भारत के संविधान में अपनाया गया है जहां सभी धर्मों को समान सम्मान प्राप्त है। हालांकि, 1949 में अपनाए गए संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया था। ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को 1976 में पारित 42 वें संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया है।