प्‍यार एक छाता है, छाता एक प्‍यार है…

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

फोटो: गिरीश शर्मा

इंसान और छाते में एक बड़ी समानता है। अगर बरसात न होती, तो न हम होते और न ही छाता होता। दोनों का अस्तित्व बहुत करीब से बरसात के साथ, जल के साथ ही जुड़ा है। छाता प्रतीक है सुरक्षा का। बरसात से बचाने का भी काम करता है, और कहीं-कहीं धूप से भी। जब गर्मी सताती है तो हम बड़ी बेसब्री से बारिश का इंतजार करते हैं, लेकिन बारिश होते ही छाते का इंतजाम भी उतनी ही बेचैनी के साथ करते हैं। इस साल बारिश तो समय से आ गई है, पर सड़क पर लोग कम दिख रहे हैं। अभी वे भयभीत और सशंकित हैं। खुले में, खुले दिल से दोस्तों के साथ बरसात का स्वागत नहीं कर पा रहे। नहीं तो हर साल बारिश में सड़कें खुले हुए छातों से पट जाया करती हैं।

छाते भी बरसात की प्रतीक्षा में रहते हैं। बरसात से पहले और बाद में छाता किसी को याद नहीं आता। उसकी हालत गर्मी के दिनों के स्वेटर की तरह हो जाती है। और जैसे ही बारिश की बूंदें पड़ती हैं तुरंत छाते का ख्याल आता है। छाते को लेकर हम कितने इस्तेमालवादी हैं! बरसात हो रही हो तो छाते की उपस्थति में आश्वासन और चैन का अहसास होता है। लंबे से छाते की मूठ पकड़ कर चलने में किसी साथी का हाथ पकड़ कर चलने का भान होता है।

छाते का भी एक इतिहास है। प्राचीन मिस्र, ईरान, चीन और भारत में छातों का इस्तेमाल खासतौर पर धूप से बचने के लिए होता था। वे काफी बड़े हुआ करते थे और छाता लेकर कोई सेवादार चलता था। जिसके सर पर वह छाता तान कर चलता था, उसके लिए छाते और सेवक का होना गर्व का प्रतीक था। वह उसके सम्मान और ताकत का प्रतीक था। प्राचीन यूनान ने यूरोप में छाते का परिचय करवाया। यूरोप में वह पोप और चर्च के बड़े अधिकारियों के लिए सम्मान का प्रतीक था। 18 वीं सदी आने तक यूरोप में छाता लेकर चलना एक सामान्य बात हो गयी। स्त्रियों की त्वचा को वह धूप से बचाता था; पुरुषों ने भी सदी के आस पास-छाते का उपयोग शुरू कर दिया। उनके छाते अक्सर काले हुआ करते थे। बाद में उन्होंने भी स्त्रियों की तरह रंग-बिरंगे छातों का इस्तेमाल शुरू किया। लन्दन में सिर्फ छाते बेचने वाली दुकान जेम्स स्मिथ एंड संस 1830 में शुरू हुई और अभी तक वह कारोबार कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में हॉलैंड की कंपनी सेंज ने एक ऐसा छाता बना डाला है जो 100 कि. मी. तक की हवाओं को भी झेल जाता है। कम्पनी ने छातों के ऐसे मॉडल भी बनाये हैं जो साइकिल के साथ जोड़े जा सकते हैं, अपने आप ही खुल जाते हैं और बंद भी हो जाते हैं। छाते सदियों से लोकप्रिय हैं, एमेज़ॉन पर करीब 500 मॉडल्स देखे जा सकते हैं और चीन के एक शहर सोंक्जिया में 1000 कारखानों में सिर्फ छाते ही बनते हैं, एक साल में करीब 50 करोड़!

छाते को लादना कइयों के लिए एक बड़ी समस्या है। लोग आजकल अपने साथ बैग, पर्स, लैपटॉप भी रखते हैं, और ऐसे में छाता एक आवश्यक बुराई की तरह साथ लेना पड़ता है, खुद को बचाने के लिए और हाथों में टंगे, या पीठ पर लदे सामान की सुरक्षा के लिए भी। कइयों को छाते से बड़ी शिकायतें हैं। हल्की बूंदा-बांदी के लिए तो वह ठीक है, पर तेज बौछारों से बचाने के लिए काम नहीं आता। क्योंकि वे तो चारों और से भिगोतीं हैं। पहाड़ों की बारिश में भी छाता बड़ी ही मासूमियत के साथ अपने हाथ झाड़ लेता है। वहां तो चारों तरफ बादल ही होते हैं और आपको भिंगोते हुए चलते चले जाते हैं। अब कोई छाता पूरे शरीर की रक्षा के लिए तो बना ही नहीं कि आप पहाड़ों की बारिश से बच जाएँ। मैदानी इलाकों में आप छाता भर धूप और पानी से बच जाते हैं। उसकी मदद से आप बारिश में थोड़ी देर बाहर तो जा सकते हैं और कुछ बूंदें आपका स्पर्श भी कर लेती हैं। यह क्या एक आशीष की तरह नहीं कि बूंदें बादल से निकल कर धरती में समाने से पहले आपको भिगोतीं हैं, थोड़ी सी आप की थकान, मुट्ठी भर आपका दर्द और दुःख भी धरती को सौंप देती हैं? कोई अहसान जताए बगैर ही।

छातों से कभी-कभी हादसे भी होते है, अक्सर आंखों को बचाना पड़ता है। अचानक कोई अपना छाता खोले और उसकी तीलियाँ आंखों में धंस न जाएं, इसकी फिक्र बनी रहती है। कुछ कंपनियां इस खतरे को ध्यान में रखकर नए छाते डिजाइन कर रही हैं, जिसकी तीलियां नुकीली न हों और ज्यादा चोट न पहुंचाएं। जापान में एक ऐसा छाता भी बनाया जा रहा है जिसके ऊपर की तरफ कोई अवरोध नहीं, बस उसकी नली से तेजी के साथ गर्म हवा निकलेगी और ऊपर से आने वाली बरसात की बूंदों को इधर-उधर बिखेर देगी। भले ही कई तरह के नए डिजाईन आ जाएं पर लंबी डंडी वाले और खूबसूरत मूठ वाले काले छाते का अपना ही रोमांस है। लोगों को उससे लगाव हो जाता है, वे उसके प्रेम में पड़ जाते हैं।

छाते के साथ एक बहुत बड़ी समस्या जुड़ी हुई है, और वह है विस्मृति की समस्या। छाता कहीं भी भूल जाना एक आम बीमारी है। कई लोग इस बीमारी से इतने दु:खी हो जाते हैं कि वे छाता कहीं ले जाने से ज्यादा भींगना ही पसंद करते हैं। अंग्रेजी के लेखक रॉबर्ट लिंड का मशहूर लेख है विस्मृति के बारे में, जिसमे वह कहते हैं: ‘छाता कहीं खो न जाए, इस भय से मैं उसे कहीं ले ही नहीं जाता। गंभीर से गंभीर छाता-वाहक के नसीब में भी यह उपलब्धि नहीं होगी कि उसने कोई छाता न खोया हो!’ यह अनुभव वास्तव में सभी को हुआ होगा। मैंने तो इतने छाते खोये हैं कि ऐसी भी एक स्थिति आ गयी कि किसी बैठक में जाते ही मैं घोषणा कर देता था कि अपने छाते संभाल कर रखें, मुझे किसी का भी मिलेगा तो मैं लेता जाऊंगा। जिन्होंने मेरी इस स्पष्ट और मासूम घोषणा को गंभीरता से नहीं लिया, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। एक और दिलचस्प बात है कि पुरुष छाते को भूलने के मामले में स्त्रियों से काफी आगे होते हैं। यह क्यों होता है यह अध्ययन का विषय हो सकता है। क्या ऐसा इसलिए है कि उन्हें अपनी त्वचा की ज्यादा फिक्र होती है, वे धूप और बरसात से खुद को बचाना चाहती हैं, क्योंकि भींगते हुए रास्ते पर चलना उनके लिए ज्यादा असुविधाजनक होता है।

इन दिनों तो ज्यादा एहतियात की जरूरत है। हल्का सर्दी-ज़ुकाम भी हो जाए, तो लोगों के मन में तमाम तरह की दुश्चिंताएं आने लगती हैं। वैसे एक पैकेट प्रभावी एंटी-बायोटिक्स की कीमत भी किसी छाते से कम नहीं होती। इसलिए बेहतर है कि बारिश तेज होने से पहले ही अपने पुराने छातों की बढ़िया से मरम्मत करवा ली जाए और नए छातों को हिफाजत के साथ रखा जाए। समय खराब है और सावधानी आवश्यक है। समय की यही मांग है कि या तो सड़कों पर निकला ही न जाए और मजबूरी हो भी कहीं जाने की तो पूरी सजगता बरती जाए। छाता साथ हो, और दूसरी वे चीजें भी जिनके बगैर घर से निकलने की मनाही है। पर उन सभी चीज़ों में छाता तो हमेशा ही खास सम्मान और स्नेह का अधिकारी है। सर्वेश्वर जी ने इस बात को खूब समझा था और इसीलिए इतनी प्यारी कविता छाते के लिए लिख छोड़ी है:

विपदाएं आते ही, खुलकर तन जाता है
हटते ही
चुपचाप सिमट ढीला होता है
वर्षा से बचकर
कोने में कहीं टिका दो
प्यार
एक छाता है
आश्रय देता है गीला होता है।

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