रेलयात्रा की व्‍यथा कथा-2: इस जिम्‍मेदारी का भी ठेका दे दें

भारतीय रेलवे यूं तो सुविधाओं को बढ़ाने के लिए कई कदम उठा रही है लेकिन यात्रियों की बुनियादी समस्‍याएं जस की तस है। बरसों से वैसी हीं। ट्रेन समय पर कब चलेगी? आउटर पर गाड़ी क्‍यों रूकी है? जो गाड़ी लेट है, वह कब आएगी? जो जानकारी दूसरे एप से मिल जाती है वह आईआरसीटीसी के एप से क्‍यों नहीं मिलती? और एप से मिल भी जाए तो प्‍लेटफार्म पर बैठे यात्रियों को क्‍यों नहीं मिलती? डिस्‍प्‍ले बोर्ड में पुरानी जानकारियां ही क्‍यों प्रदर्शित होती है? अचानक गाड़ी का प्‍लेटफार्म क्‍यों बदल दिया जाता है? हर बार बदलाव की सूचना देते हुए रेलवे उद्घोषक कहता है कि यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है… लेकिन रेलवे के भरोसे बैठे यात्रियों की सुविधा का ख्‍याल रखने का जिम्‍मा कौन लेगा? इसका भी ठेका दे दिया जाना चाहिए।

रेल यात्रा की व्‍यथा को दिखाते हुए हम एक शृंखला प्रस्‍तुत कर रहे हैं। आइए, बतौर नागरिक हम एक पहल करें। एक चर्चा की शुरुआत करें। रेलयात्रा की अपनी कथा-व्‍यथा को साझा करें। शायद हमारी बात कुछ कानों तक पहुंचे और जिस बदलाव की हम बात कर रहे हैं वह संभव हो सके। इस विमर्श की शुरुआत ऐसी ही एक व्‍यथा कथा से। आप अपने अनुभव, प्रतिक्रिया और राय हमसे साझा कर सकते हैं। हमारा ठिकाना: editor.talkthrough@gmail.com

यात्रियों की असुविधा के लिए खेद है… बस

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस पर स्वागत मूसलाधार बारिश से हुआ। आसमान, प्लेटफार्म की छत, से मानो परनाले बह रहे हों। चारों तरफ सिर्फ पानी का शोर और बहाव।

पब्लिक एड्रेस सिस्टम ने, न सिर्फ हमारा स्वागत किया, बल्कि हमें हुई असुविधा के लिए खेद भी प्रकट किया। मेरे इमोशनल हिंदुस्‍तानी दिल की तो तमन्ना हुई कि रेलवे द्वारा जताए गए खेद के जवाब में कहूं कि ‘आपका बड़प्पन है (जो खेद करते हैं), हम धन्य भये जो आपने ऐसा सोचा।’

8 जुलाई को अच्छे घंटे: अब एक ही दिन में खराब और अच्छे दिन तो आने से रहे। प्लेटफार्म से झरते परनालों और दोनों तरफ से आ रही तेज बौछारों में से रास्ते बनाते हुए मैं स्टेशन से बाहर आया। जो काली–पीली टैक्सी सामने दिखी में उस में सवार हुआ। चालाक वीरेंद्र हजारीबाग (झारखंड) के निकले। बिलकुल वाजिब दाम में उन्होंने मुझे चर्नी रोड अवस्थित क्लिनिक पर छोड़ा।

शल्य चिकित्सक महोदय प्रस्थान कर चुके थे। उनके डिप्टी सर्जन जरूर मौजूद थे, चेक-अप भली-भांति, लगभग 4 बजे तिपहरी में संपन्न हुआ। भारती के निर्देशानुसार मैंने सारे सवाल दागे और डिप्टी सर्जन से मिले जवाब नोट किए, बिल्स कलेक्ट किए। अब मैंने इन सारी सफलताओं पर (despite all odds) मैंने अपनी पीठ थपथपाई, तब पेट की याद आई, जो सुबह का भूखा था। मुहावरा याद आया, ‘सुबह का भूखा, अगर शाम तक खाना खा ले, तो उसे भूखा नहिं कहते।’

मुंबई की सडकें, अपने आप को नदी ही मान बैठी थीं। और उस पर चुंनिंदा टैक्सी नाव नजर आती थीं। घमासान बारिश जारी थी, फिर भी सीटी बजाते, एक ट्राली बैग और लैपटॉप बैग समेत भीगते मैंने पुनः एक टैक्सी की शरण ली। चालाक महोदय इस बार बलिया के निकले। वापस CSMT के एक नजदीकी रेस्तरां, में प्रवेश कर लगा, कि मेरे आज के जीवन के अच्छे दिन शुरू हुए। भोजन बिना हड़बड़ी के संपन्न किया। भोजन, भजन और शयन, तस्सली से हो, तभी तृप्ति होती है। पर ईश्वर अपनी योजनायें कोई मुझ से सलाह कर थोड़े बनाता है!

भोजन पश्चात ध्यान आया कि मैं पिछले 4 घंटे से भीगे कपड़ों में हूं, जो recovery stage के लिए कतई मुफीद नहीं है। बरसात जारी थी। भीगते/भिगाते पैदल ही स्टेशन पंहुचा। शाम के 6 बजे थे। पंजाब मेल खुलने में सवा घंटा बाकी था। अतः प्लेटफार्म की घोषणा नहीं हुई थी। अपितु 19.25 बजे रवाना होगी, इसका इज़हार led lights से दमकता हुआ Departures Board कर रहा था। भारी संख्या में गाडि़यों के रद्द अथवा लेट होने के कारण, सारे विश्राम स्थल खचाखच भरे थे। गाड़ियों संबंधी घोषणाएं धारा-प्रवाह जारी थी। जनता अपनी गर्दनों को ऊंचा उठाए टकटकी लगाए घोषणा पटल पर अपनी गाड़ी के रवाना होने की सूचना के लिए, गर्दन-दर्द-अकड़न को आमंत्रित करती प्रतीत होती थी।

चाय–चाय के स्वर मुखर हो चले थे और उस पर शेड पे पड़ता मोठा पाउस मानो मृदुंग बजा रहा था। लगभग रात 8 बजे, सूचित भये कि गाड़ी अब 00.00 बजे अर्थात रात बारह बजे चलने की उम्मीद है। इसी उम्मीद के साथ एक paid स्लीपिंग पौड में शरण ली। ट्रेन के खुलने तक यात्री कहां विश्राम करेंगे इसकी जिम्मेदारी, निश्चित तौर पर रेलवे की तो नहीं है, इसका पुन: आभास हुआ। जारी…

पहला भाग यहां: रेलयात्रा की व्‍यथा कथा-1: जो मैं सुन रहा हूं, और भी सुने

One thought on “रेलयात्रा की व्‍यथा कथा-2: इस जिम्‍मेदारी का भी ठेका दे दें

  1. ऐसा लग रहा है जैसे हमारी ही बात लिखी गई है। यह अच्‍छा प्रयास है। आपकी बात रेलवे सुन ले तो क्‍या कहने।

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