ट्रेन दुर्घटना में जनरल बोगी के यात्रियों की मौतें सबसे ज्यादा होती है… फिर भी सुविधाओं में सबसे पीछे क्यों?
रेल यात्रा की व्यथा को दिखाते हुए टॉक थ्रू की शृंखला जारी है। हमारे सहभागी लेखक और पाठक भी अपने अनुभव साझा कर रहे हैं। यह आपबीती 2008 के एक सफर की है लेकिन आप इसे आज की ही पाएंगे। इतने बरसों में रेलवे ने अपना चेहरा खूब चमकाया है। वर्ल्ड क्लास एयरपोर्ट सी सुविधाएं लेकिन जनरल बोगी के हाल बद से बदतर हुए। इन्हीं कोच में सबसे ज्यादा यात्री नारकीय यात्रा करते हैं। दुर्घटना में यही कोच सबसे पहले चपेट में आते हैं लेकिन इनमें यात्रा करने वालों के प्रति रेलवे सर्वाधिक गैर जिम्मेदार है। तब इस लापरवाही पर यह तर्क मुनासिब लगता है कि इनसे कम पैसा मिलता है इसलिए रेलवे इनकी सुध नहीं लेता है।
आइए, बतौर नागरिक हम एक पहल करें। एक चर्चा की शुरुआत करें। रेलयात्रा की अपनी कथा-व्यथा को साझा करें। शायद हमारी बात कुछ कानों तक पहुंचे और जिस बदलाव की हम बात कर रहे हैं वह संभव हो सके। इस विमर्श की शुरुआत ऐसी ही एक व्यथा कथा से। आप अपने अनुभव, प्रतिक्रिया और राय हमसे साझा कर सकते हैं। हमारा ठिकाना: editor.talkthrough@gmail.com
जनरल कोच के यात्रियों की सुध लीजिए सरकार
– सुरेश परिहार
लेखक पुणे निवासी पत्रकार हैं।
आज भारतीय रेल ने काफी तरक्की कर ली है। पैसेंजर, मेल, एक्सप्रेस, सुपरफास्ट, राजधानी, दूरंतो से लेकर वंदे भारत तक.. का सफर भारतीय रेल 175 सालों में कर चुकी है। यात्रियों की सुरक्षा के लिए भी तमाम टेक्नोलॉजी, सीसीटीवी कैमरे, आरपीएफ हेल्पलाइन, फूड ऑन व्हील, महिलाओं की सुरक्षा, वंदे भारत में प्लेन जैसी सुविधा, स्वागत करने के लिए एयरहोस्टेस जैसी सुंदर बालाएं…। इन तमाम सुविधाओं के बावजूद रेलवे के गरीब पैसेंजरों के लिए वही जनरल कोच है। दो इंजिन के पास तथा दो पीछे गार्ड या ब्रैक वेन पास। सुविधाओं के नाम पर इनमें अटकते-चलते पंखे, दोनों छोरों पर टायलेट (पानी हो तो किस्मत, वरना यह भी सामान रखने या बैठने के काम आ जाता है)। यह जनरल कोच की हकीकत है।
अखबारी जीवन और घुम्मकड़ पत्रकारिता के शौक के कारण मुझे देश के कई शहरों में जाना पड़ा। यात्रा के किसी भी माध्यम को मैंने कभी नहीं नकारा। जनरल कोच में अखबार बिछाकर बैठने से लगाकर एयरलाइंस की खूबसूरत बालाओं के हाथों से बोर्डिंग पास लेकर हवाई यात्रा करने तक का आनंद लिया है। सफर में मैंने कभी भी ‘सफर’ नहीं किया। सफर के दौरान कई घटनाएं हुई, अच्छी बुरी सभी प्रकार की। जिस घटना का जिक्र में कर रहा हूं यह 2008 की है।
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एक बार मुझे पुणे से अपने गृहनगर उज्जैन जाना था। अखबार के दफ्तर से छुट्टी भी मिल गई थी और कन्फर्म टिकट भी। ट्रेन थी पुणे-इंदौर, जो पुणे से दोपहर 3.30 बजे छूटती है। अखबार के दफ्तरों में छुट्टी बमुश्किल मिलती है लेकिन मुझे मिली थी 6 दिनों की। अब ट्रेन पकड़ने के लिए मैं घर से चला। पुणे के ट्रैफिक के कारण रेलवे स्टेशन पहुंचने में लेट हो गया। ट्रेन छूटना तय थी सो छूट गई। मुझे ट्रेन जाते हुए दिखी…आखिरी डिब्बे बना हुआ क्रॉस लगभग मुझे चिढ़ाता हुआ सा नजर आया। चूंकि छुट्टी मंजूर हो चुकी थी इसलिए मैंने घर लौटना मुनासिब नहीं समझा। अब यह सोचने लगा कि कैसे आज ही इस ट्रेन को वापस किसी स्टेशन से पकड़ा जा सकता है। तमाम इन्क्वायरी करने के बाद पता चला कि यह ट्रेन तो नहीं पकड़ी जा सकती है। लिहाजा मुंबई सेंट्रल से 9.30 बजे गोल्डन टेम्पल मेल (फ्रंटियर मेल) पकड़ा जा सकता है। वह भी किसी तरह से यदि 9.30 के पहले मुंबई सेंट्रल स्टेशन पहुंचा जा सके तो…। तय हुआ कि गोल्डन टेम्पल से ही नागदा जंक्शन तक यात्रा की जाए और उसके बाद घर जाया जा सकता है।
अब जैसे-तैसे मैं मुंबई सेंट्रल तक पहुंच गया। उस समय तक मेरे पास पुणे-इंदौर का स्लीपर क्लास का कन्फर्म टिकट था। मैंने सोचा कि थोड़ा बहुत रिफंड वगैरा मिल जाए तो ठीक रहेगा। इस मकसद से मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर मुख्य टिकट निरीक्षक कार्यालय तक पूछताछ की लेकिन कुछ हल नहीं निकला। अब सोचा कि इतना लंबा सफर कैसे किया जाएगा? स्टेशन के बाहर ही बुकिंग कार्यालय पर जनरल कोच का टिकट लेने जा ही रहा था कि वहां मुझे दलालनुमां व्यक्ति दिखाई दिए। वो मेरी परेशानी समझ गए थे शायद। उन्होंने पूछा- कहां जाना है? मैंने अपनी पूरी रामकथा सुना दी। उन्होंने कहा कि बताओ टिकट? मैंने उन्हें टिकट सौंप दिया। तब तक मैं समझ गया था कि यह व्यक्ति टिकट की दलाली करता है। उसने कहा, रुको एक मिनट…पूछ के आता हूं।
थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति वापस आया.. और बोला 500 रुपए लगेंगे कन्फर्म टिकट मिल जाएगा। मुझे आश्चर्य हुआ। एक घंटे में ट्रेन छूटने वाली है… चार्ट भी बन गया होगा… ट्रेन भी प्लेटफार्म पर लग चुकी होगी या लगने वाली होगी…। इस सब उधेड़बुन में मैंने घर जाने के उत्साह में उसे 500 रुपए दे दिए। 500 रुपए देने के बाद वह टिकट और पैसे लेकर चला गया.. यह कहकर की आता हूं। मेरा मन एक बार फिर आशंकित हो गया कि… नहीं आया तो…। लेकिन थोड़ी देर बाद वह लौट आया कन्फर्म टिकट के साथ। मेरा मन फिर भी नहीं माना.. मैंने चार्ट में चेक करने के लिए कहा.. तो वह बोला चार्ट तो अब कोच पर चिपक गया होगा वहां देख लेना…। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मेरा टिकट कंफर्म भी हो सकता है क्या…।
मैं नहीं गया उस सीट पर जो कोच और सीट नंबर टिकट पर दर्ज था। जनरल कोच से ही यात्रा करना उचित समझा इस फर्जीवाड़े में उलझे बिना। प्लेटफार्म पर पहुंचा तो वहां गोल्डन टेम्पल मेल के जनरल कोच के लिए लंबी कतार लगी हुई थी जिसे आरपीएफ के जवान धकिया और हड़का रहे थे। मैं भी चुपचाप उस लाइन में लग गया…जैसे ही जनरल कोच का गेट खुला लोग एक-एक करके चढ़ने लगे…किसी ने रुमाल, किसी ने गमछा.. किसी ने बैग रखकर अपने और अपने साथियों के लिए जगह रिजर्व कर ली। जब तक मैं चढ़ा पूरा कोच फुल हो गया/ मैंने एक दो लोगों रिक्वेस्ट की बैठ जाऊं क्या? उन्होंने कहा- सवारी आ रही है। मैं चुपचाप खड़ा हो गया। इसके बाद शुरु हुआ असली खेल… जिन लोगों ने रुमाल, गमछा, टॉवेल आदि बिछाए थे वे यात्री नहीं थे। वे भी लोकल दलाल ही थे जो आरपीएफ की मदद से लाइन में लग हुए थे और उन्होंने सभी सीटें रोक ली थी।
उनमें से एक ने मुझसे पूछा- कहां जाओगे… मैंने कहा-नागदा जंक्शन। उसने फिर पूछा- सीट चाहिए 100 रुपए लगेंगे.. .मैंने मना कर दिया। बाकी लोग पैसे दे-देकर बैठने लगे। मेरी कभी इच्छा हो रही थी कभी नहीं भी… क्योंकि 500 रुपए का फटका मैं पहले ही खा चुका था। मेरी इसी असमंजस की स्थिति में उनका व्यापार चलता रहा।
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लगभग नीचे की सभी सुविधाजनक सीटें उन्होंने 100-100 रुपए में बेच दी थी। जनरल कोच में उपर जो सामान रखने की जगह होती है उसे भी उन्होंने बेच दी थी। वहां भी लोग बैठ चुके थे। मैं खड़ा तथा ट्रेन में बहुत भीड़ थी। सामान तो एक बैग ही था मेरे पास लेकिन बोरवली तक आते-आते मेरी हिम्मत जवाब देने लगी थी। आगे का 700 किमी का सफर क्या ऐसे ही करना पड़ेगा… यह सोचकर मेरे तो पसीने छूट गए। बोरवली तक आते-आते दलालों के रेट कम हो गए। उन्होंने एक सीट 60 रुपए की आवाज लगाना शुरू कर दी क्योंकि दलाल मुंबई सेंट्रल से बोरवली तक ही आते हैं। गोल्डन टेम्पल मेल मुंबई सेंट्रल से छूटने के बाद बोरीवली में ही रुकती है। दलाल लोग यहां तक धंधा करके लोकल ट्रेन से वापस मुंबई सेंट्रल लौट जाते हैं अगली ट्रेन में धंधा करने के लिए। दलालों का 60 रुपए वाला ऑफर मुझे ठीक लगा। मैंने उनसे कहा-एक सीट चाहिए मुझे… उसने कहा-आओ। मैं सोच रहा था की सीट मिलेगी… मैंने उससे पूछा कहां है सीट.. उसने उपर की बर्थ का इशारा किया.. जहां पांच लोग पहले ही बैठे हुए थे। बैठे हुए लोगों ने भी आपत्ति की कि जगह नहीं है कहां बैठा रहे हो… दलाल ने उन्हें धमकाकर चुप करवा दिया। दलाल और उसके साथी ने जबर्दस्ती मुझे उठाकर उन पांच लोगों के बीच ठूंस दिया और 60 रुपए ले लिए।
अब मैं और पहले से बैठे हुए पांच लोग परेशान हो गए… बैठने को भी नहीं बन रहा था.. उपर से बैग भी उन्होंने मेरी गोद में थमा दिया था। ज्यादा देर मैं वहां नहीं बैठ सका। एक आध घंटा सफर करने के बाद मैं नीचे उतर आया। मुझे भी राहत मिली और उन बैठे हुए पांच लोगों को भी।
मेरा अनुभव 2008 का है लेकिन इतने बरसों बाद भी कुछ नहीं बदला। यह दृश्य आज भी मुंबई या किसी भी बड़े स्टेशन पर देखा जा सकता है,जहां इन जनरल कोचों में भेड़-बकरी की तरह यात्री ठूंसे जाते हैं। दलालों की चांदी रहती है, आरपीएफ के जवानों की भी। कहां कितना पैसा बंटता है… यह तो भगवान ही जाने…।
मैंने सफर पूरा किया.. जहां तक जाना था वहां तक गया… नागदा स्टेशन पर उतर कर मैंने उस कोच का चार्ट भी देखना चाहा जिसमें मेरी रिजर्व सीट थी। चार्ट में नाम था… पर सिर्फ सुरेश लिखा था.. पूरा नाम नहीं। उम्र में भी 5-6 साल का अंतर था। उस दलाल ने कैसे किया.. क्या किया ये आज तक समझ नहीं आया… लेकिन सरकार को जनरल कोच में यात्रा करने वाले गरीब यात्रियों का भी सोचना चाहिए, क्योंकि सबसे ज्यादा असुरक्षित वहीं होते हैं। रेल दुर्घटनाओं के समय भी जब ट्रेनें आमने सामने या पीछे से टकराती है तो इन्हीं लोगों की मौतें सबसे ज्यादा होती है… ट्रेन के आगे पीछे के कोचों में यही लोग यात्रा करते हैं और इनका कोई रिकॉर्ड भी रेलवे के पास नहीं रहता है…।
कुछ वर्ष पहले हवाई यात्राओं सम्बंधित एक नया विशेषण बाजार में आया था , कैटल क्लास. भारतीय रेल इसे दशकों से पालती – पोसती रही है. गाँधी युग से.
ऊपर से तुर्रा यह है , कि जनरल कोचेस की संख्या घटती गयी , और शयन यान तथा वातानुकूलित कोचेस बढ़ते गए.
रेल गाडी भी , आम नागरिक के लिए अब नापैद होती जा रही है.
विश्व गुरु!
वाह सुरेश भैया, सटीक
अदभुत जीवंत लेख एवं
कटुसत्य,
जनसंख्या का दानव और अशिक्षा।