बाबुषा कोहली
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित चर्चित कवि
होने को चींटी, कौव्वा, कुत्ते, गिलहरी, पेड़, नदी सब मेरे गुरु हैं। एक अर्थ में कदम-कदम पर गुरुओं से घिरी हुई हूं, इसके बावजूद नितांत गुरुहीन हूं।
तथागत बुद्ध, जे. कृष्णमूर्ति, मौलश्री वाले बाबा, शेख बाबा, रूमी, तबरेजी, कबीर या रमण का जो असर मुझ पर नजर आता है, वह इसलिए नहीं कि ये लोग गुरु रहे, बल्कि इसलिए कि ये मनुष्य थे, जागे हुए हृदयवान मनुष्य। इनके व्यक्तित्व में आयातित शास्त्रीयता का भार नहीं, बल्कि हृदय में सहज करुणा थी। इन्हें अनुयायियों की जरूरत नहीं थी, लोगों को इनकी तरलता की, इनकी रोशनी की जरूरत थी, है। ये लोग हथेली से राख निकाल कर चमत्कार नहीं दिखाते, न वाग्विलास के लिए जुटान जुटाते। ये वो लोग हुए, जो उगते और ढलते सूरज में अर्थ पैदा करने का जादू दिखाते और सिखाते हैं, बड़ी सूक्ष्मता से।
दाढ़ी वाले गुरुओं के बाबत ठीक-ठीक कुछ कहा नहीं जा सकता, कई बार वहां तिनका निकल आता है। हालांकि यह कोई नियम नहीं पर यह जरूर है कि प्रेमी मानुष पर दाढ़ी जंचती है, घुमड़ते हुए बादलों के रेले जैसी।
मगर गुरु प्रेमी नहीं होते, न प्रेमी गुरु हो पाते हैं। असल गुरु प्रेम है, जो कान उमेठता है और शाबाशी भी देता है, जो व्यास गद्दी पर बैठ कर प्रवचन नहीं देता, बल्कि आता-जाता रहता है हवा के झोंके जैसा, बारिश जैसा, फूलों की गंध जैसा।
प्रेम के संबंधों में योग्यता की परीक्षा अटपटी लगती है। इस तरह की वाक्य-संरचना ठीक नहीं लगती, जब कोई कहता है कि वह मेरे योग्य नहीं या मैं उसके योग्य नहीं। लोग एक-दूसरे के योग्य या अयोग्य कैसे हो सकते हैं? क्या लोग जीवन से बड़े होते हैं? क्या लोग प्रेम से बड़े होते हैं? जीवन को हमारे छाते के नीचे छुपने के लिए सिकुड़ना नहीं होता, हमें बनना होता है एक बरसते हुए जीवन में भीगने के योग्य। प्रेम के परिसर में भीगने की जुगत मिलती है, साँसों को गहने और सहने के सूत्र खुलते हैं। जहां सीधे-सीधे कोई गुरु नहीं होता, वहां विद्यार्थी और विद्या के बीच कोई बाधा नहीं पैदा होती, वहां बात एक सरल रेखा की तरह सीधी हो जाती है। जहां बात सीधी हो जाती है, जीवन सरल हो जाता है।
जेन में कहते हैं कि जब विद्यार्थी तैयार होता है, तब गुरु प्रकट हो जाता है; और जब विद्यार्थी पूरी तरह तैयार हो जाता है, तब गुरु गायब हो जाता है। जैसे सुबह तेज बारिश थी और अब कड़ी धूप निकल आयी है, ऐसे मनचले मौसम में उसे क्या फर्क पड़ सकता है, जो भीगने और झुलसने के सुख-दुःख से अवगत हो? जीने और मरने की कला सीखने के लिए प्रेम पर्याप्त है।
गुरु एक आईना है, जिसमें अक्स तो दिख जाता है, वजूद नहीं। आईना कभी टूट जाए तो अक़्स टूटता है, आईना देखने वाला नहीं। आईना जब तक बना रहता है, वजूद का एक भ्रम साथ-साथ चलता है जैसे ट्रेन के साथ-साथ चलते हैं पेड़, इमारतें और चांद।
ट्रेन एक स्टेशन आने पर रुक जाती है, पेड़, इमारतें, चांद सब रुक जाते हैं; आदमी मगर रुकता नहीं।
🌟
बाबुषा मैम को हमेशा पढ़ना चाहूंगा
अति सुन्दर. बाबुषा जी का लिखा और पढ़ना चाहूंगा.