फोटो: महामति प्राणनाथजी मंदिर प्राणामियों का एक महत्वपूर्ण तीर्थ है। मंदिर 1692 में बनाया गया था। इसके गुंबदों और कमल संरचनाओं में मुस्लिम और हिंदू स्थापत्य शैली दिखाई देती है।
इस तरह मैं जिया-3: उस दिन मैने जाना कि पापा का बड़ा अफसर होना मुझे मनमौजी नहीं बना सकता
कहते हैं होनहार बिरवान है होत है चीकने पात या पूत के पांव पालने में दिखाई देते हैं। यानी बचपन में तय हो जाता है कि भविष्य किस दिशा में विस्तार लेगा। हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
पन्ना: 1973-75
नाम पन्ना, मशहूर हीरों के लिए। मुझे कुछ अजीब लगा। खैर, उस स्टेशन – वैगन में, हम सब आठ के लोगों के लिए सीट्स थीं, उसके बावजूद पीछे की तरफ मां ने गद्दे आदि बिछवा दिए थे ताकि हम सो सकें। चालक महोदय बहुत वाचाल थे। सफर शुरू होते ही उनकी धारा-प्रवाह कमेंट्री चालू हो गई। पता पड़ा कि पन्ना जंगलों और पहाड़ियों से घिरा हुआ है। वहां के जंगलों में अजगर रहते हें और देहात में लठेत। बड़ा रोमांचक था। रास्ते में जंगलों और घाटों से गुजरते हुए उसने गाड़ी रोकी और बताया कि वो देखो अजगर। वो एक दूर के पेड़ की तरफ इशारा कर रहा था, जो रोड से लगभग 250 मीटर दूर रहा होगा। मुझे तो वो एक पेड़ की डगाल दिखी पर कई सहयात्रियों ने माना कि वो इक अजगर था। अब पंच कहें बिल्ली तो बिल्ली। भले ही वो कुत्ता हो।
पन्ना एक बहुत खूबसूरत कस्बा था जो चारों तरफ जंगलों से घिरा हुआ था। पापा चूंकि प्रतिनियुक्ति पर भारत सरकार में आए थे तो हमें सरकारी घर नहीं मिला। शुरू में हम एक प्यासी जी के मकान में रहे। उनका मकान स्कूल से थोड़ा दूर था। पन्ना में बहुत सारे कुएं और कुइयां हुआ करती थीं। इस घर के बाहर भी एक कुइयां थी, जो साल भर हमें पानी देती थी। मेरे घर के सामने ही सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल था। मुझे और मेरी ठीक बड़ी दीदी को वहां दाखिला दिलवाया गया। पहले ही दिन, हमने देखा कि वहां बच्चों की आचार्य जी से पिटाई होती थी। हमें उस स्कूल से मेरी मां ने अलग किया। मुझे और मेरी ठीक दो बड़ी दीदियों को साधनालय में दाखिल किया गया। वो स्कूल श्री अरविंद विद्यालय साधनालय के नाम से जाना जाता था, जो पुदुच्चेरी के आश्रम से सम्बद्ध था।
विंध्याचल पर्वत शृंखला में अवस्थित पिकनिक स्पॉट्स से भरा हुआ था। हम लगभग हर महीने किसी नए पिकनिक स्पॉट पर जाते। ट्रैकिंग करते समय मेरा ध्यान इस बात पर रहता कि कहीं कोई अजगर या लठेत घात लगाकर तो नहीं बैठा। वैसे शहर में हमें कोई खूंखार लठेत कभी न दिखा। उन ट्रैकिंग के दौरान हम कितने ही झरने, झीलों, कुंड आदि को देखते हुए आगे बढ़ते। एक बार हम वहां के एक लोकप्रिय पिकनिक स्पॉट पांडव फॉल गए। पापा के एक दोस्त (जनार्दन अंकल) सपरिवार साथ में थे। जीप से उतर कर, लगभग एक डेढ़ किलोमीटर पैदल चले। उस जल-प्रपात की आवाज सुनाई देने लगी थी, जो मुझे रोमांचित कर रही थी। जैसे ही पेड़ों के बीच से हम बाहर निकले, एक नयनाभिराम दृश्य था। पांडव जल-प्रपात, अपनी पूरी खूबसूरती, मेजेस्टी और गंभीरता से सामने था। वहां एक कुंड बन गया था और उसके आस-पास लगभग सौ मीटर के घेरे मै सफेद और मुलायम रेत थी। ऐसी रेत जो मैंने कालांतर में केरल और गोवा के समुद्र तटों पर देखी थी।
जब मेरे हाथ लगा हीरा फिसल गया
वहां एक मजेदार हादसा हुआ। जब खाना बनाने की तैयारी हो रही थीं, हम सब उस बीच पर घूम रहे थे। जनार्दन अंकल ने बताया कि यहां की रेत में भी हीरे मिलते हैं और यहां के पास ही एक शेर की गुफा है। मेरा रोमांच बढ़ गया। उस रेत को टटोलते हम आगे बढे और मुझे एक चमकीला पत्थर मिला। जनार्दन अंकल ने तुरंत ऐलान किया कि वो एक हीरा है। सभी उसे देखने के लिए उत्सुक हो गए। इसी छीना–झपटी मे वो जमीं पर गिर गया। फिर ढूंढे न मिला। हम लखपति होते हुए बाल-बाल बचे। उस समय का लखपति आज मुझे करोड़पति बना देता।
हमारे भूगोल के अध्यापक बहुत प्रैक्टिकल थे। वे जब जंगल और जल-प्रपातों को पढ़ाते तो हमें उन जगहों की सैर भी करवाते। एक बार वो हमें कऔआ सेहा लेके गए। बहुत सुंदर जल-प्रपात था। हम बच्चों ने अपने–अपने खाने के डिब्बे खोले और मिल-बांट के खाना खाया। मेरे एक सहपाठी ने घोषणा की है कि वो घर पर जा कर आलू के चिप्स बनवाएगा। बड़ा ही इंटरेस्टिंग प्रोजेक्शन था। मैंने भी ठान लिया कि घर पहुंच कर मै भी यही मांग करूंगा और ऐसा हुआ भी। मम्मी ने चिप्स बनाए और हम सब ने खाए। ‘जो मांगोगे, वही मिलेगा’ का अर्थ मुझे समझ आ गया था।
अरविंद विद्यालय साधनालय एक साफ सुंदर स्कूल था। जहां में अपने से दो बड़ी दीदियों के साथ जाता था। उनमें से बड़ी दीदी मेरी अंगरक्षक भी थी, जो स्कूल के दादाओं से मुझे बचाती थी। सबसे बड़ी दीदी हम सब को पढाई में मदद करती, दीदी नंबर दो हमारे खाने-पीने का ख्याल रखती और दीदी नंबर तीन हमारी सुरक्षा के लिए थी। स्कूल दो मंजिला बिल्डिंग थी, जिसकी छत पर बड़े भैया लोग इंटरवल में एक दौड़ का खेल खेलते थे, जो मुझे बहुत आकर्षित करता। उस खेल का चैंपियन था फरद अब्बास अंसारी। मैंने उससे निवेदन किया कि मुझे भी खेलना है। उसने मुझे ऊपर से नीचे तक नजरों ने नापा, और कहा, ‘दौड़ सकेगा?’ मैं चौथी क्लास में था और वो सब आठवीं के थे, इसलिए मुझे रिजेक्ट कर दिया गया। इसका अफ़सोस मुझे आज तक है, क्योंकि मै तेज दौड़ता था। ये खेल एक steeple चेस जैसा था।
यहां मेरा एक दोस्त बना, जो क्लास का सबसे तेज लड़का था। नाम था अनिल अम्सबस्ट। अब पता नहीं कहां है।
खरे सर का खौफ
खरे सर हमारे अंग्रेजी के शिक्षक थे। उनका खौफ था। जब भी उनका तमाचा पड़ता बच्चों की पेशाब निकल जाती। मेरे पापा हम सब को English Grammar सिखाते थे, इसलिए मैं खरे सर के क्रोध से बचा हुआ था।
मेरे पापा के एक मातहत थे। जो काफी भारी वजन के थे। वो हमें गैस सिलेंडर पहुंचाते थे। उनका बेटा हमारा सहपाठी था। एक दिन उनके बेटे से मेरी बहस हुई और मैने कहा कि तेरा बाप तो मेरे घर पर गैस सिलिंडर पहुंचाता है और उसके बैठने पर साइकिल की सीट इतनी पिचक जाती है। उसने मेरी शिकायत खरे सर से कर दी। फिर क्या था, खरे सर ने क्लास में मुझे बुलाया। उनका अंदाज भी अलग था। वे अपनी कुर्सी पर बैठे रहते और जिसको भी पनिशमेंट देना होता, उस से कहते, ‘यहां आओ… और नजदीक आओ, और नजदीक आओ।’ और जब हम उनके हाथ के दायरे में आते तो उनका तमाचा हमारे गाल पर पड़ता। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। मैं दो–तीन डेस्क से भिड़ता हुआ जमीन पर जा गिरा। उस दिन मैने जाना कि पापा का बड़ा अफसर होना मुझे मनमौजी नहीं बना सकता। पापा के ट्रांसफर के समय मेरे साथ वो खरे सर के घर गए। उन्होंने मुझे एक फ्रेम करी हुई पेंटिंग दी क्योंकि मैं उनका सबसे अच्छा इंग्लिश स्टूडेंट था।
पन्ना का घर काफी बड़ा था। दो मंजिला मकान और उस पर छत। ये मकान अजयगढ़ चौराहे के पास था। हमारे सामने पाठक जी अधिवक्ता का मकान था, उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम ब्रजेश था। ब्रजेश भाई मुझसे उम्र में काफी बड़े थे। उनका अधिकतर समय उनके घर के बाहर बनी बैंच पर ही बीतता था। उनका जर्मन शेफर्ड, जिसका नाम पंछी था, ब्रजेश भाई के क़दमों में पड़ा रहता, जिसे वे यदाकदा आते–जाते दुश्मनों पे दौड़ा देते थे। अन्य जगहों की तरह कुत्ते को छू नही किया जाता था, पर ब्रजेश भाई, कहते, लिही–लिही, लिही–लिही लोहोये लोहोये लोहोये, और उनका पंछी टारगेट पर दौड़ पड़ता। जैसा मैंने जिक्र किया, पन्ना के लगभग हर घर में कुंआ या कुइयां होती थीं। पाठक साहब के घर के दायरे में भी इक बड़ा सा सार्वजनिक कुआं था। मोहल्ले वालों को उससे पानी भरने की इजाजत थी। कभी-कभी कुछ उद्दंड लड़के उसमें तैरने का भी आनंद उठाते पर पाठक साहब उनकी खूब खबर लेते।
हमारे घर के सामने की सड़क पर साप्ताहिक बाजार तो लगता ही था पर सब्जी बेचने वाली महिलाएं रोज कॉल–बेल बजातीं और मां से कहतीं कि आप की बोहनी बहुत शुभ है। कुछ तो ले लो। मां कुछ न कुछ खरीद लेतीं। संभवतः ये संवाद वो हर घर पे दोहरातीं पर मां को लगता कि उनकी बोहनी कुछ परिवार को मदद करतीं हैं, तो ये सिलसिला चलता रहता।
पन्ना के नव युवकों को थे दो शौक
पन्ना के नव-युवकों के दो बड़े शौक थे, एक पतंग उड़ाना (जो बारिश के बजाय हर समय उड़ाई जाती थी, पेंच लडाना पतंग लूटना) और आसपास के जंगलों से आने वाले लंगूरों से कुश्ती लड़ना। बड़ी-बड़ी पतंग जिन्हें ढाल कहते थे लगभग हर छत से और मैदान से उड़ाई जातीं। जब ढील दी जाती और खेंचा होता तो इसकी कमेंट्री लगातार चलती। लंगूरों को रोटी या और खाने की वस्तुओं से ललचाया जाता और उनसे कुश्ती लड़ी जाती।
उस समय मैंने अमीन सायानी को भी जाना, जो श्री लंका कार्पोरेशन के विदेश विभाग के एक प्रसिद्ध उद्घोषक थे। उनकी नकल करके पन्ना के कई उद्घोषक रिक्शे पर अपनी नई दुकान का विज्ञापन करते। ‘जैन क्लिनिक यानी डॉ. जैन का दवाखाना। एक बार जरूर पधारें’ ये अनाउंसमेंट अमीन सायानी की तर्ज में बहुत दिन चला।
पन्ना की जो खासियत मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती थी,वो था प्राणनाथ मंदिर का गजर। गजर हर घंटे अपनी टंकार से पन्नावासियों को समय बताता, और हर प्रहर के बदलने की जानकारी भी देता। जैसे दोपहर के तीन बजने पर टन्न–टन्न-टन्न फिर टन्न,टन्न, टन्न। लगभग पूरे पन्ना में उसकी आवाज गूंजती।
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
मनीष सर के संस्मरण बेहद रोचक हैं।
पहले झमाझम बारिश में तमाम मुश्किलें झेलते सुदूर मुंबई की यात्रा करा लाए ,
अब कभी अमरूद की फुनगियों पर तो कभी बीच की रेत पर साथ ले घुमा रहे जैसे।
आगे की प्रतीक्षा है।