गांधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्याय में सिमटी एक गाथा
संध्या नवोदिता
आधुनिक हिंदी कविता में एक चर्चित नाम
‘जिस सरलादेवी चौधरानी की बौद्धिक प्रतिभा और देश की आजादी के यज्ञ में खुद को आहुति बनाने का संकल्प देख गांधी ने अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ का दर्जा दिया , उसका नाम इतिहास के पन्नों में कहां दर्ज है ?
‘जिनकी शिक्षा और तेजस्विता से मुग्ध हो स्वामी विवेकानन्द उन्हें अपने साथ प्रचार करने विदेश ले जाना चाहते थे। उसे इतिहास ने बड़े नामों की गल्प लिखते समय हाशिये पर तक जगह क्यों नहीं दी?’
सरलादेवी चौधरानी भारत में स्त्री आंदोलनकारियों का सुपरिचित नाम हैं। प्रख्यात लेखिका अलका सरावगी की पुस्तक ‘गांधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्याय’ सरलादेवी के नजरिये से गांधी के बारे में बात करती है। पुस्तक की रग-रग में गांधी हैं, सरलादेवी की इस कहानी का पहला पृष्ठ गांधी से शुरू है और आखिरी पृष्ठ तक गांधी हैं। उन्होंने सरलादेवी के जीवन को लगभग बदल डाला। वे आभिजात्य जीवन से खादी तक पहुंच गईं। तलवारों की पूजा, बंग युवकों को लट्ठ चलाने और व्यायाम की शिक्षा देते हुए अहिंसा के रास्ते पर बहस तक आ गईं।
गांधी अपने सिद्धांतों का पालन करने और करवाने में बेहद दृढ़ थे। इस प्रेम में, अगर इसे ठीक-ठीक प्रेम कहा जा सके, उनका यही रूप देखने को मिलता है। दो विवाहित व्यक्तियों के बीच यह कहा-अनकहा प्रेम लगभग साल भर चला। इसका आरंभ और अंत वैसे ही हुआ जैसे कि इस तरह के प्रेम में संभावित होता है। यह उपन्यास इसी एक साल के तमाम घटनाक्रमों- गांधी की यात्राओं, सरलादेवी को लिखे उनके लगाव भरे पत्रों, देश की राजनीति, आंदोलन, गांधी आश्रम के जीवन और इन सबके बीच प्रेम में भावुक हुई सरलादेवी की मनः स्थिति की कथा है, जिसे पढ़ते हुए गांधी का पुरुष पक्ष उदघाटित होता है।
अक्टूबर 1919 से आरंभ इस कथा की पृष्ठभूमि में जलियांवाला बाग हत्याकांड और असहयोग आंदोलन है। कहानी सरल, एकांगी और एकरेखीय नहीं है। यह दो ऐसे व्यक्तियों के ऐसे सुयोग की कथा है जिनके लिए देश की आजादी पहली प्राथमिकता थी, आजादी के स्वप्न के बिना इन दोनों के व्यक्तित्व की कोई अलग पहचान या परिभाषा नहीं है। अंग्रेजों के असत्य, शोषण, हत्याओं और लूट के खिलाफ खड़े ये दो विपरीतलिंगी मनुष्य परिस्थितिवश सहज ही एक दूसरे के साथ हो गये। गांधी को जितना जानिये उनके व्यक्तित्व की परतें चमत्कृत करते हुए खुलने लगती हैं। गांधी का स्त्रियों पर कितना भारी असर था, और स्त्रियां उन पर कैसा अगाध और सहज विश्वास करती थीं। हजारों स्त्रियांं गांधी के आन्दोलन में शिरकत करने उमड़ पड़ती थीं, न सिर्फ साधारण शिरकत बल्कि नेतृत्वकारी भूमिका में भी। सरलादेवी भी ऐसी ही एक निडर, साहसी और प्रतिभावान स्त्री थीं।
पुस्तक बारह अध्याय में विभक्त है।
ये अध्याय ही इस बारहमासा प्रेम के बारह अध्याय हैं। यह पुस्तक क्यों लिखी गयी है इसका परिचय उपन्यास शुरू होने के पहले ही, इसके पहले पृष्ठ की टिप्पणियों में मिल जाता है। यह पुस्तक की केंद्रीय लाइन है।
प्रेम तो ऐसे भी बड़ी जटिल चीज है, फिर दो ऐसे व्यक्तियों के बीच प्रेम जो समय के ऐसे मोड़ पर हैं जहांं वे खुद इतिहास बना रहे हैं, उन के रिश्ते में जटिलता भी अपने चरम पर है। उस समय के सामाजिक मूल्य, स्त्रियों के लिए समाज की दृष्टि आज से भिन्न है। यह सौ साल पहले का भारत है। एक सन्त राजनीतिज्ञ जिसका हर कदम लाखों लोगों की निगाह में है, और जो खुद भी निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं करता, और जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी की आभिजात पृष्ठभूमि में पली गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की भांजी , जिसे कदम कदम पर अपने कुल, मर्यादा का ख्याल रखना है।
उपन्यास में उकेरे गए गांधी, सरलादेवी को प्रेम करते हैं और सखा, बंंधु, प्रिय और कहीं कहीं बहन के तौर पर उन्हें पुकारते हैं। और सहज ही हर वह उपाय करते हैं जिस से सरलादेवी उनके नजदीक रह सकें। पुरुष स्त्री के प्रेम में विरले ही अपने काम छोड़ता है जबकि स्त्री सबसे पहले खुद को ही विस्मृत करती है। यह बात पुस्तक में बार बार देखने को मिलती है। गांधी का हर संभव प्रयास है कि सरलादेवी देशसेवा और त्याग का रास्ता चुनें, और हमेशा के लिए साबरमती आश्रम आने आ जाएं।
सरलादेवी को लिखे हर पत्र में गांधी असहयोग, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, खद्दर पहनना आदि बातों को बार -बार दोहराते हैं और हर बार सरलादेवी को इसी कसौटी पर कसते हैं। गांधी एक पल के लिए भी अपने मूल्यों और देश की आजादी के अपने विश्वासों पर संदेह नहीं करते, न उन्हें कभी कमजोर होने देते हैं।वे सरलादेवी के बारह साल के पुत्र दीपक को साबरमती बुला लेते हैं और अपने अनुसार दीक्षित करते हैं। सारी दुविधाएं सरलादेवी के भीतर उदित होती हैं। उनके पति हैं, टैगोर खानदान का बड़ा नाम है। गांधी के असहयोग, ब्रह्मचर्य और अहिंसा के मूल्यों पर उन्हें संदेह है।
गांधी के सारे प्रयास केवल इसी दिशा में होते हैं कि सरलादेवी को अपनी राह पर ले आएं। उनकी निगाह में सरलादेवी के उनके प्रति प्रेम की यही सच्ची कसौटी है। आज भी अक्सर स्त्री को ही प्रेम में सब कुछ छोड़कर पुरुष के साथ चले आना होता है। पुरुष सदियों, शताब्दियों से डामिनेट करते आए हैं यह उनका इनबिल्ट फीचर है। उनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत इसे आसान और व्यवहारिक बनाती है
पुस्तक में कई महत्वपूर्ण और दिलचस्प उल्लेख आते हैं जो गांधी की परतों को समझने में मददगार हैं। गांधी खुद कितने सारे काम कर रहे हैं और यही आशा वे सरलादेवी से करते हैं जिनसे सरलादेवी काफी परेशान और भ्रमित होती हैं कि गांधी उनसे एक ही जीवन में कई जीवन के काम करना चाहते हैं। पुस्तक में गांधी के बहाने मिल मजदूरों और मालिकों पर बात है, मजूर महाजन संघ का बनाना और अनसूया बेन को उसका आजीवन अध्यक्ष मनोनीत करना। इसके अलावा मरियम जिन्ना उर्फ रूटी पेटिट उर्फ रूटी जिन्ना के बारे में जानना एक अलग ही आयाम है जिससे पता लगता है गांधी की सतह को एक ही समय में कितने अलग-अलग तरह के व्यक्ति स्पर्श करते थे। जलियांवाला में शहीदों का स्मारक बनाने के लिए गांधी का फंड इकठ्ठा करना, असहयोग आंदोलन के लिए देश को तैयार में शहर दर शहर नापना- जिसके बारे में सरलादेवी कहती हैं –ऐसा लगता है अंग्रेजों ने ट्रेन गांधी के चलने के लिए ही बनाई है।
उपन्यास में सबसे कम जिनके बारे में उल्लेख है वह रामभज दत्त हैं –सरलादेवी चौधरानी के पति। वे अपनी पत्नी की निष्ठा पर कोई सवाल नहीं उठाते, न ही उनके मन्तव्यों और गांधी के साथ उनके घनिष्ठ पत्र व्यवहार पर कभी सवाल करते हैं। वे सरलादेवी के प्रति पूर्ववत स्नेही बने रहते हैं और गांधी से उनके संबंध को सरलादेवी की राजनीतिक संबंध के बतौर देखते हैं, गांधी से उनके मेलजोल पर कभी रोक लगाने का प्रयास नहीं करते। यह बहुत विशिष्ट चरित्र है और स्त्रियों के लिए ऐसा जीवन साथी मिलना सपने जैसा ही होता है। संभवतः यही कारण है कि रामभज की स्पष्ट तारीफ न करते हुए भी सरलादेवी गांधी के पास चले जाने का निर्णय लेने में दुविधा में रहती हैं।
यह इतिहास का वह समय था जब पुरुष नायक ही लंबे दौर के आंदोलनकारी हो सकते थे, स्त्रियों के विशिष्ट सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन की पृष्ठभूमि में सरलादेवी को उनके पीछे चलकर ही इतिहास में जगह बनानी थी। उन्नीसवीं सदी की सरलादेवी पर इस तरह लिखने का सही समय शायद यही है जब भारत स्त्रीवाद से परिचित हो चुका है, बड़ी संख्या में स्त्रियां शिक्षित हैं, बाहर निकल रही हैं और राजनीति के दुर्गम मार्गों पर भी वे कम ही सही, पर निकल पड़ी हैं। आज स्त्रियां इस स्थिति में हैं कि वे सरलादेवी के अपना पूर्वज होने का अर्थ समझ सकती हैं।
पुस्तक पढ़ते हुए सहज ख्याल आता है – सरलादेवी और गांधी , क्या सचमुच कुछ सत्य है या गल्प ? अलका सरावगी ने अपने साक्षात्कारों में इसे स्पष्ट किया है- सरलादेवी की आत्मकथा ‘जीवनेर झरा पत्ता’ उपलब्ध है, हालांकि इसमें उनकी कहानी अधूरी है। ‘लॉस्ट लेटर्स एंड फेमिनिस्ट हिस्ट्री –गेराल्डिन फोर्ब्स (1920) में गांधी के सरलादेवी को लिखे करीब अस्सी पत्र उपलब्ध हैं , जिन्होंने अलका सरावगी के मन में इस पुस्तक की भूमिका तैयार कर दी। उन्होंने पूरी जिम्मेदारी के साथ सरलादेवी के देशप्रेमी रूप को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ रचा है। ऐतिहासिक चरित्रों पर लिखना आसान नहीं होता। इनका फलक बड़ा होता है और आपको खास ख्याल रखना पड़ता है कि किसी चरित्र के साथ ना-इंसाफी न हो जाए। इस लेखन की विश्वसनीयता पर हजार सवाल उठ सकते हैं। अलका सरावगी ने अपने गहन अध्ययन और शोध से इसे बखूबी साध लिया है। 216 पृष्ठों की इस पुस्तक को उपन्यास की तरह एक दो सीटिंग में खत्म करना मुश्किल है। इसमें कदम कदम पर इतिहास पिरोया हुआ है जो इसे काफी संश्लिष्ट बनाता है और ठहर कर पढ़ने की मोग करता है। कवर मोहक है, युवा गांधी और सरलादेवी की आकर्षक तस्वीर इसे विश्वसनीय बनाती है। रुपहले अक्षरों में किताब का नाम दमकता रहता है।
कहने की जरूरत नहीं अलका सरावगी उपन्यास जैसी श्रमसाध्य विधा की सिद्धहस्त हैं। ‘एक सच्ची-झूठी गाथा’,’ कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ और अब यह उपन्यास जिस तेजी और बेहद कम अंतराल में आये हैं, उनकी यह तल्लीनता और गति चकित करने वाली है। उनके कई उपन्यासों के भारतीय और विदेशी भाषाओँ में अनुवाद हो चुके हैं। उनका पहला उपन्यास, जिसे साहित्य अकादमी सम्मान मिला, ‘कलिकथा वाया बाईपास’ भारत, केम्ब्रिज, नेपल्स,ट्यूरिन के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल है। इतिहास के इस चरित्र को आज की ख्यातनाम लेखिका का साथ मिलना हमारी पीढ़ी के लिए दुर्लभ संयोग है। अलका सरावगी ने यह उपन्यास लिखकर हमारी पीढी का कर्ज कुछ तो कम किया ही है और अपनी बहादुर पुरखन को शब्दों की दुनिया में शानदार तरीके से जीवित कर दिया है।
लेखक से संवाद –
जिज्ञासा 1 – आपने गांधी और सरलादेवी के आध्यात्मिक या इंटेलेक्चुअल रिश्ते को बहुत संतुलित तरीके से दिखाया है। जबकि इसमें जजमेंटल होने की तमाम गुंजाईश थी। ऐतिहासिक पात्रों पर लिखने में क्या चुनौतियां रहीं?
उत्तर – गांधी को पात्र बनाना निश्चय ही चुनौतीपूर्ण है क्योंकि गांधी पर सैकड़ों किताबें लिखी गई हैं। इसके अलावा ‘कम्पलीट वर्कस ऑफ महात्मा गांधी” जिसमें गांधी के सभी लेख, भाषण और पत्र संग्रहित हैं, में लाखों पन्ने हैं। इसलिए गांधी पर कल्पना की गुंजाइश बहुत कम है।
मैंने जो कुछ भी लिखा वह गांधी के सरलादेवी को लिखे उपलब्ध पत्रों के आधार पर गांधी और सरलादेवी के रिश्ते का एक पुनर्पाठ है। बेशक यह एक व्यक्तिगत पाठ है किंतु मैंने अपनी समझ में बहुत सावधानी बरती कि इसमें मेरी कल्पना संभावना के दायरे में ही रहे। इसके अलावा मेरा ऐसा कोई अजेंडा नहीं था कि गांधी की मूर्ति को ध्वस्त किया जाए या कि उस रिश्ते को एक सनसनीखेज रिश्ते के तौर पर पेश किया जाए।
जिज्ञासा 2 – इसमें गल्प कितना है और इतिहास कितना, क्या इसे जानकर उपन्यास पढ़ना और ज्यादा ऑथेंटिक होगा? उपन्यास आपके गहन अध्ययन को भी दर्शाता है। इसे लिखने के लिए आपने काफी कुछ पढ़ा होगा। वैचारिक स्रोत क्या रहे?
उत्तर – गल्प और इतिहास के मिश्रण के बारे में एक किस्सा बताना चाहूंगी। मेरे उपन्यास की शुरूआत में गांधी लाहौर में अक्टूबर 1919 को सरलादेवी के घर पर आते हैं और उन्हें उनके दरवाज़े पर कहते हैं, “आपकी हँसी इस देश की संपदा है। आप यूँ ही हँसती रहें।” यह बात सरलादेवी चौधरानी ने अपनी आत्मकथा में लिखी है कि गांधी ने उनको ऐसा कहा। पर कहां पर कहा, यह मेरी कल्पना है।
गांधी की आत्मकथा, संपूर्ण गांधी वांग्मय, हिन्द स्वराज के अलावा सुधीर चंद्र, रामचंद्र गुहा आदि को पढ़ा। सरलादेवी को जानने उनकी आत्मकथा, उन पर लिखे हुए शोध प्रबंध, उनकी रचनाओं के संकलन आदि मुख्य स्रोत थे। गांधी की भाषा की अंतर्ध्वनियां पकड़ने के लिए गांधी के कई भाषण भी सुने। सरला देवी के मामा रवींद्रनाथ टैगोर के घर बिताये बचपन के जीवन के बारे में जानने के लिए जोड़ासांको पर भी कई किताबें उपलब्ध हैं। सरलादेवी गांधीजी को अपनी परवरिश के बारे में जो कथाएं सुनाती हैं, उनका स्रोत इस तरह की किताबें और टैगौर परिवार की स्त्रियों द्वारा लिखी गई आत्मकथाएं भी रहीं।
जिज्ञासा 3 – उपन्यास की रचना प्रक्रिया कुछ साझा कीजिये।
उत्तर – सरलादेवी जैसी प्रबुद्ध स्त्री, जिनका स्त्री-शिक्षा, स्त्री-मुक्ति और राजनीति में स्त्री की जगह को लेकर लगभग क्रांतिकारी विचार थे, उनका इतिहास में कहीं जिक्र न आना आश्चर्यजनक है। गांधी के सरलादेवी को लिखे पत्रों को एक किताब के रूप में लानेवाली अमेरिकन इतिहासकार जेराल्डीन फ़ोर्ब्स ने एक ऑनलाइन सेमिनार के दौरान कहा कि सरलादेवी का जीवन बहुत औपन्यासिक है। मैंने पत्रों को पढ़ना शुरू किया। पचास साल की उम्र में तेरह साल पहले से ब्रह्मचारी गांधी के जीवन के इस पहले व्यक्तिगत प्रेम की पात्र सरलादेवी कैसी रही होंगी? जिसे गांधी अपने बौद्धिक पार्टनर के रूप में देख रहे हो, जिसे विवेकानंद अपने साथ विदेश में धर्मप्रचार के लिए ले जाना चाहते हों, जिसने वंदेमातरम के अगले अंतरा की धुन बनायी, उनका यदि कहीं जिक्र आता है, तो सिर्फ इस तरह कि “एक बंगाली विदुषी के प्रेम में पड़ गए थे गांधी!” इस तरह मेरी अपनी यात्रा शुरू हुई—सरला देवी को जानने की, उनके मन को पहचानने की, उनकी प्रतिभा को सराहने की …। और लोगों की स्मृति में एक शून्य को भरने की।
जिज्ञासा 4 – आपके उपन्यास लेखन की सक्रियता सजगता चकित करने वाली है। इस गति और तल्लीनता को बनाए रखने में आपके जीवन में क्या फैक्टर उपयोगी या प्रेरक हैं?
उत्तर – ‘मन लागा मेरा यार फकीरी में’। शायद इसी बात में सब कुछ आ जाता है; कि और किसी जगह दिल लगता नहीं। लिखने-पढ़ने में ही मन रमता है।
हमारे गुरु अशोक सेक्सरिया को जो लोग जानते हैं, उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि ऐसा हुआ।