राघवेंद्र तेलंग, सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
आत्मज्ञान के लिए खुद को, खुद का, खुद के द्वारा समूचा का समूचा इन्वेस्टमेंट करना पड़ता है। दांव पर लगाना पड़ता है। आहुति देना पड़ती है। स्थूल मैं का सूक्ष्म मैं से ही दहन करना पड़ता है। व्योम में व्याप्त अनहद नाद आपमें अपने आप उतर आता है। जो भी अपने आप है वह कास्मिक की क्रिया है। कास्मोस अपनी गोद में बैठाकर अनहद नाद प्रविष्ट करने का यह कार्य स्वयं करता है।
यह विराट सूक्ष्म के इंजन की वाइब्रेशंस हैं। आप इस इंजन के सवार भी हैं और स्वयं इंजन भी। इंजन की इन वाइब्स से जब आप जुड़ जाते हैं तो ऊपर से आकाशवाणी होती है। जिसे आप पहले सुनते हैं फिर ठीक समय पर यह नाद सबको भी सुनाई आता है और यह समय आपका तय किया हुआ होता है। यूं साबित होता है कि सच को पीआर या विज्ञापन की जरूरत क्यों नहीं होती और यह समझाने की बात कभी भी क्यों नहीं रही।
याद है इस इंजन का वो पहला प्राणघातक-सा लगने वाला पहला धक्का और उसके बाद इस इंजन से जुड़कर सुरंग में की गई ब्लैक एंड व्हाइट रंगों की दुर्धर्ष यात्रा। और अंतत: मंजिल के इस बिंदु से जुड़कर अब लगा हुआ यह महीन रेशमी अनहद नाद नामक धक्का! यह महान नेटवर्क से जुड़कर महान हो जाना है। हां! संपूर्णता का दूसरा नाम महान हो जाना है। जैसा कि उसे पता था,जैसा कि उसने कहा था।
धन और ऋण के संयोजन के बगैर यह विद्युतीय यात्रा संभव ही नहीं। और ग्राउंडनेस यानी अर्थिंग के होते (यानी अपनी धरती पर बने रहकर उसे कसकर पकड़े हुए की स्थिति में ताकि तड़ित/गाज के गिरने से वह धरती में ही समा जाए) यूं सुपर कंडक्टर को सुरक्षित कर रखे। इस तरह शून्य स्थिति के निकट रहने वाला सुपर कंडक्टर विराट के लिए तैयार होता है। जीरो ग्रेविटी में होने के लिए अस्तित्व में आता है। ग्रेविटी यानी माया मोह के संसार के निर्माता शून्य में, जीरो ग्रेविटी में ही अपना ब्लू प्रिंट रचते हैं। शून्य जो कहीं नही है पर परम ताप जिसके निकट है वही सुपर कंडक्टर है। वही विराट का प्रतिनिधि है, नियंता है, वही स्थूल को यानी पदार्थ को भी रचता है और ऊर्जा को भी।
संसार रचने की प्रक्रिया भी बड़ी दिलचस्प है। यह शून्य में अवस्थित संसार है जैसे ही इस में से ग्रेविटी नाम का रस तत्व बाहर खींच लिया जाता है यह संसार शून्य में विलीन हो जाता है,कोलैप्स हो जाता है। कॉस्मिक लाइटर बनकर एक अदृश्य फकीर आपके अंदर की बाती को रोज जलाए रखकर उसे भिगोए भी रखता है। यह यात्रा हाई टेम्परेचर से (परम ताप) एब्सोल्यूट टेम्परेचर तक स्टेंडिंग वेव के जरिए पहुंचने की यात्रा है जहां ग्रेविटी नहीं है। इस स्टेंडिंग वेव्स से सिर्फ प्रकाश ही होकर गुज़र सकता है। वहां प्रकाश भी द्रव रूप में आ जाता है। हां! पदार्थ की अवस्थाएं परम की स्थिति में बदल जाती हैं। जीरो ग्रेविटी में शून्य द्वारा शून्यता के भाव से जिस भौतिक संसार की रचना का प्रादुर्भाव होता है उसकी निर्मिति का रसायन शास्त्र दिलचस्प है। शरीर के प्राधान्य भाव से शरीर के अंदर विविध रंगीन वृत्तियों के पूर्णतया भर जाने के बाद तत्पश्चात एक अबूझ क्षण में पुन: ब्लैक एंड व्हाइट अनुभवों के द्वारा इवैक्युएट होने के बाद आप में अस्तित्व की उर्जा तत्क्षण प्रवेश करती है। यह महीन और रेशमी झटका महसूस कर आपके चेहरा स्मित हो उठता है यही सत-चित-आनंद है, जी! अब आप सच्चिदानंद हैं।
यह विराट सूक्ष्म बिंदु रूप में ज़रूर है पर यह खुली सीमाओं वाला वृत्त है। इसके आसपास एर्गोस्फीयर है जिससे यह घिरा हुआ है। यह असीम में मौजूद कांशसनेस का क्लाऊड है जो मानवता के लिए ही उपलब्ध है, एलियंस या एआई के लिए नहीं।
डिटैचमेंट का अभ्यास करने से आसक्ति समाप्त होने लगती है। फिर अटैचमेंट विथ डिटैचमेंट से दुनिया को देखने से स्थाई दृष्टि भी बदलती है और परसेप्शन का आयाम भी रूपांतरित होता है। यानी एक तरह से सबके परसेप्शन के उलट पोलर परसेप्शन। दरअसल, सर्वज्ञानी हो जाते ही आसक्ति की व्यर्थता का रहस्य मालूम पड़ जाता है। आसक्ति विराट तक पहुंचने के ठीक पहले आ खड़ी होने वाली पहली और आखिरी दीवार है। जिसे मिटाकर ही आप बिना सीमा वाले विराट के सूक्ष्म वृत्त में प्रवेश करते हैं। फिर विराट की सतह से संस्पर्श होते ही आपमें विराट के बोध की बूंद आ समाती है। यहां वास्तव के शून्य से आपका परिचय होता है, जिसे अहम ब्रह्मास्मि भी कहा गया है और तत्वमसि भी। यह दोनों की ओर से बिना कहे अभिव्यक्त होने वाली स्थिति है, यहां युति घटती है, सहमति घटती है या महर्षि पतंजलि को याद करते हुए कहें तो अंतत: योग घटता है। योग के इन क्षणों में ठीक उसी समय एक समुद्र जैसा कुछ आप में आकर विलीन होता है। ऐसे में जानने को कुछ शेष नहीं रह जाता और ऐसे में ही तब स्वयं अज्ञेय आ प्रकट होता है। मिलन के इन मीठे क्षणों का स्वाद खारा होता है क्योंकि यह एक समुद्र से मिलने का मामला है।
जी हां! मेरे कहने का आशय है कि मिलन के उस क्षण के बाद सब सब कुछ बदल जाता है, इसलिए कि तभी आप में नमक उतर आता है, नमक हां! धरती का नमक।
जीवन की विविधता से भरी प्रक्रिया में बने रहने से ही साक्षी पैदा होता है। यही साक्षी फिर उस तक पहुंचाता है। इस प्रक्रिया में घटती घटनाओं, विचारों, भावनाओं, द्वंद्वों, उनसे बनते बिगड़ते अर्थों-परिस्थितियों के नतीजे उकसाते हैं प्रतिक्रिया करने के लिए। मगर यहां अभी रूको! जब तक यह समझ न आ जाए या स्पष्ट न हो जाए कि प्रक्रिया में ही अलग-अलग समय व परिस्थितियों में रूक-रूक कर इंफर्मेशन आती है, सूचनाएं आती है, ज्ञान आता है। उस ज्ञान से विवेक जागता है। कॉन्शसनेस की यह अल्केमी रुक-रुक कर घटती है, रुक-रुक कर होने वाली बारिश की तरह। दरअसल, उस तक कई परसेप्शन से मिलकर बना एक परसेप्शन पहुंचाता है।
एक के बाद एक सीढी चढ़े जैसा। बाद मुद्दत के, अल्टीमेटली, आखिरकार एक ज्योत दिखाई देती है निर्विचार स्थिति में। इस एक का कोई चेहरा नहीं, एक जिसमें से होकर द्वैत ने आकार लिया। अब चेहरा और बेचेहरा दोनों एक हैं। दृश्य और अदृश्य एक हैं। यही तो सम्मिलन है पदार्थ और ऊर्जा का। इसी की तो अंतहीन समय से प्रतीक्षा हो रही थी।
उन्मुक्त ऊर्जा वाले क्षेत्र को ही हमने खुली सीमा वाला वृत्त कहा है। यहां सब एक है। कहीं कोई विभाजन नहीं है। यह कथन अद्वैत के बारे में है। यहां की ऊर्जा में बुद्धि है क्योंकि वह अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र है। जहां भी ऊर्जा कैद होगी वहां दो का जन्म होगा यानी सीमाओं वाला वृत्त। इसकी ऊर्जा की बुद्धि के गुण में संकुचन होगा। यहाँ सीमाओं के अनुशासन से बने लाईट और साउंड के नृत्य होते हैं जिन्हें माया कहा गया है। यह द्वैत की दुनिया है, पदार्थ की दुनिया है। दो की प्रकृति का क्षेत्र होने से प्रति यानी विलोम यहाँ हमेशा अस्तित्व में रहेगा ठीक उसी क्षण।
विराट के संस्पर्श से द्रव्य यानी मैटर का लोप हो जाता है। स्पेस हटते ही च्वाइस यानी विकल्प का भी नाश हो जाता है। अब ‘सब स्वीकार है’ का भाव आपमें अपने आप उदित होता है। ‘सब स्वीकार है’ का भाव आते ही आप भी प्रकृति जैसे उसी के अनुरूप हो जाते हैं। यही नैसर्गिक या प्राकृतिक होना है, सर्वशक्तिमान होना है।
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Sabse alag… bahut he Sundar sir