उसे जिंदा रहने दें या मार दें … ?

जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ

भारत में हत्या के समतुल्य है सक्रिय इच्छामृत्यु (एक्टिव यूथेनेसिया)

भारत में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु (पेसिव यूथेनेसिया) की इजाजत है लेकिन सक्रिय इच्छा मृत्यु (एक्टिव यूथेनेसिया) की इजाजत भारत समेत दुनिया के अधिकांश हिस्सों में नहीं है। निष्क्रिय इच्छामृत्यु के मामलों में मरीज की लाइफ सपोर्टिंग मशीनें बंद कर दी जाती हैं। जीवन को विस्तारित करने वाली दवाएं बंद कर दी जाती हैं। भारत में अब निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दे दी गई है। सक्रिय इच्छामृत्यु भारत समेत दुनिया के अधिकांश हिस्सों में नहीं है। सिर्फ कुछ देशों में यह प्रचलन में है। इसमें रोगियों को घातक इंजेक्शन देकर मौत दे दी जाती है। निष्क्रिय इच्छामृत्यु तब होती है जब गंभीर लाइलाज बीमारी से ग्रस्त रोगी के लिए मौत के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता और मरीज की मर्जी से से ही उसे मौत दी जाती है।

सक्रिय इच्छामृत्यु को लेकर नैतिकता का मुद्दा दुनिया भर में बहस का विषय है। सरल शब्दों में कहा जाए तो निष्क्रिय और सक्रिय इच्छा मृत्यु के बीच अंतर को ‘मरने’ और ‘हत्या’ के बीच अंतर के रूप में भी देखा जाता है। बेल्जियम, नीदरलैंड्स, कोलंबिया और जापान जैसे देशों में इच्छामृत्यु की दोनों रूपों की अनुमति दी जाती है। जर्मनी, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका और काउंटी के बाद भारत भी अब केवल निष्क्रिय इच्छामृत्यु की इजाजत देने वाले देशों में शामिल हो गया है।

सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया फैसले (अगस्त 2024) ने भारत में इच्छा मृत्यु की चर्चा को एक बार फिर से तूल दे दिया है। इच्छा मृत्यु का मतलब है कि कोई व्यक्ति अपनी गंभीर बीमारी या किसी असहनीय पीड़ा के कारण जब मरना चाहे तो उसे मृत्यु की अनुमति दे दी जाए। भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु को अभी तक कानूनी मान्यता नहीं मिली है,क्योंकि इसे एक प्रकार से हत्या, भले ही मर्सी डेथ हो, की संज्ञा दी गयी है ।

सुप्रीम कोर्ट ने ही निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी थी और अब उसी ने एक असहाय माता-पिता की अर्जी ठुकरा दी। सुप्रीम कोर्ट ने एक बुजुर्ग दंपति की याचिका खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने अपने कोमा में पड़े 30 साल के बेटे के लिए इच्छामृत्यु की मांग की थी, जो 11 साल पहले गिरने के बाद से बिस्तर पर है। 62 वर्षीय अशोक राणा और 55 वर्षीय निर्मला देवी की 30 वर्षीय इकलौता बेटा है। उसे 11 वर्ष पहले गंभीर चोट लगी थी और तब से कॉमा में पड़ा है। उसे खाना भी नाक के जरिए दिया जा रहा है। एक दशक से अचेत पड़े बेटे की देखरेख में माता-पिता की सारी पूंजी खत्म हो गई लेकिन डॉक्टरों ने अब उसके हालात में किसी सुधार से इनकार कर दिया है। इसी कारण से माता-पिता ने अपने लाडले के लिए इच्छा मृत्यु की मांग सुप्रीम कोर्ट से की थी।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से अपने बेटे की नाक से पेट में भोजन पहुंचाने वाली राइल्स ट्यूब हटाने की अनुमति मांगी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु (पेसिव यूथेनेसिया) की इजाजत है जिसके दायरे में राइल्स ट्यूब का हटाना नहीं आता है। कोर्ट ने कहा कि राइल्स ट्यूब कोई मेडिकल सपॉर्ट नहीं है। अगर इसे हटाने की अनुमति दी गई तो यह निष्क्रिय इच्छामृत्यु के दायरे में नहीं आएगा और ऐसा करने की अनुमति भारत में नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मरीज एक फीडिंग ट्यूब के जरिए पोषण प्राप्त कर रहा था। इसलिए उसे मरने देना पैसिव यूथेनेशिया नहीं बल्कि एक्टिव यूथेनेशिया होगा, जो भारत में अभी भी गैर-कानूनी है।

इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब भी मांगा है। अदालत ने सरकार को पैसिव यूथेनेशिया की अनुमति देने के बजाय मरीज के ट्रीटमेंट के लिए सरकारी अस्पताल में शिफ्ट करने की संभावना को लेकर जवाब मांगा है। आदेश में कहा गया है कि कोर्ट इस बात का ध्यान रखती है कि माता-पिता अब वृद्ध हो गए हैं और अपने बेटे की देखभाल नहीं कर सकते जो इतने सालों से बिस्तर पर पड़ा है। मगर क्या इच्छा मृत्यु के अलावा कोई मानवीय समाधान खोजा जा सकता है।

इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने हरीश राणा को इच्छामृत्यु देने की याचिका पर एक मेडिकल बोर्ड बनाने से मना कर दिया था, जिसके बाद दंपति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हाई कोर्ट सही था। कोई भी डॉक्टर ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होगा।

भारत में इच्छामृत्यु पर आधिकारिक चर्चा 2000 के दशक की शुरुआत में शुरू हुई, लेकिन 2005 में महत्वपूर्ण मोड़ आया। फिर विधि आयोग ने ‘असाध्य रूप से बीमार रोगियों का चिकित्सा उपचार (रोगियों और चिकित्सा चिकित्सकों का संरक्षण) विधेयक 2006’ पर अपनी 196वीं रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट ने आधिकारिक तौर पर इच्छामृत्यु और सम्मान के साथ मरने के अधिकार के विषय को कानूनी और सार्वजनिक चर्चा में ला दिया।

भारत में इच्छामृत्यु की बहस में एक महत्वपूर्ण क्षण अरुणा शानबाग मामला था। मुंबई में एक नर्स अरुणा शानबाग 1973 में एक क्रूर हमले के बाद 37 साल से अधिक समय तक वेजिटेटिव स्टेट में रहीं। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2011 में अरुणा शानबाग की ओर से इच्छामृत्यु की अनुमति मांगने वाली पत्रकार पिंकी विरानी की याचिका पर फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में सख्त दिशा-निर्देशों के तहत निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी। यह पहली बार था जब न्यायपालिका ने आधिकारिक तौर पर विशिष्ट परिस्थितियों में इस प्रथा को मान्यता दी। न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार किया, जिसमें कहा गया कि स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था में या लाइलाज बीमारी से पीड़ित रोगियों के लिए जीवन रक्षक प्रणाली को कानूनी रूप से हटाया जा सकता है, लेकिन केवल न्यायालय की सख्त निगरानी में।

अरुणा शानबाग मामले के बाद विधि आयोग ने 2012 में ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु – एक पुनर्विचार’ शीर्षक से अपनी 241वीं रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए सिफारिशों को दोहराया गया और रोगियों, उनके परिवारों और चिकित्सा चिकित्सकों की सुरक्षा के लिए उचित कानूनी प्रावधानों और दिशानिर्देशों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया।

सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2018 में कॉमन कॉज बनाम भारत संघ के मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें निष्क्रिय इच्छामृत्यु को वैध बनाया गया और लाइलाज रूप से बीमार रोगियों की ‘लिविंग विल’ की वैधता को मान्यता दी गई। न्यायालय ने इस प्रक्रिया के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश निर्धारित किए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इच्छामृत्यु कानूनों के संभावित दुरुपयोग को रोकते हुए गरिमा के साथ मरने के अधिकार का सम्मान किया जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसलों में आर्टिकल 21 के अधिकार को और मजबूत बनाया है। इस आर्टिकल में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता।सुप्रीम कोर्ट इस अधिकार के तहत गरिमा के साथ मरने के अधिकार को भी मान्यता दे चुका है। कॉमन कॉज बनाम भारत सरकार मामले पर 2018 में फैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा था कि अब गंभीर रूप से बीमार लोगों को निष्क्रिय इच्छा मृत्यु का अधिकार है। इसके लिए उन्हें बहुत सारे नियमों का पालन नहीं करना पड़ेगा।

संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त जीवन के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं ने और भी व्यापक बनाया है। इसे संविधान के बुनियादी ढाँचे का हिस्सा माना गया है।इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही किसी व्यक्ति से जीवन का अधिकार छीना जा सकता है।मौत की सज़ा, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार जीवन समाप्त करने का एक उदाहरण है। लेकिन इच्छामृत्यु कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। अतः यह एक गैर-कानूनी कृत्य है।

संविधान में यूथेनेसिया के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है। यूथेनेसिया यानी इच्छामृत्यु को अनुमति देने के संबंध में प्रक्रिया का उल्लेख न तो संविधान में किया गया है और न ही संसद द्वारा बाद में जोड़ा गया है। इच्छामृत्यु की मांग करने वाले व्यक्ति को प्रायः न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है और प्रावधानों के अभाव में तथ्यों को देखते हुए विवेकानुसार फैसले किये जाते हैं। अतः यूथेनेसिया के संबंध में एक व्यापक कानून बनाया जाना चाहिये जो इसे स्वीकारने या अस्वीकारने के संबंध में मज़बूत और वैध तर्क प्रस्तुत करता हो।

इच्छामृत्यु की अनुमति से दुरुपयोग की संभावनाएं भी हैं। इच्छामृत्यु की अनुमति देना या इसे वैध बनाना इसके दुरुपयोग की संभावनाओं को बल देगा। धन-संपत्ति या पारिवारिक दुश्मनी के कारण इच्छामृत्यु का दुरुपयोग टालना असंभव सा कार्य होगा। आज भी बिना अनुमति के धन-संपत्ति कि लालच में अनेक परिवारों में बड़े बजुर्गों, विधवा महिला की चोरी चुपके हत्या कर दी जा रही है। इच्छामृत्यु का विरोध करने वालों का कहना है कि जीवन ईश्वर की देन है, इसलि इसे वापस लेने का हक भी सिर्फ उसे है।

सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु को एक मौलिक अधिकार घोषित नहीं किया है, लेकिन उसने गंभीर रूप से बीमार मरीजों के अधिकारों पर जोर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु को एक संवेदनशील मुद्दा माना है और इस पर कई बार विचार किया है। कोर्ट ने गंभीर रूप से बीमार मरीजों के अधिकारों पर जोर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इच्छा मृत्यु पर बहस जारी है।

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