हमारे अनिल यादव जी …

पुण्‍यतिथि स्‍मरण: एक थे अनिल यादव

– टॉक थ्रू एडिटोरियल टीम

आज का दिन और बात 2020 के पहले हो रही होती तब हम कहते, एक हैं अनिल यादव जी। आज कहना पड़ रहा है, एक थे अनिल यादव। (हालांकि, वे विचार और याद के साथ हमारे बीच ही हैं, मगर सच तो यही है कि वे सशरीर नहीं हैं)। आज अनूठे व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व के धनी हमारे अपने अनिल यादव जी को याद करने का दिन है। अक्‍सर जब पर्यावरण, वन प्राणी, जन मुद्दों की पत्रकारिता और विशेषज्ञता की बात होती और मध्‍यप्रदेश में जानकारों का जिक्र होता तो बरबस उनका नाम आ ही जाता। लंबे समय तक पत्रकारिता करने वाले अनिल यादव जी 4 अक्टूबर 2020 को इस दुनियां को अलविदा कह गए थे। आज उनकी पुण्‍यतिथि है तो कई बातें आ कर घेरे हुए हैं। जब यादों का घटाटोप हो तो किसी भी व्‍यक्ति को याद करने का सबसे बेहतर तरीका है, उसके कहे गए को सुनना, मान लेना और कुछ हद तक अपना लेना। अनिल जी को भी कुछ ऐसे ही याद करते हैं।

अनिल यादव जी को याद करते हुए सुरेंद्र दांग लिखते हैं:

अंधविश्वास, ढोंग और पाखंड के खिलाफ लड़ाई के उनके अपने तरीके थे। जनमानस को जाग्रत करने के लिए वे अभिनव प्रयोग करते रहते थे। हमारे अंतिम आश्रय स्थल श्मशान घाटों की साल में एकबार साफ-सफाई का आयोजन उन्होंने ने ही आरंभ कराया था जो कि गंजबासौदा में आजतक अनवरत रूप से जारी है। आज भी पाराशरी विश्राम घाट की साफ-सफाई कर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किए गए। श्मशान घाट को लेकर समाज में एक भय, अशुद्धि और अशौच का भाव है। स्त्रियों के श्मशान घाट जाने पर तो  अघोषित प्रतिबंध ही है। शायद इसे शास्त्रसम्मत भी नहीं माना जाता हो? इसलिए शवयात्रा में महिलाएं नहीं जाती हैं। जब कोई प्रगतिशील परिवार अपनी बेटियों के हाथों माता-पिता को मुखाग्नि देने का अधिकार (बेटा न होने की स्थिति में!) देता है तो यह ख़बर अखबारों की सुर्खियां बनती है। अनिल दाऊ फाउंडेशन गंजबासौदा द्वारा आयोजित श्मशान घाट की सफाई कार्यक्रम में महिलाओं की उपस्थिति एक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन का शुभसंकेत माना जाना चाहिए। अनिल भाई महिलाओं के अधिकारों के प्रति बहुत संवेदनशील थे। उनकी  संवेदनशीलता सिर्फ महिलाओं के लिए ही नहीं थी। समाज के पिछड़ों और वंचितों, खानाबदोश जातियों समाज के हाशिए से षड्यंत्र पूर्वक बाहर धकेल दी गई जनजातियों, गरीब-गुरबों के प्रति भी वे अतिरिक्त रूप से संवेदनशील थे। इसलिए वे छुआछूत के भी खिलाफ थे।

अनिल यादव जी एक संजीदा पत्रकार, प्रकृति और पर्यावरण के अनन्‍य प्रेमी और इन सारे विशेषणों से ऊपर एक सच्‍चे इंसान थे। ऐसा इंसान जिसके दिल में इंसानियत और कुदरत दोनों के लिए समान जगह थी।

उनकी सोच को जानने का एक तरीका उनके लिखे तो पढ़ना है तो जरा इस पर गौर करें। यह पोस्‍ट अनिलजी ने 9 सितंबर 2018 को लिखी थी और 2 साल बाद वे हमारे बीच नहीं रहे:

सनद लिख दी ताकि वक्त-जरूरत काम आये-

“मेरी दृष्टि उस नेत्रहीन को दी जाए जिसने कभी सूर्योदय, किसी अबोध शिशु का चेहरा या किसी युवती की आंखों में अनुराग न देखा हो।मेरा हृदय उसे दिया जाए जिसके अपने हृदय ने उसे अनवरत पीड़ा के सिवाय और कुछ न दिया हो। मेरा रक्त उस युवक को मिले जो दुर्घटना में ध्वस्त किसी कार से खींच कर निकाला गया हो, जिस पर उसके वृद्ध माता पिता की समस्त आशाएं टिकी हों। मेरे गुर्दे उसे दिए जाएं जिसका जीवन एक सप्ताह से दूसरे सप्ताह तक जिंदा रहने के लिए किसी मशीन का आश्रित हो चुका हो। मेरी हड्डियां, मेरी मांसपेशियां और मेरे शरीर की एक-एक रग,किसी अपंग बालक को दिए जाएं जो जीवन की दौड़ में फिर से भाग सके। मेरे मस्तिष्क का कोना-कोना छान डालें। मेरी कोशिकाओं को कहीं विकसित होने के लिए छोड़ दें ताकि किसी दिन कोई मूक लड़का किसी पखेरू के पंख फड़फड़ाने को सुन कर हर्षनाद कर सके। कोई बधिर लड़की खिड़की पर खड़ी होकर गिरती बौछारों की आवाज सुन सके। मेरे सारे अवशेषों को जलाकर भस्म को हवा में बिखेर दिया जाये ताकि कुछ फूल खिल सकें।“ -रॉबर्ट एन. टेस्ट

(ये सज्जन कौन थे मैं नहीं जानता लेकिन एक अस्पताल में लिखी नजर आई इनकी यह सदिच्छा एकदम वही है जो मेरी भी है।बस मैं इतने सुंदर शब्दों में उसे बयान नहीं कर सकता। )

इसी साल की वह तीस जनवरी थी। पिछली तीन दिसम्बर को ही मैं अपने छोटे बेटे अनुज का विवाह कर के अपने अंतिम सांसारिक दायित्व से मुक्त हुआ था।और अब बारी थी चलन के मुताबिक ‘गंगा नहाने’ की। सभी पारिवारिक जवाबदारियां पूरी करने के बाद गंगा नहाने की यह कहावत तब बनी होगी जब पैदल चल कर कोसों दूर गंगा नहाने जाना होता था और लौट पाएंगे या नहीं पता नहीं होता था। तो अब सारे कर्तव्य पूरे करके मुझे भी गंगा नहाना था लेकिन कौन सी गंगा में,कैसे नहाना है यह मुझे ही तय करना था।

उस दिन भोपाल के लिए निकला तो श्रीमतीजी शशि साथ थीं और साथ थी नवागत बहू रिद्धि। दोनों को बेटी नम्रता के पास छोड़ने के बाद मैं पहले से निश्चित मुलाकात के लिए वरिष्ठ पर्यावरण लेखक-चिंतक श्‍याम बोहरे से मिलने जा पहुंचा। वे कुछ ही माह पूर्व एम्स भोपाल में सपत्नीक देहदान करके आये थे। मैं भी यही करना चाहता था और यही मेरा गंगा स्नान था।

हम दोनों साथ गए और मैं देहदान का फ़ार्म भर आया। लौट कर श्रीमती जी को बताया तो वे नाराज हो गईं कि मैं अकेला ही ऐसा कैसे कर सकता हूं? अब हम पति-पत्नी, बेटी नम्रता और बहू रिद्धि के साथ एक बार फिर श्री बोहरे जी के निवास पर थे और जब वहां से एम्स के लिए निकले तो सम्मानीय भाभी जी यानी श्रीमती बोहरे भी हमारे साथ थीं।

उस दिन एम्स में हमें बताया गया कि हम दोनों सहित इतने बड़े नगर में अभी तक एम्स भोपाल में मात्र 48 लोगों ने देहदान का संकल्पपत्र भरा है। एक रोचक बात यह भी पता चली कि देहदान करने वालों में मात्र एक ईसाई और बाकी के सारे हिंदू हैं।

मैंने यह कदम किसी तात्कालिक जोश में अचानक नहीं उठाया था। डेढ़ दशक पहले ही मैंने अपने साथियों सुरेंद्र दांगी, यशपाल यादव को अपनी यही अंतिम इच्छा लिख कर यह कहते हुए सौंपी थी कि यदि कभी अचानक मेरी मृत्यु हो जाए तो परिजनों यह दिखा कर वे मेरी अंतिम इच्छा अवश्य पूरी करा दें।

युवा मित्रों,एक तरफ पौराणिक आख्यान है कि आतंक फैला रहे असुर वृत्रासुर को मारने के लिए इंद्र ने संहारक वज्र बनाने के लिए ऋषि दधीचि से उनकी अस्थियां मांग लीं थीं।रोचक वृतांत आगे बताता है कि दधीचि ने इंद्र की इच्छा पूरी करने के लिए अपने प्राण त्याग दिए और इंद्र अस्थियाँ ले जा सके इसलिए उनकी कामधेनु गाय ने उनका शरीर चाट चाट कर अस्थियों से मांस-मज्जा अलग कर दिए।

दूसरी तरफ समाज में यह अंधविश्वास है कि यदि हमने शरीर का कोई भी अंग दान में दे दिया तो अगले जन्म में हम उसके बिना पैदा होंगे। ज्यादातर लोग इस बात में विश्वास करते हैं और अंगदान से बचने की कोशिश करते हैं।

देश में अत्याधुनिक चिकित्सा सभी चाहते हैं लेकिन आत्मा को अजर-अमर मानने और गीता के वचनों में विश्वास रखने वाला समाज का अधिकांश हिस्सा देहदान से डरता है। हालांकि कई नगरों में लोग/संस्थाएं अब देहदान का चलन बढ़ाने के लिए जनजागरण अभियान चला रहे हैं। फिर भी देश में चिकित्सा विज्ञान के अध्ययन के लिए शवों की भारी कमी है।(उसी कमी को दूर करने के लिए मेरा यह विनम्र छोटा सा योगदान था।)

यह मेरा वृतांत अब यह बताए बिना पूरा नहीं हो सकता कि जब हम घर पहुंचे तो क्या हुआ? यह सूचना सुनकर बड़े बेटे अंशुमान ने अपने चाचा देवेंद्र से हां भरवाते हुए मुझ से परिहास में पूछा कि मृत्यु के बाद आपके शरीर का क्या करना है, यह तो हम सब मिल कर निर्णय करेंगे और जरूरी नहीं जो आप चाहते हैं वही हो।

परिहास में ही मेरा जवाब था कि अंतिम इच्छा तो अपराधियों की भी पूरी की जाती है, फिर भी यदि मेरी अंतिम इच्छा अधूरी रह गई तो अनर्थ होगा क्योंकि लोग मानते हैं कि ऐसे मृतक भूत बनते हैं। अतृप्त इच्छा सहित मरने पर मैं सामने के ही इस पीपल पर उलटा लटका अमावस की रात को भूत बना ‘हू हू हू’ किया करूंगा। तुम सबको डरना न पड़े इसलिए अच्छा यही होगा कि मेरे मरते ही तुम देर किए बिना, अपने खर्च से मेरी मृत देह एम्स सौंप आओ।

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