अलविदा फ़हमी बदायूंनी साहब: पूछ लेते वो बस मिज़ाज मिरा, कितना आसान था इलाज मिरा
- टॉक थ्रू टीम
शायरी वो कमाल की है कि सीधे दिल में उतरती है। वैसे ही जैसे दिल से कही जाती है। आम लोगों को यूं लगता है कि वे कह पाते तो बस यही कहते। न एक हर्फ अलग, न कोई भाव ही जुदां होता। उन्हें खूब सुना गया। जितना सुना गया उससे ज्यादा सुनाया गया। कभी अपने हाल बताने के लिए, कभी अपने दिल की कहानी जताने के लिए।
कल तक वे हमारे बीच में थे। आज वे नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मे ज़मां शेर ख़ान उ’र्फ़ पुत्तन ख़ान उर्फ फ़हमी बदायूंनी ने 20 अक्टूबर को अंतिम सांस ली। 72 बरस के शायर कुछ दिनों से बीमार थे। तमाम जिस्मानी परेशानियों से जूझते हुए आखिरकार अपनी गजलों का हाथ हमारे हाथ में थमा कर वे फानी दुनिया को विदा कह गए।
वे उन बाकमाल शायरों में शुमार होते हैं जिन्होंने छोटी बह्र में बड़े शेर कहे। मंच पर वे जिस सादगी से पेश आते थे, शायरी भी उतनी ही सादगी से दिल में उतर जाती है। शायरी की सादगी को उन्हें सुन कर, पढ़ कर जानी जा सकती है और उनके जीवन की सादगी को करीब रह कर महसूस किया जा सकता था। जैसे, कवि-लेखिका मणिका बताती हैं, मैंने फ़हमी साहब को कभी गुस्सा होते नहीं देखा। जहां जैसी व्यवस्था रही ख़ुद को ढाल लेते थे। कानपुर में एक कवि सम्मेलन था। बहुत कम उम्र के लोगों ने मिलकर आयोजन किया था तो बैकस्टेज में बैठने की व्यवस्था में विलंब हुआ। फ़हमी साहब ने एक भी बार किसी से इस विषय में कुछ नहीं कहा। हाथ बांधे, चुप्पी साधे एक कोने में खड़े थे। मैं जैसे ही आई मैंने सबसे इंतज़ाम के लिए कहा और मन ही मन सोचा कि इतना बड़ा शायर और रत्ती भर भी घमंड नहीं, वरना जिस उमर और जिस हुनर के वो व्यक्ति थे यहां तक आते-आते शोहरत सर चढ़ के बोलने लगती है।
उनकी तीन किताबें शाया हुई है। ‘दस्तकें निगाहों की’ और ‘पांचवी सम्त’ के बाद तीसरी किताब ‘हिज्र की दूसरी दवा’ देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है। उनका ताहरूफ करवाते हुए कहा जाता है कि उनकी शायरी में दर्द भी है, तड़प भी और तलब भी। वे अब नहीं है लेकिन उनकी शायरी को उसी शिद्दत से अब भी पढ़ा, सुना और सुनाया जाएगा। फिलवक्त, उनके कुछ बेहद चर्चित शेर:
मुंह में जब तक ज़बान बाक़ी है
आप की दास्तान बाक़ी है।
ले तो सकता हूँ नाम क़ातिल का
मसअला ये है जान बाक़ी है।
ख़ुदा को भूलना आसान है
हमारा मसअला इंसान है।
तिरी आवाज़ धीमी हो रही है
कोई दीवार ऊँची हो रही है।
वो होटल था वहाँ पर कौन कहता
सुनो जी चाय ठंडी हो रही है।
आप देते नहीं सज़ा कोई
किस भरोसे करें ख़ता कोई।
मैंने मस्जिद में जाना छोड़ दिया
रोज़ मिल जाता था ख़ुदा कोई।
छोड़ कर जा रहा हूँ घर लेकिन
मुझ को समझा नहीं रहा कोई।
वो कहाँ है किताब के अन्दर
जो लिखा था निसाब के अन्दर।
आज भाई का फ़ोन आ ही गया
कुछ कमी थी हिसाब के अन्दर।
जो चिड़िया मेरे घर आ जा रही थी
तुम्हारे घर से तिनके ला रही थी।
जिसे बोला था काँटे तोड़ डाले
उसी ने फूल-पत्ते तोड़ डाले।
क़फ़स की तीलियों में चोंच मारी
फिर उस चिड़िया ने अंडे तोड़ डाले।
पहले एहसास में उतार उसे
फिर ख़यालात से गुज़ार उसे।
कोई अच्छी सी जॉब मिल जाती
हम भी करवाते इंतिज़ार उसे।
सब पुराना डिलीट कर देंगे
फिर से लिक्खेंगे एक बार उसे।
मौत की सम्त जान चलती रही
ज़िंदगी की दुकान चलती रही।
सारे किरदार सो गए थक कर
बस तिरी दास्तान चलती रही।
दो ही मौसम थे धूप या बारिश
छतरियों की दुकान चलती रही।
तुझसे बेहतर कोई मिला ही नहीं
कैसे मिलता, कहीं पे था ही नहीं।
तेरे जैसा कोई मिला ही नहीं
कैसे मिलता कहीं पे था ही नहीं।
अदाकारी बहुत दुख दे रही है
मैं सचमुच मुस्कुराना चाहता हूँ।
तेरे बारे में सोचने वाला
अपने बारे में सोचता ही नहीं।
तुम्हें बस ये बताना चाहता हूँ
मैं तुमसे क्या छिपाना चाहता हूँ।
कभी मुझसे भी कोई झूठ बोलो
मैं हाँ में हाँ मिलाना चाहता हूँ।
लिए बैठा हूँ घुंगरू फूल मोती
तेरा हँसना बनाना चाहता हूँ।
कुछ न कुछ बोलते रहो हम से
चुप रहोगे तो लोग सुन लेंगे।
छोड़कर थोड़ी जा रहे हैं मुझे
आप पागल बना रहे हैं मुझे।
जिनको गिनती पढ़ाई थी मैंने
वो पहाड़े पढ़ा रहे हैं मुझे।
ज़रा मोहतात होना चाहिए था
बग़ैर अश्कों के रोना चाहिए था।
अब उन को याद कर के रो रहे हैं
बिछड़ते वक़्त रोना चाहिए था।
मिरी वादा-ख़िलाफ़ी पर वो चुप है
उसे नाराज़ होना चाहिए था।
चला आता यक़ीनन ख़्वाब में वो
हमें कल रात सोना चाहिए था।
सुई धागा मोहब्बत ने दिया था
तो कुछ सीना पिरोना चाहिए था।
हमारा हाल तुम भी पूछते हो
तुम्हें मालूम होना चाहिए था।
वफ़ा मजबूर तुम को कर रही थी
तो फिर मजबूर होना चाहिए था।
नहीं आते हैं हम अपनी समझ में
तो कैसे आएँगे सब की समझ में।
जिसे आता न हो पानी समझ में
उसे क्या आएगी मछली समझ में।
मैं अपने नाम की तख़्ती नहीं हूँ
कि जो आ जाए पढ़ते ही समझ में।
तुम्हें चाँद और तारों की पड़ी है
हमें आती नहीं मिट्टी समझ में।
जो तुम से देर तक बातें करेगा
नहीं आएगा वो जल्दी समझ में।
किसी का आख़िरी ख़त पढ़ लिया है
नहीं आएगा अब कुछ भी समझ में।
वही तो दास्ताँ रहती है ज़िंदा
कि जो आती नहीं पूरी समझ में।
बदल कर रख दिया मंज़र ख़िज़ाँ ने
अभी आई ही थी तितली समझ में।
उस के जैसा कोई मिला ही नहीं
कैसे मिलता कहीं पे था ही नहीं।
घर के मलबे से घर बना ही नहीं
ज़लज़ले का असर गया ही नहीं।
वो जहाँ तक दिखाई देता है
उस के आगे मैं देखता ही नहीं।
अच्छे-अच्छों ने रास्ता माँगा
मैं तिरी राह से हटा ही नहीं।
सारे किरदार हो गए ख़ुद्दार
फिर कहानी में कुछ हुआ ही नहीं।
याद है जो उसी को याद करो
हिज्र की दूसरी दवा ही नहीं।
तेरे बारे में सोचने वाला
अपने बारे में सोचता ही नहीं।
पूछ लेते वो बस मिज़ाज मिरा
कितना आसान था इलाज मिरा।
चारा-गर की नज़र बताती है
हाल अच्छा नहीं है आज मिरा।
मैं तो रहता हूँ दश्त में मसरूफ़
क़ैस करता है काम-काज मिरा।
कोई कासा मदद को भेज अल्लाह
मेरे बस में नहीं है ताज मिरा।
मैं मोहब्बत की बादशाहत हूँ
मुझ पे चलता नहीं है राज मिरा।
जब रेतीले हो जाते हैं
पर्वत टीले हो जाते हैं।
तोड़े जाते हैं जो शीशे
वो नोकीले हो जाते हैं।
बाग़ धुएं में रहता है तो
फल ज़हरीले हो जाते हैं।
नादारी में आग़ोशों के
बंधन ढीले हो जाते हैं।
फूलों को सुर्ख़ी देने में
पत्ते पीले हो जाते हैं।