बाबा जान: एक अनकही कथा

अनुजीत इकबाल, लखनऊ

रहस्य में डूबे कुछ लोग, बाहरी जीवन से परे, अंतस की अनजानी और कठिन राहों के यात्री होते हैं। संसार से दूर, प्रेम और शांति की मौन गहराई में लीन, वो अपनी लीला करने कुछ समय पृथ्वी पर आते हैं और मौन की भाषा में अनकहे रहस्यों को यूं प्रकट करते हैं, जैसे पहाड़ पर उतरती है धुंध…। उनका जीवन उस अनंत की ओर संकेत करता है, जो भीतर छिपा है। ऐसी ही थीं हमारी बाबा जान।

शीतल और असीम आकाश के नीचे, वह पुण्य क्षण आया जब बाबा जान, एक सुंदर गुलाब की छवि की तरह धरा पर प्रकट हुईं, जिनका नाम रखा गया, ‘गुलरुख’ यानि संपूर्ण सुगंध और माधुर्य की प्रतिमूर्ति। यह जन्म किस वर्ष हुआ, इस पर विद्वानों ने अपने अपने वाद-विवाद किए हैं। कोई इसे 1790 का स्वर्णिम समय कहता है, तो कोई 1820 की सांध्यबेला। परंतु जो अटल सत्य है, वह यह कि बाबा जान का प्राकट्य राजसी धारा में हुआ अर्थात् वह राजसी घराने से संबंधित थीं, जहां उनके रक्त में वह दिव्यता प्रवाहित थी, जो केवल भौतिक सत्ता से परे, आत्मिक सम्राज्य की होती है।

गुलरुख के नयन-नीरव संसार में ज्ञान के पुष्पों ने अति शीघ्र ही खिलना आरंभ किया। एक छोटी आयु में ही उन्होंने क़ुरान के समस्त श्लोकों को अपने हृदय की वेदियों पर संजो लिया, और इस प्रकार वे हाफ़िज़ा के नाम से प्रतिष्ठित हुईं। उनके ज्ञान की यह गाथा केवल धार्मिक ग्रंथों तक सीमित न रही, उन्होंने अरबी की गूढ़ व्याकरण, फ़ारसी की सजीव अभिव्यक्ति, उर्दू की कोमलता और पश्तो की जड़ता, सभी को आत्मसात कर लिया। इस ज्ञान के विशालतम समुद्र में वे अनवरत तैरती रहीं, मानो वह गुलाब की पंखुड़ियों पर टिकी हुई जल की बूंद हो, जो अपनी गहराई में संपूर्ण ब्रह्मांड को समेटे हुए हो।

शाही कुल और खानदान की जो महिमा उनके शरीर से बंधी थी, वह अल्प थी, परंतु उनकी आत्मिक रजत महत्ता का प्रकाश उस काल से कहीं दूर, अनंत लोकों तक फैल गया था।

शैशवकाल की मृदु बेला से ही बाबा जान का अंतर्मन अनादि मौन की लहरों में डूबा रहा। उनके हृदय की धड़कनें प्रार्थना के स्वर में बिंधतीं और ध्यान की गहराइयों में उतरकर अनाहत नाद का स्पर्श करतीं। जैसे-जैसे उनकी आयु बढ़ने लगी, उनके आगत की फिक्र में, आयु के चौदह से अठारह बसंतों के बीच, उनके माता-पिता ने उनके परिणय के लिए ताना-बाना बुनना आरंभ किया। परंतु बाबा जान के जीवन की की पगडंडियां किसी और दिशा की ओर मुड़ी थीं। वह दिशा, जहां सांसारिक बंधनों की छाया भी नहीं पहुंच सकती थी।

और फिर वह दिन आया जब विवाह के बंधन का प्रयास उनके समक्ष आया। जिस दिन यह सांसारिक बंधन उन्हें जकड़ने वाला था, उसी दिन उनकी आत्मा ने स्वाधीनता का उद्घोष किया। वह नवयौवन के संकल्प से, निस्तब्धता की शपथ लेकर, जीवन के इस स्थूलतम आवरण को छोड़, चिरमुक्ति की ओर चल पड़ीं। गुप्त रूप से, बिना किसी को बताए, उन्होंने अपने आभ्यंतर की पुकार का अनुसरण किया और सर्वप्रथम पेशावर के शांत प्रांगण में अपने पैर रखे। वहां की मिट्टी ने उनके कदमों का आलिंगन किया। यह तो बस आरंभ था। उनका पथ रुकने का नहीं था, वह रावलपिंडी की ओर अग्रसर हुआ, जो उस कालखंड में भारत की पवित्र भूमि का एक अंश था।

उनकी यात्रा मात्र भौगोलिक स्थानांतरण नहीं थी, बल्कि वह आत्मा की उस उन्नति की यात्रा थी, जहां सारे संसार के बंधन शिथिल पड़ जाते हैं और एकाकी आत्मा अपनी निरंतर धारा में विलीन हो जाती है।

कल्पना कीजिए, उस किशोरी की, जो कुलीनता के महलों में जन्मी, किंतु जिसकी आत्मा अनंत आकाश की ओर देख रही थी। वह किशोरी, जो पर्दे के कठोर नियमों में जकड़ी रही, जहां प्रकाश भी सीमित था और स्वप्न भी नियंत्रित। उसके हृदय की लहरों में कुछ और ही तत्‍वों का स्पंदन था, वह तरंगित थीं, उन दिशाओं की ओर, जहां जीवन का परम सत्य मौन और साधना में छिपा था। वह अपने कोमल कदमों से उस पथ पर अग्रसर हुई, जो अज्ञात और भयावह था, फिर भी उसके भीतर एक अलौकिक साहस का जन्म हो चुका था, जो किसी बाहरी आवरण से परे था।

उस समय का युग हिंसा और संघर्ष से आच्छादित था। युद्ध के बादलों की गर्जना और डाकुओं के आतंक की छाया हर दिशा में मंडराती थी। परंतु, इस नवयौवना के कदम कभी न डिगे। वह पुरुष-प्रधान जगत के अंधकार में भी अपने अंतर-दीप के प्रकाश से राह ढूंढती रही। प्रत्येक कदम मानो उसे और निकट ले जाता उस दिव्य कृपा की ओर, जो साक्षात् ईश्वर का संरक्षण था।
यह यात्रा केवल भूगोल में नहीं, बल्कि आत्मा के उन अज्ञेय प्रदेशों में थी, जहां ईश्वर की अदृश्य उंगलियां उसके मार्ग को संवारतीं। भारत की उस पावन भूमि तक उसकी निर्बाध यात्रा एक चमत्कार थी। दैवीय आशीर्वाद का प्रतीक, जो यह दर्शाता है कि जब कोई आत्मा अपने सत्य की खोज में निकल पड़ती है, तब स्वयं ईश्वर उसके साथ हो जाते हैं, हर विपदा को उसके पथ से हटा देते हैं। निस्संदेह, उस समय गुलरुख अकेली नहीं थीं, उनके साथ स्वयं ईश्वर चल रहे थे, पग-पग पर, एक अदृश्य, अमिट साया बनकर।

दीर्घकाल तक बाबा जान अपनी अंतरात्मा की गहराइयों में डूबी रहीं, जैसे समुद्र का जल अपने अनंत गर्भ में गोते लगाता है। उनकी साधनाओं का वह काल सघन तपस्या और मौन में व्यतीत होता रहा, जब एक दिन भाग्य ने उन्हें एक दिव्य हिंदू संत से मिलवाया। उस संत की दृष्टि मानो अग्नि हो, जिसने बाबा जान के भीतर के सत्य को और भी प्रज्वलित कर दिया। उन संत ने अपने आध्यात्मिक अनुभवों की पवित्र धारा से उन्हें सराबोर किया, और बाबा जान को विधिवत् उन गूढ़ अभ्यासों में प्रवृत्त किया, जो आत्मा को परम के समीप ले जाते हैं।

इस गुरुमंत्र के पश्चात्, बाबा जान ने संसार की धूल को त्याग दिया और एकांतवास की ओर प्रस्थान किया। रावलपिंडी की बाहरी सीमाओं पर स्थित एक शांत पर्वत उनका आश्रय बना, जहां वे सत्रह महीनों तक समर्पित साधना में लीन रहीं। वह पर्वत, जो बाहरी दृष्टि में केवल एक स्थूल चट्टान था, बाबा जान के लिए दिव्यता का शिखर बन गया। वहां की शीतल वायु में तपस्या की अग्नि प्रज्वलित हुई, और वे अपने आंतरिक संतुलन के अमृत को साधती रहीं।

उनकी साधना का यह कालखंड मानो एक अनसुनी गाथा था। हिंदू संत द्वारा सिखाए गए अभ्यास उनके भीतर एक नई ऊर्जा बनकर जीवित हो उठे, और बाबा जान ने उन सत्रह महीनों में अपने आत्मिक आवरण को इस भौतिक जगत से विलग कर, उसे परम तत्व में विलीन कर दिया।

सत्रह महीनों के गहन एकांतवास के पश्चात्, जब बाबा जान अपने तपस्या से परिपूर्ण होकर लौटीं तो उन्होंने कुछ समय के लिए मुल्तान की धरा पर विश्राम किया। उसी धरती पर, भाग्य की एक और अज्ञात धारा ने बाबा जान को एक मस्त-फकीर मुस्लिम संत से मिलवाया। वह संत, मानो किसी अनंत अनुग्रह का सजीव रूप थे, जिन्होंने सत्ताईस वर्षीय गुलरुख पर अपनी दृष्टि डाली और उनके हृदय में परमात्मा का आशीर्वाद प्रवाहित कर दिया। उस क्षण, बाबा जान को परम सत्य का साक्षात्कार प्राप्त हुआ, एक दिव्य अनुभूति, जो शब्दों की सीमाओं से परे थी।

यह घटना न केवल बाबा जान के लिए, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि के लिए भी एक महत्वपूर्ण घटना थी। यदि कोई साधक परमात्मा की प्राप्ति के पश्चात् सामान्य चेतना में लौटने में असमर्थ होता है, तो वह दिव्यता केवल उसी तक सीमित रह जाती है। लेकिन बाबा जान के साथ यह चमत्कार हुआ, उनकी चेतना अब मानवता के साथ संयुक्त हो गई, और इसी सम्मिलन ने उन्हें उस दिव्य प्रकाश का वाहक बना दिया, जो समस्त सृष्टि में वितरित हो सकता था। यह मानो वह अदृश्य दीप था, जो केवल स्वयं के लिए नहीं, अपितु अनगिनत आत्माओं के लिए प्रकाश का स्रोत बना।

विद्वानों के अंतर्मन में एक विचित्र संशय व्याप्त है। यह संशय उस समय-रेखा का है, जब बाबा जान ने अपने दिव्य मार्गदर्शक हिंदू संत से प्रथम भेंट की। काल की इस धुंधली रेखा पर अनेक मतावलंबियों की भिन्न-भिन्न दृष्टियां हैं, जैसे किसी शांत झील में कंकड़ फेंके जाने पर उठते विचारों के भंवर। कुछ कहते हैं कि अफगानिस्तान की पवित्र भूमि से विदा लिए हुए लगभग दो दशक बीत चुके थे, जब बाबा जान ने इस अद्वितीय संत से साक्षात्कार किया। उनके अनुसार, वह समय था जब बाबा जान जीवन के पचासवें वर्ष में प्रविष्ट हो चुकी थीं। एक ऐसा समय, जब जीवन अपने शिखर की ओर बढ़ता है और आत्मा अपनी पूर्णता की खोज में और भी गहन हो जाती है।

परंतु अन्य जीवनीकार इस गाथा को और अधिक धैर्य से देखते हैं। वे कहते हैं कि जब बाबा जान ने परमात्मा के उस अनंत स्वरूप का स्पर्श किया, तब उनका शरीर साठ से पैंसठ बसंत देख चुका था। उनके अनुसार, यह वह अवस्था थी, जब बाबा जान ने अपने जीवन की समस्त यात्राओं और तपस्याओं का सार आत्मसात कर, पूर्णता की उस अवस्था में प्रवेश किया, जहां आत्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं।

यह असमंजस कोई साधारण भ्रांति नहीं, अपितु उस दिव्य यात्रा का प्रतिबिंब है, जो काल से परे है। समय की सीमाएं उन पराधीन आत्माओं के लिए महत्वपूर्ण होती हैं, जिनका अस्तित्व केवल भौतिक शरीर तक सीमित है। किंतु बाबा जान के जीवन में, वह समय एक धुंधला सा आभास मात्र था। दिव्यता के मार्ग पर चलते हुए उनका हर कदम अनंत काल की यात्रा का एक अंश था।

बाबा जान की दिव्य यात्रा, समय और स्थान के सीमाओं को पार करती हुई, अब इराक, सीरिया, बगदाद और लेबनान की धरा पर विस्तार पाने लगी। कहा जाता है कि इस अनंत साधिका ने मक्का की उस तीर्थभूमि का भी दर्शन किया, जहां से इस्लाम की पवित्र ज्योति फैलती है। किंतु वह यात्रा असामान्य थी। बाबा जान ने पुरुष का भेष धारण किया, अफगानिस्तान, ईरान और तुर्की के अनजान पथों से गुजरते हुए, अंततः अरब की रेतीली भूमि में प्रवेश किया। मक्का की पवित्र माटी पर जब बाबा गईं, तो उनका हृदय पांच बार की अनिवार्य प्रार्थनाओं के साथ अनुग्रहीत हुआ।

मदीना की पवित्र भूमि पर, जहां पैगंबर मोहम्मद की दरगाह है, वहां भी उन्होंने आशीर्वाद प्राप्त किया। इस यात्रा के दौरान, बाबा जान न केवल आत्मा की तपस्या में लीन रहीं, बल्कि उन्होंने अपने करुणामय हृदय से जरूरतमंदों, भूख से पीड़ितों और बीमार तीर्थयात्रियों की देखभाल भी की। यह उनका सजीव आत्मिक प्रेम था, जो हर जीव के प्रति, हर क्षण बहता रहा, जैसे गंगा की अविरल धारा।

फिर, वह काल आया जब बाबा जान भारत लौट आईं, और उनकी यात्रा नासिक तक पहुंची। वहां पंचवटी की शीतल छांव में उन्होंने दीर्घकाल तक निवास किया, मानो वहां के वृक्ष, पत्ते और हवाएं उनके ध्यान की साक्षी बन रहे थे। पंचवटी की उस बेला के बाद, उन्होंने बंबई को अपनी उपस्थिति से पवित्र किया।

उत्तर भारत की पावन धरा पर जब बाबा जान ने अपने चरण रखे तो समय ने उनके जीवन को संतत्व की धारा में प्रवाहित होते देखा। धीरे-धीरे, वह वह संत के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं, लेकिन उनकी राह सरल नहीं थी। बाबा जान, जिन्होंने न इस्लाम के नियमों की बेड़ियां पहनीं, न सूफी मत के अनुशासन का लिबास ओढ़ा, अपनी आत्मा के एकमात्र पथ ‘एकता’ पर अग्रसर थीं। वह उस परमात्मा की साधिका थीं, जो किसी धर्म, संप्रदाय या समूह से परे था। यह निर्विकार स्त्री, जो दिव्यता की जीती-जागती मूर्ति बन चुकी थीं, अपने भीतर उस अनंत सत्य को लेकर चलती थीं, जो सभी सीमाओं से परे था।

बाबा जान की यह स्वतंत्रता और अद्वितीयता, उनके यश और प्रेम ने परंपरागत धार्मिक समूहों और उनके अहंकारी नेताओं के भीतर एक भय उत्पन्न कर दिया। यह छोटी सी स्त्री, जो जनता की प्रिय और पूजनीय बन चुकी थी, उनके लिए सत्ता और अहंकार की चुनौती बन गई। बाबा जान किसी भी धार्मिक संप्रदाय की सदस्य नहीं थीं, न वे सूफियों की चिश्ती परंपरा से बंधी थीं। वे तो केवल उस एक परमात्मा की थीं। उनकी हर श्वांस, हर धड़कन उसी के प्रति समर्पित थी और ठीक वैसे ही, जैसे शिरडी के साईं बाबा फकीरों के साथ चलते थे, बाबा जान ने भी फकीरी की राह को अपना लिया था।

उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण क्षण तब आया, जब वे एक दिन परमात्मा के साक्षात्कार में विलीन थीं, उनके भीतर एकता और आध्यात्मिक नशा अपनी चरम अवस्था में था, और तभी उन्हें पुणे की यात्रा करनी पड़ी। उस समय, वे ‘अना’ल-हक़’ (मैं सत्य हूँ) जैसी गूढ़ और शक्तिशाली वाणी कहतीं, जिसने मुस्लिम समुदाय में हलचल मचा दी थी। उनकी यह दिव्य उक्ति उन सीमित दृष्टि वालों के लिए असहनीय हो उठी, जो सत्य के विस्तार को नहीं समझ पाए।

एक दिन, कट्टरपंथी बलूच सैनिकों ने, जो एक स्थानीय सैन्य रेजिमेंट के सदस्य थे, अपनी धार्मिक कट्टरता में अंधे होकर बाबा जान को जीवित ही जमीन में दफन कर दिया। किंतु सत्य का दीपक मिट्टी में नहीं बुझता। वर्षों बाद, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, यही बलूच रेजिमेंट पुणे स्थानांतरित की गई। पुणे की चार बावड़ी के पास, नीम के पेड़ की शीतल छांव में, वही सैनिक फिर बाबा जान को बैठे हुए देखकर स्तब्ध रह गए।

वह दृश्य किसी चमत्कार से कम नहीं था। जो कट्टरपंथ कभी उन्हें मिटाने पर तुला था, अब वही भक्ति में परिवर्तित हो चुका था। इन सैनिकों का हृदय परिवर्तित हो गया था, और जब तक रेजिमेंट पुणे में तैनात रही, वे बाबा जान के चरणों में सम्मान अर्पित करने आते रहे। यह एक दिव्य कथा थी, जो न केवल बाबा जान के जीवन की शक्ति को दर्शाती थी, बल्कि उस अनंत सत्य की विजय को भी, जो किसी भी सीमा या संकीर्ण विचारधारा से परे है।

बाबा जान की दिव्य गाथा अब उस मोड़ पर पहुंची, जब बलूच रेजिमेंट, जो कभी उनके विरोध में खड़ी थी, अब उनके कदमों की प्रहरी बन गई। यह वही सैनिक थे, जिन्होंने सत्य से आंखें मूंद ली थीं, परंतु अब वही सैनिक उनकी दिव्य आभा के नीचे समर्पित हो चुके थे। जब बाबा जान ने इस अद्वितीय कथा का रहस्योद्घाटन किया, तब समस्त संसार ने उन्हें हज़रत बाबा जान के नाम से पूजना आरंभ कर दिया।

उनकी जीवन-यात्रा का एक और प्रमुख मोड़ तब आया, जब उन्होंने नागपुर के महान संत, हज़रत ताजुद्दीन बाबा से साक्षात्कार किया। बाबा ताजुद्दीन, जो एक पूर्ण गुरु और एक आध्यात्मिक शक्ति केंद्र थे, एकता के पथ पर चलने वाले संत थे। यह वह क्षण था, जब दो दिव्य आत्माओं का मिलन हुआ। माना जाता है कि बाबा ताजुद्दीन ने ही बाबा जान को पुणे की ओर प्रस्थान करने का निर्देश दिया।

अंततः, वर्ष 1905 में बाबा जान पुणे आ गईं। उनके आगमन के समय तक, शोधकर्ताओं के अनुसार, उनकी आयु या तो पचासी बसंत पार कर चुकी थी, या सौ से भी अधिक, यह उस पर निर्भर करता है कि किसने उनके जन्म वर्ष को किस दृष्टिकोण से लिया। काल उनकी आयु का कोई ठोस निर्धारण न कर सका, क्योंकि बाबा जान अब उस अनंत सत्य की मूर्ति बन चुकी थीं, जिसे समय के बंधन नहीं जकड़ सकते थे। उनके जीवन की यह कथा न केवल उनकी शारीरिक यात्रा की, अपितु उस आत्मिक विस्तार की थी, जो समय और स्थान से परे, परमात्मा की असीम अनुकंपा से पोषित हो रही थी।

बाबा जान का जीवन, जो संसार की समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं से विलग था, एक साधारण और फकीरी के मार्ग पर प्रवाहित हुआ। उन्होंने उन क्षणभंगुर आरामों की कभी कोई परवाह नहीं की, जिनके पीछे मानवता भागती है। उनके भक्त और शिष्य, जो अनगिनत संख्या में उनके चारों ओर एकत्र होते थे, उनकी इस स्थिति से कभी-कभी गहन पीड़ा और चिंता का अनुभव करते थे। बाबा जान की पुणे यात्रा के आरंभिक दिन, पंच पीर के मजार के पास, डिघी की निर्जन भूमि पर व्यतीत हुए। वह स्थान चींटियों से भरा रहता था, जैसे प्रकृति ने अपनी समस्त क्षुद्र संतानों को उस पवित्र देह का स्पर्श करने भेजा हो। उन असंख्य चींटियों ने बाबा जान को डसते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, मानो उनके तप को और गहरा बनाने का यत्न कर रही हों।

साधारण मानव-हृदय उस तपस्या की कठिनाई को देखकर विचलित हो उठता था। एक भक्त, जो उनकी असहनीय पीड़ा से व्याकुल हो उठा, दिन-रात के अथक प्रयासों के बाद बाबा जान को अपने घर ले जाने में सफल हो गया। उसने और उसके परिवार ने उस स्थान को चींटियों से मुक्त करने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दी, किंतु बाबा जान की आत्मा उस देह की सीमाओं से परे थी। वे एक सच्चे फकीर के रूप में इस धरती पर विचरण करती थीं। उनकी साधना और एकता की अनुभूति ने उनके लिए भौतिक कष्टों को नगण्य बना दिया था। शरीर और उसके कष्ट उनके लिए अर्थहीन थे क्योंकि वे परमात्मा में इस प्रकार लीन हो चुकी थीं, जैसे देह का कोई मूल्य ही न हो।

शुरुआती दिनों में, जब बलूच सैनिक पुणे नहीं पहुंचे थे और उनकी अद्भुत कथा का रहस्योद्घाटन नहीं हुआ था, भक्त उन्हें ‘अम्मा साहब’ कहकर संबोधित करते थे। किंतु बाबा जान को ‘माई’, ‘मां’ या ‘महिला’ कहे जाने पर गहरी अप्रसन्नता होती थी। वे प्रबल क्रोध में आ जातीं और कहतीं, ‘मैं एक आदमी हूं।’ यह कोई साधारण बात नहीं थी, अपितु उनके अस्तित्व के गूढ़ सत्य की उद्घोषणा थी। पैगंबर मोहम्मद का वह प्राचीन कथन, जिसे बाबा जान ने अपने जीवन का सत्य बना लिया था, इसका आधार था—‘ईश्वर के प्रेमी पुरुष होते हैं, स्वर्ग के प्रेमी नपुंसक होते हैं, और दुनिया के प्रेमी महिलाएं होती हैं।’

इस प्रकार, उनका ‘अम्मा साहब’ कहलाना भी एक गहरे आध्यात्मिक अर्थ को धारण करता था। उनका अस्तित्व, उस एकता के महासागर में विलीन हो चुका था, जहां न स्त्री थी, न पुरुष, केवल ईश्वर के प्रेम की अनंत धारा थी।

बाबा जान ने फिर बुखारी शाह मस्जिद के समीप एक नीम के पेड़ के नीचे, सड़क के किनारे निवास करना प्रारंभ किया। भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ती गई, और अंततः उन्होंने बाबा जान से निवेदन किया कि वे ऐसा स्थान चुनें, जहां वह अधिक आराम से निवास कर सकें। बाबा जान ने तब तक इनकार किया, जब तक एक पीपल का पेड़ सड़क चौड़ीकरण के लिए काटा नहीं गया। इसके बाद, बाबा जान ने चार बावड़ी में स्थित एक नीम के पेड़ के नीचे अपना निवास स्थान चुना, यह स्थान मच्छरों और गंदगी से भरा हुआ था। किंतु, एक दशक के भीतर, यही स्थान आध्यात्मिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया और पूरे भारत से भक्तों और शिष्यों के लिए एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में उभरा।

उनकी गहरी और प्रभावशाली आवाज ने उनके व्यक्तित्व को एक अद्वितीय और अलौकिक आभा प्रदान की। उनका वस्त्र सरल था- एक लंबा एप्रन, जो घुटनों से नीचे तक बढ़ा हुआ था, एक संकरा पजामा और स्कार्फ।

बाबा जान, जैसे कि अधिकांश असाधारण गुरु होते हैं, वे फारसी, उर्दू और पश्तो में बातचीत करती थीं। उनके पास गालियों का एक विशाल शब्दकोष था, जो उनकी अद्वितीयता और व्यक्तित्व को और भी स्पष्ट करता था।

1913 तक, बाबा जान पुणे और आसपास के नगरों में पहले से ही श्रद्धा और सम्मान की पात्र बन चुकी थीं। उसी वर्ष, बाबा जान और मेहर बाबा, जो उस समय मेरवान के नाम से प्रसिद्ध थे, की भेंट हुई। बाबा जान ने मेहर बाबा को गाल पर चुंबन दिया और स्नेहपूर्वक उन्हें हिंदी में ‘मेरे प्यारे बेटे’ के रूप में संबोधित किया। जनवरी 1914 की एक रात, बाबा जान ने मेहर बाबा को माथे पर चुंबन दिया और सभी को बताया, “यह मेरे प्यारे बेटे हैं… ये दुनिया को हिला देंगे और सम्पूर्ण मानवता को इसका लाभ होगा।” इसी महीने और वर्ष में, बाबा जान ने पुनः मेहर बाबा को माथे पर चुंबन दिया और मेरवान ने द्वैत के सम्पूर्ण ज्ञान को खो दिया और परमात्मा की प्राप्ति की।

अवतार मेहर बाबा के शब्दों में, “जब पांच पूर्ण गुरुओं ने मुझे पृथ्वी पर भेजा, उन्होंने मेरे ऊपर एक पर्दा डाल दिया। हज़रत बाबा जान उन पूर्ण गुरुओं में से एक थीं, और उन्होंने मुझे मेरे वर्तमान रूप में उद्घाटित किया। मेरे माथे पर, भौंहों के बीच एक चुंबन के साथ, बाबा जान ने मुझे अवर्णनीय आनंद का अनुभव कराया जो लगभग नौ महीनों तक बना रहा। फिर एक रात उन्होंने मुझे एक क्षण में भगवान-प्राप्ति का अनंत आनंद अनुभव कराया। उस समय बाबा जान ने मुझे मेरी स्वयं की वास्तविकता का निर्विकल्प अनुभव दिया, जिससे मुझे भौतिक, सूक्ष्म और मानसिक शरीर, मस्तिष्क, संसार, और सभी वस्तुएँ, एक भ्रम के रूप में भी अस्तित्वहीन प्रतीत होने लगीं। तब मैंने देखा कि केवल मैं (उच्चतम आत्मा के रूप में), और कुछ भी नहीं, अस्तित्व में है। मेरी आत्म-प्राप्ति का अनंत आनंद था, है, और हमेशा रहेगा। इस समय मैं अनंत आनंद के साथ-साथ अनंत दुख का भी अनुभव करता हूँ। जब मैं शरीर छोड़ दूंगा, तो केवल आनंद ही रहेगा।”

बाबा जान को चाय बहुत प्रिय थी और वे सब कुछ अपने भक्तों के साथ साझा करती थीं। कव्वाली सुनना भी उन्हें विशेष रूप से पसंद था। वे कम बोलती थीं और जब बोलती थीं तो उनकी आवाज नरम होती थी। वे सभी की बातें ध्यानपूर्वक सुनती थीं और अक्सर सिर हिला कर प्रतिक्रिया देती थीं। बाबा जान बीमारियों का उपचार करती थीं। बाबा जान ने अपनी सभी मामूली संपत्तियों को या तो दान कर दिया या चुराने दिया। एक रात, जब एक चोर ने एक महंगी शॉल चुराने की कोशिश की, जो एक भक्त ने उपहार में दी थी, चोर को कठिनाई का सामना करना पड़ा, क्योंकि शॉल का एक हिस्सा बाबा जान के शरीर के नीचे पकड़ा हुआ था। अतः बाबा जान ने अपनी पीठ ऊंची कर दी ताकि शॉल को आसानी से चुराया जा सके। एक बार किसी ने बाबा जान को दो सोने की चूड़ियां उपहार में दी थीं और एक चोर ने इतनी बुरी तरह से चूड़ियां खींची कि उनकी कलाई से खून बहने लगा, लेकिन बाबा जान को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वास्तव में, उन्होंने चोर को पकड़ने की अनुमति नहीं दी और पुलिस से कहा कि उन लोगों को हिरासत में लें जिन्होंने दो चूड़ियों को लेकर हंगामा मचाया था।

बाबा जान ने पुणे में अपने शारीरिक अस्तित्व को लगभग तीन दशकों या उससे भी अधिक समय तक कायम रखा। वे निरंतर नीम के पेड़ के नीचे निवास करती रहीं, भक्तों के मध्य इस पर विवाद छिड़ गया कि आत्मा के शरीर को छोड़ देने पर उनके शरीर को कहां दफनाया जाएगा। इस विवाद की उन्हें कोई परवाह नहीं थी। भक्तों को चिंताओं ने घेर लिया कि कैंटोनमेंट बोर्ड, जो सेना द्वारा प्रबंधित था, कभी भी सड़क के बीच में, उन के लिए दरगाह बनाने की अनुमति नहीं देगा। बाबा जान को इस उच्चस्तरीय नाटक के बारे में सूचित किया गया। कुछ चयनित गालियों के बाद, उन्होंने कहा, “यहां से चले जाओ। मरे हुए लोग जीवित लोगों की चिंता कैसे कर सकते हैं? मैं इस स्थान को छोड़ने वाली नहीं हूं।”

अंततः, उन्होंने स्थान नहीं छोड़ा। आज भी बाबा जान की दरगाह नीम के पेड़ के नीचे ही है। जब वे शरीर में थीं, तब उनके लिए पेड़ से कुछ फीट दूर एक अच्छा कमरा बनवाया गया। प्रारंभ में, ब्रिटिश चाहते थे कि बाबा जान को उस क्षेत्र से हटा दिया जाए लेकिन सार्वजनिक भावनाओं और बलूच गार्डों को देखते हुए, ब्रिटिशों ने नरमी बरती। उन्होंने निवास स्थान बनवाया। सभी अधिकारी नए निवास स्थान का उद्घाटन करने आए थे। बाबा जान ने हटने से मना कर दिया, कारण था कि नीम का पेड़ आंतरिक सजावट योजना का हिस्सा नहीं था। अंततः अधिकारियों को ऐसा करना पड़ा कि कमरे का विस्तार इस प्रकार किया जाए कि पेड़ भी नए निवास स्थान का हिस्सा बन सके।

एक बार फिर, बाबा जान ने मानव-निर्मित नियमों की परवाह नहीं की। उन्होंने कभी भी धार्मिक पूजा या आध्यात्मिक नियमों की परवाह नहीं की और न ही ब्रिटिशों, सेना या किसी अन्य के। उन्होंने अपने जीवन को केवल आह्वान पर व्यतीत किया, घर छोड़ने से लेकर शारीरिक शरीर छोड़ने तक, अपने भीतर की दिव्यता और सत्य की पूर्ति में पूर्ण समर्पित रहीं।

…. और अंततः, 21 सितंबर 1931 को परम में विलीन हो गईं।

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