पिता के बिना एक वर्ष: केवल शरीर से विदा होता है, जीवन समाप्त नहीं होता
अनुजीत इकबाल, लखनऊ
एक साल पहले आज ही के दिन उस वृक्ष का अंतिम पत्ता भी गिर गया था जिसकी छांव में मैं रहती थी। पिता का चले जाना, जीवन की क्रूरतम घटनाओं में से एक है। लेकिन, उससे भी बड़ा हादसा यह कि ‘Life goes on… एक साल में, मैं हंसी, रोई, नाची,पेंटिंग्स बनाईं, कविता लिखी, संगीत सुना सब किया, कौन कहता है कि जीवन रुक जाता है, सब से प्रिय व्यक्ति के जाने के बाद! नहीं, कुछ नहीं रुकता। जीवन आगे बढ़ता रहता है।
अताउल्लाह खान को गाते हुए सुनती हूं तो पिता याद आते हैं। फिर आबिदा के सूफी कलाम और पंडित जसराज के राग सुनती हूं तो पिता जीवंत हो जाते हैं। सब कलाकारों, सूफियों, अवधूतों से मेरी पहचान करवाने वाले वही थे। बाबा नानक की यात्राएं, बुद्ध का ध्यान, मीरा के नाच, कबीर के शब्द, गुरु गोबिंद सिंह की बहादुरी और प्रेम, ओशो की एक स्वतंत्र सोच…। क्या, क्या बताऊं जो उन्होंने मुझे दिया…। सब कुछ उन्हीं की देन।
अंततः एक दिन हंस जग दर्शन मेला करके अपने देश चला गया।
मैंने अंतिम बार जब पिता को देखा तो उनका शरीर पांच तत्वों में मिल रहा था। वो हाथ, जिसको पकड़ कर मैंने दुःसाध्य जीवन यात्राएं की, वो अब अग्नि की लपटों में नजर आ रहा था।
उस दिन यह अहसास हुआ कि जाने वाला कहीं नहीं जाता। जिन तत्वों से उसका शरीर बना होता है उन्हीं तत्वों को वापस कर रहा होता है। श्मशान वो स्थान था जिसके जिक्र से ही मुझे अजीब सी बेचैनी होती थी लेकिन जब पिता को वहां खुद छोड़ कर आई, उस स्थान को सबसे पवित्र मानने लग गई हूं। अब डर नहीं लगता।
उस दिन के बाद से मुझे प्रकृति से प्रेम हो गया था क्योंकि पिता इन्हीं में समा गए थे। आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु सब में अब वो नजर आते हैं। चिता से उठता धुआं वायु के रथ पर सवार आकाश की ओर जा रहा था। अग्नि शरीर का शुद्धिकरण कर रही थी। जब पंच तत्वों में देह मिल गई तो पृथ्वी का अंश बन गई और अस्थियों को सतलुज, ब्यास के संगम स्थल में जल में विसर्जित कर दिया। सारी प्रकृति में पिता मिल चुके थे। यह बात तो थी देह के स्तर की लेकिन अंदर जो पंछी रहता है वो सीधे उड़ जाता है अपने शाश्वत घर में, जहां मेरे पिता के सर्वोच्च पिता बादशाह दरवेश का निवास है। एक वर्ष में यह जान पाई कि जीवन समाप्त नहीं होता, केवल शरीर से विदा होता है। लेकिन विदाई को हम मृत्यु कहने लगते हैं, पता नहीं क्यों।
ओशो कहते हैं कि मृत्यु असंभव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असंभव घटना है, जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं। लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है। यह मृत्यु हमें मालूम पड़ती है, क्योंकि हम जानते नहीं हैं। हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता, वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है।
इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है और जिस दिन हम जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है। कहीं थी ही नहीं कभी। अमृत ही, अमृतत्व ही शेष रह जाता है, immorality ही शेष रह जाती है। बटन दबाई हमने, बिजली का बल्ब बुझ गया। जो नहीं जानता, वह कहेगा, बिजली मर गई। जो जानता है, वह कहेगा, बिजली अभिव्यक्त थी, अब अप्रकट हो गई। प्रकट थी, अप्रकट हो गई। मर नहीं गई। फिर बटन दबेगा, बिजली फिर वापस लौट आएगी। फिर बटन दबाएंगे, बिजली फिर भीतर तिरोहित हो जाएगी।
मृत्यु को समझने के लिए जो सहायता ओशो और बाबा कबीर ने मेरी की वो शायद कोई न कर पाता। कबीर तो मृत्यु का गुणगान करते रहे जीवन भर। बार-बार याद दिलाते रहे। उनके गाये शब्द मैं भी दिन रात गाती रही और गूढ़ रहस्यों को समझने की कोशिश करती रही।
एक बार अशेष कह रहे थे कि यह जीवन दुर्लभ और बहुत सुंदर है। जैसे ही इस बात को जान लिया जाता है, लाने-ले जाने वाली मृत्यु भी बहुत सुंदर हो उठती है, सदा की दोस्त है, सहायक है…यह जितनी बार मनुष्य को ले जाती है। उतनी ही बार वापस ले भी आती है।
वह आने-जाने का द्वार है… हर बार….
जब कोई प्रेम की गहराई में उतरता है तो उसका समूचा अस्तित्व समर्पित हो उठता है उस सूक्ष्मतर को जिसे कोई स्पर्श नहीं कर सकता। हम अनूभूत करते है उसे प्रतिक्षण अपने प्राणों में, अपने होने में, प्रकृति के एक-एक नाद में और फिर हम वही हुए जाते हैं… जैसे, अनुजीत इकबाल अब केवल ‘इकबाल’ है।
माता-पिता जीवन भर सिखाते रहते हैं लेकिन मैंने अब जाना कि वह जाते-जाते भी जीवन का अमूल्य पाठ और वास्तविकता भी सीखा जाते हैं। आज पिता जी को गए कितने साल हो गए हैं लेकिन इन सालों में वो मुझे ऐसा ज्ञान दे गए, जिसके लिए सारे संसार के धर्मग्रंथ और भाषाएं भी कम पड़ जाएं। मेरा उनसे रिश्ता संसार की दृष्टि में पिता-बेटी का था लेकिन मैं सदैव उनको अपना गुरु मानती थी, जो रिश्ता अमीर खुसरो और निज़ामुद्दीन औलिया और बुल्ले शाह का अपने मुरशद के साथ था। वजह साफ थी, मेरे जीवन की भौतिक तरक्की से लेकर आध्यात्मिक उन्नति के पीछे मेरे पिता ही थे।
सबसे बड़ा सच वो मुझे सीखा गए कि कोई भी सांस आखरी हो सकती है। केवल एक अंतिम सांस और सब रिश्ते नाते समाप्त। दो घंटे बाद उनका जन्मदिन आने वाला था और मैं तैयारी में थी कि उनको सोते हुए उठा कर जन्मदिन का गाना सुनाऊंगी लेकिन वो तो कुछ पल पहले ही चिर निद्रा में चले गए। मैंने यह जाना कि ईश्वर ने सब कुछ पहले से ही नियत किया होता है। हम उसके सामने कितने गौण और तुच्छ हैं। जीवन में वही होगा, जो उसका हुकुम है। सब सपने और योजनाएं धरी रह जाती हैं, होता वही है जो उसको मंजूर।
अमीर खुसरो किसी काम से दिल्ली से बाहर कहीं गए हुए थे वहीं उन्हें निजामुद्दीन औलिया के निधन का समाचार मिला। समाचार क्या था खुसरो की दुनिया लुटने की खबर थी। वह विक्षिप्त अवस्था में दिल्ली पहुंचे। वे अपने पीर की मृतक देह को देखने का साहस न कर पाए। आखिरकार, जब उन्होंने शाम ढले उनकी मृत देह देखी तो उनके पैरों पर सिर पटक-पटक कर मूर्छित हो गए। उसी बेसुध हाल में उनके होंठों से निकला –
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस।
मैंने भी कुछ यही महसूस किया था। पिता एकदम शांत हो कर अपनी सेज पर सो रहे थे और हमारे जीवन में सांझ या यूं कहें कि अंधेरा छा चुका था। अगर, खुसरो जैसे दीवाने या स्वामी विवेकानंद जैसे ज्ञानी भी अपने मुरशद या माता-पिता की मृत्यु से आसानी से उबर नहीं पाए थे तो हम जैसे साधारण मनुष्यों की क्या बिसात!
अब बात करती हूं दुनिया वालों की। मैंने यह जाना कि कोई भी जब सांसारिक यात्रा करके चला जाता है तो कष्ट केवल अपने परिवार को होता है। दुनिया आती है, थोड़ा रोना-धोना दिखा कर कुछ क्षण के बाद अपने घर परिवार और इधर उधर की बातें लेकर बैठ जाती है। मृतक शरीर अभी चिता पर ही होता है और लोग एक दूसरे को मिल कर हँस-हँस कर बातें कर रहे होते हैं क्योंकि यह मौका वह होता है जब लोग अपने दोस्तों, रिश्तेदारों से काफी समय के बाद मिल रहे होते हैं और उसका भरपूर फायदा उठा रहे होते हैं। कोई किसी के दुख में शामिल नहीं होता है। यह केवल एक भ्रम है।
घबराया हुआ मन, असहनीय वेदना के कुहरे में घिरा है, जब पिता का साया हमेशा के लिए विलीन हो जाता है। वह आत्मा का एक अंश जो सृष्टि में लाता है, वह अचानक कहीं दूर चला गया है और लोग आते हैं, सांत्वना के बहाने अनावश्यक ‘प्रैक्टिकल’ बनने का सुझाव देते हैं, मानो किसी प्रिय के अंतस से विदा लेने को सहज कहा जा सकता हो।
ऐसे शब्द निस्संदेह हृदय को आहत करते हैं। क्या कोई समझ सकता है कि यह व्यथा उस स्थूल कटाव से अधिक है, जो त्वचा पर थोड़ी देर को अंकित रहकर शांति पाता है? आत्मा में उठे इस गहरे घाव को सहज कैसे समझा जाए? आत्मा के अंश का यह बिछोह ऐसा है, जिसका प्रभाव युगों तक चिरस्थायी रहेगा और जिसे कोई सांत्वना या सलाह कम नहीं कर सकती।
कुछ लोग ऐसे मिले, जब जीवन में उत्सव और हँसी खुशी के पल होते हैं तो सबसे पहले आ कर मौज मस्ती में शामिल हो जाते हैं लेकिन जब इस तरह की घटना हो जाती है तो अपना चेहरा तक नहीं दिखाते। क्या लोग भूल गए हैं कि काल किसी भी वक़्त कभी भी आ सकता है? क्या यह लोग मनुष्यता की परिभाषा भूल चुके हैं?
अंत में कबीर याद आ गए। वह कहते हैं कि ‘उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला’ यही वास्तविकता है। जब तक उस परम तत्व की मर्जी है तब तक आप संसार के दर्शन मेले करते हैं। हुकुम होते ही हंस अकेला उड़ जाता है।
ओशो कहते हैं कि तुम पूछते हो ‘मृत्यु क्या है?’ मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु एक भांति है। एक धोखा है।
सरूरे-दर्द गुदाजे-फुगा से पहले था
सरूदे-गम मेरे सोजे-बयां से पहले था
मैं आबोगिल ही अगर हूं बकौदे-शमो-सहर
तो कौन है जो मकानों-जमीं से पहले था
ये कायनात बसी थी तेरे तसव्वर में
वजूदे हर दो जहां कुन फिकां से पहले था
अगर तलाश हो सच्ची सवाल उठते हैं
यकीने-रासिखो-महकम गुमां से पहले था
तेरे खयाल में अपना ही अक्से-कामिल था
तेरा कमाल मेरे इप्तिहा से पहले था
मेरी नजर ने तेरे नक्यो-पा में देखा था
जमाले-कहकशा कहकशां से पहले था
छुपेगा ये तो फिर ऐसा ही एक उभरेगा
इसी तरह का जहां इस जहां से पहले था
तज्जलियात से रौशन है चश्मे-शौक मगर
कहां वो जल्वा जो नामो-निशां से पहले था। – बुल्ले शाह