सत्य की खोज क्‍या है? चीजों को वैसे देखना जैसी वे हैं

राघवेंद्र तेलंग

सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता

जीवन का ज्ञान अनुभवों के चलायमान दृश्यों को ऑब्जर्वर मात्र की तरह देखते रहने और उनमें से छनकर आती सीख और आपकी बोध दृष्टि से मिलकर बनता है। ऑब्जर्वेशन यानी प्रेक्षण। ऑब्जर्व करना यानी चीजें जैसी हैं वैसी देखना, निरपेक्ष होकर देखना, जजमेंटल न होना। जब च्वाइस नहीं तो द्वंद्व नहीं। तब आप ठहरकर मगर फ्लो की गति में रहकर भी बहाव के साथ हो, ऊर्जा के साथ हो, फ्लो में हो, फ्लो के साथ हो। आब्जर्व करना यानी ध्यान देकर ओम्नी डायरेक्शनल फोकस के साथ देखना, वह भी बिना किसी पूर्वाग्रह या धारणा के देखना, देखते रहना। वहीं जब आब्जर्व करने की जगह जब हम एब्जॉर्ब करने लगते हैं तो बाहरी दुनिया हमें तुरंत ही कंट्रोल करने लगती है। हमारा हम पर से नियंत्रण जाता रहता है, छूट जाता है। एब्जॉर्ब करना यानी जानकारी, ज्ञान आदि स्टोर करना, इकट्ठा करना। सिद्धांत, धारणा, जजमेंटल होना, कन्सेप्शन्स बनाना।

बहुधा यानी अधिकतर समय हम ऑब्जर्व करने की जगह एब्जार्ब करते हुए हम एक्यूमुलेट करते हैं, इकट्ठा करते हैं। यह अधूरा देखने की वजह से होता है, ऐसा इगो करता है, यानी भीतर बैठा अहं करता है। क्योंकि समझ में जो नहीं आया उसे बाद में समझ लेंगे ऐसा जानकर आदतन स्टोर कर लिया जाता है, मानकर कि बाद में कभी यह काम आएगा। जब आप चीजों को उनके मूल स्वरूप में उसी समय समझ लेते हैं तब आप जीवन में नित नव बने रहते हैं, हमेशा से जीवन की ही तरह। तब आपमें से सदा एक ताजे खिले फूल-सी सुगंध आती रहती है। यही हमेशा फ्रेश रहना, नया व यंग बने रहना है। अब ऐसे में विचार आते हैं तो आप उन्हें पकड़ने या जकड़ने के बजाय देखते भर हैं, उनके नृत्य को इंजॉय करते हैं, संगीत का आनंद लेते हैं विचार प्रक्रिया का प्रतिबिंब देखते हैं, मेमोरी में ले जाकर जंक नहीं करते।

उपयोगितावादी दृष्टिकोण के चलते चीजों की ही तरह, विचारों को भी हम इकट्ठा करते चले जाते हैं। इस तरह पुरानी होती चली जाती चीजों के साथ-साथ आप पुराने होते जाते हैं। फिर इस भार के नीचे हम दबते चले जाते हैं। इस तरह हम कबाड़ी होते चले जाते हैं। हम पुराने होते जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सदा पजेसिव माइंड के साथ काम करते हैं, माइंड के साथ मेमोरी जुड़ी होने से माइंड हर चीज को पकड़ते हुए चलता है, थामते हुए चलता है। मेमोराइज्ड करते हुए चलता है। यह कभी भी अ-मन होकर काम नहीं करता। यही बात सारे दु:खों की जड़ है। अस्थिर, चंचल, बेचैन मन पर नियंत्रण का सीधा तरीका है कि अ-मन हो जाओ, मन का अभाव पैदा कर दो।

मुक्ति की समझ के बारे में आसान तथ्य यह है कि वह फीलिंग का मामला है जो हर तरह के शून्य के, छोड़ देने के, खालीपन के अनुभव व अहसास से जनरेट होती है ज्ञान से नहीं। इसी फ्री-नेस की फीलिंग आ जाने पर आप दुनिया को बताने निकल पड़ते हैं कि यूरेका, यूरेका। आर्किमिडीज को इस यूरेका की फीलिंग अनुभव व अहसास और अनुभूति से आई थी। जैसे ही जीवन को कसकर पकड़ी हुई वह मजबूत पकड़ कम होती है, भीतर की ऊर्जा के संसार में प्रवेश शुरू होता है। जीवन में से उपयोगितावादी दृष्टिकोण चले जाने पर फिर विचार चीजें नहीं बनते ऊर्जा के रूप में दिखते हैं। इस तरह जड़ चीजों के प्रति आपका उपयोगितावादी नजरिया जाता रहेगा और आप टोटली ऊर्जावादी नजरिए से देखने वाले बन सकेंगे। जैविक रूप से हम सबमें एकरूपता है, बायोलाजिकली हम सब एक हैं। तभी तो हम सबमें एक-दूसरे के प्रति करूणाजनित प्रेम भाव सदा विद्यमान रहता है। दु:खी को देखकर दु:ख का होना और मानव व जीव-जगत के प्रति तत्क्षण प्रेम व स्नेह पैदा होना एकरूप कांशसनेस का परिचायक है। कांशसनेस यानी शून्य-निरपेक्ष जैसा एक वृत्त। हां! वृत्त जैसा ही है सब कुछ। इसका सब अनुपात में है। अनुपात का ज्ञान ही सर्व का ज्ञान है।

मनुष्य का ब्रेन इस तरह इवॉल्व हुआ है कि वह अज्ञात से, अन-नोन से डरता है। बेतरतीब विचारों का उपजना इसी का परिणाम है। समूचे अस्त-व्यस्त जीवन को व्यवस्थित करने का नाम है जीवन, विचारों सहित। जीवन इसलिए अपूर्ण लगता है कि उसमें ऑर्डर नहीं है, क्रमबद्धता नहीं है। अज्ञात में छलांग लगाने के साहस का नाम है प्रश्नाकुलता, जो विनत भाव से सतत प्रश्नातुर है उसे ही उत्तर मिलता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, आलस्य के ज्वर से पीड़ित व्यक्ति ही असंतुष्ट होगा हर मामले में वह थैंकलेस होगा, यानी मन उस पर राज करेगा। प्रकृति से, अस्तित्व से जुड़ने के पहले पहल अपना होना स्थगित करना होगा, अपने को भूलना होगा, अपने बेलगाम अहं रूपी अश्व को त्यागना होगा।

चूंकि जीवन एक क्रिएशन से उपजी बात है अत: क्रिएटिविटी की ही तरह क्रिएशन का भी बयान नहीं किया जा सकता, जीवन की बात भी एक तरह से प्रसव पीड़ा की बात है। यह समझने वाली बात है, कहने की नहीं कि हर क्रिएशन की प्रोसेस में एक तरह की प्रसव पीड़ा सन्निहित रहती है। इसे वही समझ सकता है जो जनक हो, जिसने किसी को, कुछ को कभी जन्म दिया हो। इस प्रसव पीड़ा की अनुभूति को शब्दों-भावों की अभिव्यक्ति से नहीं समझाया जा सकता। अब चूंकि जीवन अपरिभाषेय है सो इसके अर्थ निकालना बेमानी है। जीवन वास्तव में शून्यता अर्जित कर विराट शून्य से संवाद अर्जित कर उसमें समाहित हो जाना,मिल जाना है। मिलना यानी घुलना,घुलना यानी समाहित हो जाना।

आप विचार के जरिए विचार पैदा करने वाली ऊर्जा तक नहीं पहुंच सकते। शून्य की उस उच्चतर ऊर्जा तक शून्यता क्रिएट कर पहुंचा सकता है और फिर वहां पहुंचकर जाने-अनजाने, गाहे-बगाहे पैदा होने वाली विचार शृंखला पर ब्रेक लगाया जा सकता है,नियंत्रण पाया जा सकता है। दो विचार पैकेटों के बीच जो ज्वांइट की स्पेस है उसमें जाकर ठहर जाओ, वही फ्री एनर्जी स्पेस है। अभी विचार के पैकेट दर पैकेट ऊर्जा तरंग तैर रही है, अभी विचार कंडक्टर वायर हैं ऊर्जा के लिए। अभी दूसरी गुंथी बाती, जो अविचार की है, मौन की है, से ऊर्जा नहीं गुजर रही, अभी वह कंडक्टर नहीं बनी है, यह स्टैंड-बाय मोड में है, जैसे ही यह कंडक्टर हो जाती है। यह पैकेट फार्म में स्वतंत्र रूप से ऊर्जा प्रवाहित करने लगती है।

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