राघवेंद्र तेलंग
सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
जिंदगी की राह ऊबड़-खाबड़ है। असंख्य मोड़ों-घाटियों,खाइयों से भरी हुई है। जिंदगी के बहाव के साथ अपनी सांसों को बचाए रखकर बहते रहने की कला ये जिंदगी ही तो सिखाती है। इस सफर में आपके आसपास के दर्शक वे हैं जिनकी नजर में जिंदगी की चलन इकहरी है। सरल रेखा,स्ट्रेट लाइन। हालांकि, ये जो लोग जीवन को ऐसे छद्म रूप को जो प्रमोट करते हैं, उन्हें भी जीवन का यह सच पता होता है कि जीवन एक तरंग की-सी प्रकृति का है, इकहरा नहीं है। हर बात की तरह ये लोग अपने मायावी रूप-चरित्र और निगेटिव फिलासफी को भी छुपाते हैं, अपने चेहरे की ही तरह। ये ही लोग प्रतिकूल नैतिक मूल्यों के अगुआ बने फिरते हैं। जीवन को युद्ध रूप में ये ही लोग प्रमोट करते हैं। आज हम प्रवृत्तियों के जरिए देखने-समझ बनाने की कला पर विशेष बातें करेंगे। साथ ही सत्य के संधान के पहलुओं की ओर भी ध्यान देंगे।
जीवन का ज्ञान अनुभवों के चलायमान दृश्यों को ऑब्जर्वर मात्र की तरह देखते रहने और उनमें से छनकर आती सीख और आपकी बोध दृष्टि से मिलकर बनता है। ऑब्जर्वेशन यानी प्रेक्षण। ऑब्जर्व करना यानी चीजें जैसी हैं वैसी देखना, निरपेक्ष होकर देखना, जजमेंटल न होना। जब च्वाइस नहीं तो द्वंद्व नहीं। तब आप ठहरकर मगर फ्लो की गति में रहकर भी बहाव के साथ हो, ऊर्जा के साथ हो, फ्लो में हो, फ्लो के साथ हो। आब्जर्व करना यानी ध्यान देकर ओम्नी डायरेक्शनल फोकस के साथ देखना, वह भी बिना किसी पूर्वाग्रह या धारणा के देखना, देखते रहना। वहीं जब आब्जर्व करने की जगह जब हम एब्जॉर्ब करने लगते हैं तो बाहरी दुनिया हमें तुरंत ही कंट्रोल करने लगती है। हमारा हम पर से नियंत्रण जाता रहता है, छूट जाता है। एब्जॉर्ब करना यानी जानकारी, ज्ञान आदि स्टोर करना, इकट्ठा करना। सिद्धांत, धारणा, जजमेंटल होना, कन्सेप्शन्स बनाना।
बहुधा यानी अधिकतर समय हम ऑब्जर्व करने की जगह एब्जार्ब करते हुए हम एक्यूमुलेट करते हैं, इकट्ठा करते हैं। यह अधूरा देखने की वजह से होता है, ऐसा इगो करता है, यानी भीतर बैठा अहं करता है। क्योंकि समझ में जो नहीं आया उसे बाद में समझ लेंगे ऐसा जानकर आदतन स्टोर कर लिया जाता है, मानकर कि बाद में कभी यह काम आएगा। जब आप चीजों को उनके मूल स्वरूप में उसी समय समझ लेते हैं तब आप जीवन में नित नव बने रहते हैं, हमेशा से जीवन की ही तरह। तब आपमें से सदा एक ताजे खिले फूल-सी सुगंध आती रहती है। यही हमेशा फ्रेश रहना, नया व यंग बने रहना है। अब ऐसे में विचार आते हैं तो आप उन्हें पकड़ने या जकड़ने के बजाय देखते भर हैं, उनके नृत्य को इंजॉय करते हैं, संगीत का आनंद लेते हैं विचार प्रक्रिया का प्रतिबिंब देखते हैं, मेमोरी में ले जाकर जंक नहीं करते।
उपयोगितावादी दृष्टिकोण के चलते चीजों की ही तरह, विचारों को भी हम इकट्ठा करते चले जाते हैं। इस तरह पुरानी होती चली जाती चीजों के साथ-साथ आप पुराने होते जाते हैं। फिर इस भार के नीचे हम दबते चले जाते हैं। इस तरह हम कबाड़ी होते चले जाते हैं। हम पुराने होते जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सदा पजेसिव माइंड के साथ काम करते हैं, माइंड के साथ मेमोरी जुड़ी होने से माइंड हर चीज को पकड़ते हुए चलता है, थामते हुए चलता है। मेमोराइज्ड करते हुए चलता है। यह कभी भी अ-मन होकर काम नहीं करता। यही बात सारे दु:खों की जड़ है। अस्थिर, चंचल, बेचैन मन पर नियंत्रण का सीधा तरीका है कि अ-मन हो जाओ, मन का अभाव पैदा कर दो।
मुक्ति की समझ के बारे में आसान तथ्य यह है कि वह फीलिंग का मामला है जो हर तरह के शून्य के, छोड़ देने के, खालीपन के अनुभव व अहसास से जनरेट होती है ज्ञान से नहीं। इसी फ्री-नेस की फीलिंग आ जाने पर आप दुनिया को बताने निकल पड़ते हैं कि यूरेका, यूरेका। आर्किमिडीज को इस यूरेका की फीलिंग अनुभव व अहसास और अनुभूति से आई थी। जैसे ही जीवन को कसकर पकड़ी हुई वह मजबूत पकड़ कम होती है, भीतर की ऊर्जा के संसार में प्रवेश शुरू होता है। जीवन में से उपयोगितावादी दृष्टिकोण चले जाने पर फिर विचार चीजें नहीं बनते ऊर्जा के रूप में दिखते हैं। इस तरह जड़ चीजों के प्रति आपका उपयोगितावादी नजरिया जाता रहेगा और आप टोटली ऊर्जावादी नजरिए से देखने वाले बन सकेंगे। जैविक रूप से हम सबमें एकरूपता है, बायोलाजिकली हम सब एक हैं। तभी तो हम सबमें एक-दूसरे के प्रति करूणाजनित प्रेम भाव सदा विद्यमान रहता है। दु:खी को देखकर दु:ख का होना और मानव व जीव-जगत के प्रति तत्क्षण प्रेम व स्नेह पैदा होना एकरूप कांशसनेस का परिचायक है। कांशसनेस यानी शून्य-निरपेक्ष जैसा एक वृत्त। हां! वृत्त जैसा ही है सब कुछ। इसका सब अनुपात में है। अनुपात का ज्ञान ही सर्व का ज्ञान है।
मनुष्य का ब्रेन इस तरह इवॉल्व हुआ है कि वह अज्ञात से, अन-नोन से डरता है। बेतरतीब विचारों का उपजना इसी का परिणाम है। समूचे अस्त-व्यस्त जीवन को व्यवस्थित करने का नाम है जीवन, विचारों सहित। जीवन इसलिए अपूर्ण लगता है कि उसमें ऑर्डर नहीं है, क्रमबद्धता नहीं है। अज्ञात में छलांग लगाने के साहस का नाम है प्रश्नाकुलता, जो विनत भाव से सतत प्रश्नातुर है उसे ही उत्तर मिलता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, आलस्य के ज्वर से पीड़ित व्यक्ति ही असंतुष्ट होगा हर मामले में वह थैंकलेस होगा, यानी मन उस पर राज करेगा। प्रकृति से, अस्तित्व से जुड़ने के पहले पहल अपना होना स्थगित करना होगा, अपने को भूलना होगा, अपने बेलगाम अहं रूपी अश्व को त्यागना होगा।
चूंकि जीवन एक क्रिएशन से उपजी बात है अत: क्रिएटिविटी की ही तरह क्रिएशन का भी बयान नहीं किया जा सकता, जीवन की बात भी एक तरह से प्रसव पीड़ा की बात है। यह समझने वाली बात है, कहने की नहीं कि हर क्रिएशन की प्रोसेस में एक तरह की प्रसव पीड़ा सन्निहित रहती है। इसे वही समझ सकता है जो जनक हो, जिसने किसी को, कुछ को कभी जन्म दिया हो। इस प्रसव पीड़ा की अनुभूति को शब्दों-भावों की अभिव्यक्ति से नहीं समझाया जा सकता। अब चूंकि जीवन अपरिभाषेय है सो इसके अर्थ निकालना बेमानी है। जीवन वास्तव में शून्यता अर्जित कर विराट शून्य से संवाद अर्जित कर उसमें समाहित हो जाना,मिल जाना है। मिलना यानी घुलना,घुलना यानी समाहित हो जाना।
आप विचार के जरिए विचार पैदा करने वाली ऊर्जा तक नहीं पहुंच सकते। शून्य की उस उच्चतर ऊर्जा तक शून्यता क्रिएट कर पहुंचा सकता है और फिर वहां पहुंचकर जाने-अनजाने, गाहे-बगाहे पैदा होने वाली विचार शृंखला पर ब्रेक लगाया जा सकता है,नियंत्रण पाया जा सकता है। दो विचार पैकेटों के बीच जो ज्वांइट की स्पेस है उसमें जाकर ठहर जाओ, वही फ्री एनर्जी स्पेस है। अभी विचार के पैकेट दर पैकेट ऊर्जा तरंग तैर रही है, अभी विचार कंडक्टर वायर हैं ऊर्जा के लिए। अभी दूसरी गुंथी बाती, जो अविचार की है, मौन की है, से ऊर्जा नहीं गुजर रही, अभी वह कंडक्टर नहीं बनी है, यह स्टैंड-बाय मोड में है, जैसे ही यह कंडक्टर हो जाती है। यह पैकेट फार्म में स्वतंत्र रूप से ऊर्जा प्रवाहित करने लगती है।
इस तरह जब यह साफ समझ बन जाती है कि ऊर्जा स्टोर नहीं की जा सकती क्योंकि वह बहाव में पैदा होकर सामने आती है, सो हम उसमें मौजूद पात्रों के अंदर की ऊर्जा के बहाव के निरपेक्ष अवलोकनकर्ता, ऑब्जर्वर बन जाते हैं। निरपेक्ष प्रेक्षक फिर लीला का, कॉस्मिक डांस का आनंद लेने वाला कंडक्टर बन जाता है। परावर्तित चमक का आपतन कोण सदा से मौजूद होता है बस मेटा सरफेस मौजूद नहीं मिलती। पाथ ऑफ टोटेलिटी में जब प्रेक्षण संपन्न हो जाता है तब मेटा सरफेस मिलते ही आपतन कोण भी प्रकट हो ही जाता है। मेटा सरफेस क्रिएट होते ही जब उस पर कॉस्मिक सिग्नल्स की,आपतन कोण की नजर पड़ती है,तब संचार शुरू हो जाता है।
जो गतिशील है वह परिवर्तनशील भी है। चैतन्य गतिशील का,परिवर्तनशील का निहित गुण है। इसमें अंतर्निहित फोर्स के थ्रेशहोल्ड वैल्यू सीमा पर ही चैतन्य की एक खास स्पेस-टाइम में प्रविष्टि होती है। एक विशिष्ट वातावरण, तापमान, दबाव, परिस्थितियों में चैतन्य उतरता है। लगातार उमड़ते-घुमड़ते विचारों की कंटीन्युटी से मुक्ति, आक्यूपाइड माइंड का इवैक्युएशन, मुक्त होते ही उस खाली स्थान को तत्क्षण आ भरता जीरो फील्ड के पार्टिकल्स से भरा वह चैतन्य योजक है। यह है सबका मालिक एक का अवतरण। फिर जो सबमें है, से परिचय होता है। फिर वह दृष्टि में आ समाया हुआ लगता है, फिर वो गाता फिर आप गाते। फिर क्रम उलट जाता है। पहले वह मैं-फिर मैं। अंतत: और कुल मिलाकर मैं ही अब एक मैं। जब आप एकता की अनुभूति करते हैं तब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। जब इच्छाओं के पीछे भागना समाप्त हो जाता है, तब फिर जब आप पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि अब इच्छाएं आपकी ओर आकर्षित होकर आपके पीछे-पीछे आ रही हैं।
दुनिया रोज बदल कर नई हुई जाती है। अत: इसे समझने के लिए इसके वर्तमान स्वरूप में ही समझना होगा। दुनिया को ताला बनाने वाले की नजर से देखो दोस्त! तुम चाबी खरीदने वाले हो, तुम्हारे हाथ की चाबी पुरानी है जबकि दुनिया का ताला रोज नया है। नश्वर प्रकृति में मौजूद हर सुंदर के परे बल्कि कहें उसके सापेक्ष एक अलग प्रकृति है अनश्वर की। वहां सब शाश्वत है, एटरनल, कभी न खत्म होने वाला सब कुछ। जबकि यह इल्यूजन की, माया की दुनिया है। इसकी आंखें बाहर की दुनिया की ओर बुलाती हैं, इसकी आंखें ताड़ती रहती हैं कि कहीं मैं अपने भीतर तो नहीं झांक रहा। यहां सभी को अक्सर ऐसा क्यों लगता रहता है कि मुझे कोई भी मेरी याद नहीं दिलाता, यहां कोई मेरा अपना नहीं है! स्वयं को भूतकाल की स्मृतियों से और भविष्य की आधारहीन घातक अपेक्षाओं से मुक्त करो मित्र! चाह और चिंता चले जाते ही आप अपने में लौट आते हैं, खुद को पा जाते हैं। इस तरह आप फ्री-नेस के करीब पहुंच जाते हैं। फीलिंग्स ऑफ कंप्लीटनेस। हर पल पा जाते हैं पूर्णता का अहसास, जिस वजह से फिर जीवन सुंदर और आनंदमय लगता है।
अपूर्ण व्यक्तित्व ही मरने के पहले हर पल मरने के बारे में सोचता रहता है। उन्हीं की तरह मरने के बारे में जरा सोचकर देखिए, जीवन से ओत-प्रोत इस जीवंत दुनिया से निकलने का दु:खी मन के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। यहां जाने के लिए और कहीं से रास्ता नहीं है। यहां से जाने का और कोई रास्ता नहीं है। ऐसा क्यों है कि यहां से चले जाने के बारे में भय के मारे ही सोच रहा हूं। ऐसा क्यों है कि यहां जाने के लिए यहीं से यानी दु:ख के एकमात्र एक्सिट गेट से ही जाना पड़ेगा। कभी-कभी लगता है पहले तो यह बात बाहर के बारे में है, और इसका दूसरा पहलू अंदर के बारे में है। जो मेरे अपने अस्तित्व और उसके अस्तित्व के आपसी संबंधों के जुड़ाव के बारे में ऐसे सवाल उपजाता है। वह अपने को कभी जाहिर नहीं करता। उसके पास पहुंचना पड़ता है। वह किसी के पास नहीं जाता। वह किसी की पकड़ में नहीं आता। वह अबूझ है। उसके सामने रोओ तो भी वह अपनी समझ प्रकट नहीं करता। उसके बारे में अपनी सही समझ बताओ तो भी वह मुस्कुराता नहीं, वह अपने को कभी भी नहीं बताता। हर हाल में अदृश्य बना रहता है वह। यह होना आप उसी को समझा सकते हैं जो अपने में अपने मैं को डुबोकर डिसॉल्व कर चुका हो,और ऐसे लोग दुर्लभ से दुर्लभतम हैं। फिर बचते हैं भौतिक मैं से ऑपरेट होने वाले संसार के आसपास के कई चिर-परिचित ऑपरेटर, जो यह बयान सुनकर आपकी उपेक्षा कर आपको दीवानों की श्रेणी में डाल देते हैं।
जब आप कश्मकशे जिंदगी से तंग आकर, यानी एक से पैटर्न की पुनरावृत्ति के जीवन से आजिज आ जाते हैं तब ऐसे में ही आपमें आध्यात्मिक प्रकाश का उदय होता है। आध्यात्मिक प्रकाश यानी चेतना बनने वाली चीज है। मगर यह जरूर ध्यान रहे कि चेतना कोई चीज या वस्तु नहीं है। वह होने वाली चीज है, घटने वाली। वह तब होती या घटती है जब कोई ऑर्गेनिक चीज संकल्पित बदलाव के दौर से गुजरती है, रूपांतरित होती है। बदलाव की शुरूआत से लेकर बदलाव के अंत तक एक रासायनिक अभिक्रिया के दौरान मानस में शनै: शनै: परिपक्व होकर आ बैठी हुई जो चीज है वह है चेतना। जो फिर अंत तक वहां टिकी रहती है। अगर आप अपने में वह चेतना जगाना चाहते हैं तो आपको आमूल-चूल बदलाव के लिए तैयार होना होगा। यह फिर से अपने को नवजात काल यानी बाल्यकाल में ले जाने की बात है। फिर चेतना एक नजरिए में शामिल हो जाती है,वह हर जगह को देखने-समझाने वाली एक आंख बन जाती है,परस्पेक्टिव्ह जैसा कुछ।
सत्य हाइएस्ट फार्म ऑफ सेंसिटिविटी की बात है। टोटल प्योर एंड टोटल ऑर्गेनिक जीव ही सत्य को अनुभूत कर सकता है। यह टोटल इनोसेंस, निष्पाप, शफ्फाफ होकर ही पाई जा सकती है। जो इनोसेंट हैं उनका ही चयन सत्य नाम की एनर्जी करती है, उनमें ही यह उतरती है। यानी जब आप अपने को अपने में डिसॉल्व कर लेते हैं और अपने को भूल जाते हैं, ऐसे में फिर जब आपका भौतिक दुनिया का आपरेटर मैं नहीं बचता, तब ऐसी सारी धूल हटने पर आप जहां कहीं भी होते हैं, उस स्थान का आंखों में जो फ्रेम बनता है उस फ्रेम में वह प्रकट होता है और फिर जब आप उसी अपने मैं में लौटते हैं तब उसका आना समझ आता है।
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