बचपन को किताबों से जोड़ें क्योंकि किताबें बहुत कुछ कहना चाहती हैं

पूजा सिंह

स्‍वतंत्र पत्रकार

आज बाल दिवस है। साल का वह दिन जब सचमुच हमें बच्चों की याद आती है। स्कूलों में आयोजन होते हैं, माता-पिता भी बच्चों को उनकी पसंदीदा चॉकलेट और खिलौने दिलाकर उन्हें खुश करते हैं। लेकिन यह दिन बच्चों के लिए बेहतर राह बनाने के साथ-साथ उनके भविष्य की बात करने का भी है। इन दिनों जब जीवन के हर पहलू पर विज्ञान और तकनीक हावी हैं, बचपन भला उनसे अछूता कैसे रह सकता है। तकनीक की छाया में बच्चों की मासूमियत दांव पर है। इंटरनेट और मोबाइल जैसी तकनीक जहां एक ओर संभावनाओं के नए दरवाजे खोलती हैं वहीं यह बच्चों का बचपन छीनने में भी बहुत बड़ी भूमिका निभा रही हैं।

स्मार्ट फोन के आगमन के पहले घर में एक टेलीफोन हुआ करता था जिस पर सभी के फोन आते थे। यहां तक कि पड़ोसियों के भी। वह सामाजिकता का एक महत्वपूर्ण टूल हुआ करता था। उसके बाद आए मोबाइल और स्मार्ट फोन। इनके साथ आया निजता का सवाल और अब एक ही घर के हर सदस्य का अपना फोन है जिसमें दूसरा झांक तक नहीं सकता। यहां तक कि आप किशोर होते बच्चे के मोबाइल में भी नहीं झांक सकते।

यह साबित हो चुका है कि मोबाइल फोन की नीली रोशनी हमारी आंखों और दिमाग पर असर डालती है। वह हमारे बच्चों की कल्पनाशीलता और उनकी ध्यान केंद्रित करने की क्षमता पर बुरा असर डाल रही है। जो बच्चे एक समय ड्राइंग कॉपी में गुलाबी आसमान और लाल हिरण के साथ-साथ सात से अधिक रंगों वाला इंद्रधनुष बनाया करते थे, वे बच्चे अब डोरेमॉन के गैजेट्स तक सिमट कर रह गए हैं।

जिन मोबाइल फोन्स को एक जमाने में बच्चों को व्यस्त रखने का माध्यम माना जाता था आज वे उनके लिए एक ऐसी दुनिया की राह खोलने वाले बन गए हैं जो दरअसल उनके लिए है ही नहीं। एक बार इंटरनेट की दुनिया में प्रवेश कर जाने के बाद वे हर प्रकार के नियंत्रण से बाहर हैं। यहां तक कि उन्हें नशे की लत की तरह स्मार्ट फोन की लत लग रही है और उनको इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाना पड़ रहा है।

डॉक्टर्स के मुताबिक बचपन से ही स्मार्ट फोन जैसे गैजेट का ज्यादा इस्तेमाल करने वाले बच्चे अन्य बच्चों की तुलना में देर से बोलते हैं और अक्सर वे ठीक से अपनी बात नहीं कह पाते। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बच्चे दूसरों को बोलते देखकर बोलना सीखते हैं। कार्टून कैरेक्टर को देखकर वे लिप रीडिंग नहीं कर पाते। वे उन्हें सुनते भी हैं तो बिल्कुल उन्हीं की तरह बोलना शुरू कर देते हैं।

इन दिनों ऐसे कार्टून की भरमार है जिन्हें यह कहकर प्रचारित किया जाता है कि वे एज्युकेशनल कार्टून हैं जिन्हें देखकर बच्चे काफी कुछ सीख सकते हैं। इस कामकाजी दौर में जब माता-पिता दोनों दफ्तर जाते हैं और उनके पास बच्चे के साथ बिताने के लिए अधिक समय नहीं होता, तो ऐसे कार्टून का बनना और लोकप्रिय होना समझा जा सकता है। परंतु हमें यह समझने की आवश्यकता है कि केवल तस्वीरों, संवादों और संगीत की मदद से बच्चों को कुछ खास नहीं सिखाया जा सकता है। बल्कि इसका बुरा असर यह होता है कि लगातार चमकती स्क्रीन और मशीनी आवाज बच्चों को खिझाने का काम करती है और उनके व्यवहार को आक्रामक बनाती है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक बच्चों को मोबाइल पर गेम खेलने की लत लग जाती है क्योंकि गेम खेलने के दौरान उनका शरीर अधिक डोपामाइन बनाता है और उनको खुशी महसूस होती है। ऐसे में बच्चा बार-बार मोबाइल फोन मांगता है।

बच्चों को अक्सर उनका ध्यान बंटाने के लिए फोन दिया जाता है ताकि वह उसमें व्यस्त हो जाए और माता-पिता कोई काम कर सकें। कई बार तो रोते बच्चे को चुप कराने के लिए भी फोन दे दिया जाता है। यह सुविधाजनक तो है लेकिन बच्चों की सेहत और उनके भविष्य के लिए ठीक नहीं है।

माता-पिता और अभिभावाकों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि वे बच्चे को इतनी कम उम्र में स्मार्ट फोन क्यों देते हैं? उन्हें अपने व्यस्त जीवन में समय निकालकर छोटे बच्चों के साथ संवाद करना सीखना चाहिए। जरूरत पड़ने पर उन्हें विशेषज्ञों की मदद भी लेनी चाहिए। बच्चों को कम से कम तीन साल की उम्र तक गैजेट्स से पूरी तरह दूर रखें। इससे बच्चों का पूरा विकास संभव होगा और बाद में भी उन्हें सीमित समय के लिए गैजेट देखने दें।

कोविड महामारी के आगमन के बाद स्मार्टफोन छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में आ गया और तब से वह छूटने का नाम ही नहीं ले रहा है। हालांकि बड़े होते बच्चे भी इंटरनेट का इस्तेमाल अगर माता-पिता या अभिभावकों की निगरानी में करें तो बेहतर होगा। ऑनलाइन दुनिया एक ओर जहां ज्ञान के असीमित अवसर तैयार करती है वहीं इसके अनेक स्याह पक्ष भी हैं जिनसे बचना जरूरी है।

बड़े होते बच्चों की मासूमियत सोशल मीडिया, इंटरनेट और स्मार्ट फोन की लत की भेंट चढ़ रही है। फेसबुक और इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शार्ट्स को देखकर बच्चों में समय से पहले ही मैच्योरिटी आ रही है जो उनकी सेहत के लिए ठीक नहीं। माता-पिता के लिए भी यह जरूरी है कि वे सोशल मीडिया के इस्तेमाल को लेकर एक किस्म का संतुलन कायम करें ताकि बच्चे असंतुष्ट भी न रहें और इनका बहुत अधिक और गलत इस्तेमाल भी नहीं करें।

माता-पिता के साथ शिक्षकों का भी यह दायित्व है कि वे बच्चों को किताबों के साथ जोड़ने की हर संभव कोशिश करें। अगर वे बच्चों के साथ किताबें पढ़ते और उन्हें पढ़ाते हैं तो इससे बच्चों के साथ उनका भावनात्मक रिश्ता मजबूत होता है। स्कूल में बच्चों को पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों के लिए अधिक से अधिक प्रेरित किया जाना चाहिए।

किताबें बच्चों से बातें करती हैं, वे उनको सोचने पर विवश करती हैं। वे उनकी कल्पनाशीलता को नए आयाम देती हैं। उनके मन में नए विचार पैदा करती हैं। इससे बच्चों की कल्पना की दुनिया का विस्तार होता है जो मोबाइल और टीवी देखने से नहीं हो सकता है। किताबें बच्चों को असली दुनिया का तर्जुबा देती हैं। उन्हें आगे चलकर जिन चीजों से निपटना है उनका अनुभव वे किताबें पढ़कर पहले ही पा सकते हैं।

जिंदगी में किताबों की अहमियत को सफ़दर हाश्मी की यह कविता बखूबी बयां करती है:

करती हैं बातें, बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
ख़ुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें?
किताबें, कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़ियाँ चहचहाती हैं
किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के क़िस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकिट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?
किताबें, कुछ कहना चाहती हैं।
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

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