काव्य अंततः समाज-प्रदत्त है और काव्य-रचना केवल व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं, वह एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है। और फिर भी एक आत्मिक प्रयास। उसमें जो सांस्कृतिक मूल्य परिलक्षित होते हैं, वे व्यक्ति की अपनी देन नहीं, समाज या वर्ग की देन है।” – मुक्तिबोध (नयी कविता का आत्म संघर्ष तथा अन्य निबंध, पृ. सं. 19)
मुक्तिबोध के कहे को जरा और व्यापक कर दें तो हर सृजन की प्रक्रिया केवल सर्जक स्वयं तक सीमित नहीं होती है बल्कि उसका मनोविज्ञान, उसकी चेतना, उसका परिवेश, सांस्कृतिक और सामाजिक बाह्य जगत उसके सृजन का आधार होते हैं। नन्ही सी कविता हो या वृहत उपन्यास, दर्शन ग्रंथ हो या आलोचना पुस्तक; प्रत्येक सृजन की विशिष्टता के साथ ही उसकी रचना प्रक्रिया भी महत्वपूर्ण है। एक पाठक किसी रचना को किस तरह देखता है, महसूस करता है, स्वीकार करता है उतना ही महत्वपूर्ण है यह भी कि एक लेखक अपनी रचना को कैसे देखता है। वह लेखक जिसने समय खपा कर कोई भी सृजन किया है। किसी भी कृति की रचना प्रक्रिया को जानना लेखक के लक्ष्य और उसे पाने में लगाए गए श्रम को अनुभूत करने का माध्यम हो सकता है।
हमारी कोशिश है कि रचना प्रक्रिया शृंखला के अंतर्गत हम ऐसे ही अनुभव को आपके समक्ष रखें।
रचना प्रक्रिया: घर के जोगी
अपने घर के खजाने को ढूंढने की चाहत ने दिया ‘घर के जोगी’ को आकार
- आशीष दशोत्तर
पुस्तक ‘घर के जोगी के लेखक
बहुत दूर देखने में कई बार अपना पड़ोस अनदेखा रह जाता है। ऊंची आवाज़ें सुनने में अपने करीबी सुर अनसुने रह जाते हैं। मशहूर संगीतकार नौशाद साहब कहते हैं –
अभी साज़े-दिल में तराने बहुत हैं,
अभी ज़िन्दगी के फसाने बहुत हैं।
दर -ए- ग़ैर पर भीख मांगो न फन की,
जब अपने ही घर में ख़ज़ाने बहुत हैं।
अपने घर के खजाने को ढूंढना, अपने करीब की आवाज को सुनना, अपने पड़ोस को पहचानने की कोशिश करना ही ‘घर के जोगी’ का असल कारण रहा।
यह समय की विडंबना है कि यहां जीवन मूल्यों को ढूंढा जा रहा है, अपनत्व को किसी कहानी या कविता में टटोला जा रहा है, रिश्तों को किसी उत्सव में बहलाया जा रहा है और हर कोई एक दौड़ में लगा हुआ है। यह दौड़ कौन सी है? मनुष्य किस लिए दौड़ रहा है ? किसके लिए दौड़ रहा है और उसकी दौड़ कब खत्म होगी, यह कुछ भी उसे नहीं मालूम मगर यह सब कुछ हो रहा है। दुर्भाग्यवश हम सभी इसमें शामिल हैं ।
जहां हमें मुखर होना चाहिए वहां मौन हैं। जहां हमें कुछ नहीं कहना चाहिए वहां हम निरंतर हस्तक्षेप कर रहे हैं। जिस मंज़िल की तलाश में इंसान निकला था वह न जाने कहां खो चुकी है और इंसान बिना किसी लक्ष्य के दौड़े चला जा रहा है।
अज्ञेय कहते हैं, “कितनी दूरियों से कितनी बार , कितनी डगमग नावों में बैठकर, मैं तुम्हारी ओर आया हूं।”
बार-बार अपनी जमीन की ओर लौटना, अपने लोगों को महसूसना और अपने सामीप्य को पहचानने की चाह मुझे अपनों के पास ले आई। पहले यह विचार आया कि अपने शहर के रचनात्मक अवदान से परिचित हुए बिना हम कैसे देश और विदेश के रचनाकारों को समझ सकते हैं। कैसे अपने शहर की साहित्यिक विरासत को अनदेखा कर सकते हैं। इसी विचार ने कहा कि आगे बढ़ने से पहले अपने घर को, अपने पुरखों को पढ़ना और समझना आवश्यक है। जब इस विचार के भीतर प्रवेश किया तो लगा कि मैं एक ऐसे संस्कार में गोते लगाने लगा हूं जिसमें अद्वितीय रचनाकार अपनी अद्भुत रचनाधर्मिता के साथ मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हमारी किसी ने सुध नहीं ली। किसी ने हमें समझा नहीं, सहेजा नहीं। नई पीढ़ी आखिर कैसे हमें जानेंगी?
इस अहसास ने मेरे आत्मबल को मजबूत किया। लगा कि अपने पुरखों को सहेजना हमारा कर्त्तव्य भी है शहर के प्रति जिम्मेदारी भी। इसी सोच के साथ अपने शहर से जुड़े ऐसे रचनाकारों की जानकारी एकत्रित करना शुरू की जिनके लेखन से इस शहर को पहचान मिली। काम मुश्किल था क्योंकि कई दिवंगत रचनाकारों के परिजनों के पास भी उनकी रचनाएं नहीं थीं। ऐसे में उन्हें ढूंढना और फिर उन रचनाओं पर लिखना बहुत कठिन था मगर आनंददायक भी।
शुरुआत में यह सोचा भी नहीं था कि एक शहर को खड़ा करने में इतने कलमकारों का हाथ हो सकता है। इस पुस्तक में अपने घर के रचनाकारों पर लिखने की कोशिश में यह भी पता चला कि मेरा शहर तो बहुत सौभाग्यशाली है कि यह देश के प्रतिष्ठित रचनाकारों की कर्मभूमि रहा है। ऐसे रचनाकारों को पढ़ना और समझना मेरे लिए सुखद रहा। एक सुकून यह भी मिला कि भविष्य में मेरे मन जैसी चाह किसी की रही तो उसे अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। एक ही जगह शहर के तमाम अदीब मिल जाएंगे।
यह रतलाम के साहित्य का संदर्भ कोश बने इस कोशिश में ‘ घर के जोगी ‘ की रचना हो सकी। यह कितनी सफल रही यह तो आप ही बताएंगे मगर इसमें शामिल कुछ रचनाकारों के स्नेह शब्द प्राप्त कर मैं अभिभूत हुआ जिन्होंने कहा कि ” साहित्य, संस्कृति और सद्भाव के लिए पहचाने जाने वाले शहर रतलाम के साहित्य जगत को एकत्रित कर आलोचकीय दृष्टि से प्रस्तुत करती पुस्तक ‘ घर के जोगी ‘ रतलाम का साहित्य संदर्भ कोश साबित होगी।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. अज़हर हाशमी के शब्दों में – “यह श्रमसाध्य और समयसाध्य कार्य है। आशीष ने इसमें वैचारिकता की दूरदृष्टि का दूरबीन लगाकर छानबीन की है , तब यह संग्रह सामने आया है। इतने रचनाकारों के साहित्य को एकत्रित करना बहुत कठिन कार्य है । मेरे मत में यह अपने आप में एक रिसर्च है । इससे काफी लोग लाभान्वित होंगे और भविष्य में कई पीढ़ियां शोध कार्य में इसकी सहायता लेगी। यह पुस्तक संदर्भ कोश साबित होगी। यह रतलाम के साहित्य की डिक्शनरी भी है , कविता का कोश भी है और परिचय माला भी है। आशीष ने इस पुस्तक के माध्यम से समुद्र से से सुई निकालने का कार्य किया है। “
प्रो. रतन चौहान के शब्दों में – “यह पुस्तक रतलाम के साहित्य जगत की पहचान है। इसमें आलोचकीय दृष्टि और रचनात्मक श्रम दिखाई देता है। इस पुस्तक के माध्यम से इतने रचनाकारों की रचनाओं को समेटकर आशीष ने अपने कवि दायित्व को पूरा किया है। “
लेखक सुरेश उपाध्याय के शब्दों में – “आलोचना की इस पुस्तक में आशीष ने एक अभिनव पहल की है, आज के संदर्भ में अपने शहर ‘रतलाम’ के ज्ञात, अल्पज्ञात व अज्ञात रचनाकारो के कविकर्म से वाबस्ता करने की महती कोशिश की है। किसी शहर की रचनाधर्मिता को लेकर मेरी जानकारी में यह प्रथम पहल है। “
स्व. सुभाष दशोत्तर जी के अनुज डॉ.अरविंंद दशोत्तर ने कहा – “किताब को पढ़कर लगा सभी कुछ जीवन्त हो उठा। निश्चय ही बड़ा चुनौती भरा काम था । आशीष ने बहुत कुशलता से इसे पूरा किया है। बहुत से नए चेहरे लगा चित परिचित हैं। हर कवि को पाठकों से इतनी सहजता से मिलवाना, आशीष के ही बस का काम है।”
डॉ. किसलय पंचोली के शब्दों में – “आशीष दशोत्तर द्वारा लिखित आलोचना की साझा पुस्तक ‘घर के जोगी’ में स्वयं की कविताओं को पढ़ पाना मुझे तिहरी खुशी से सराबोर कर गया। एक तो रतलाम से जुड़े आत्मीयता के तार झंकृत होने की खुशी, दूजे इस पुस्तक में शहर के पुराने और नए नामचीन कवियों के साथ मेरा अदना सा नाम जुड़ने की खुशी, तीसरे किसी ने मुझे कविता विधा से पहचान के घेरे में ला खड़ा किया है इस बात की खुशी। यह बहुत महत्वपूर्ण कार्य आशीष ने किया है। “
लेखक रश्मि रमानी के शब्दों में – “रतलाम का एक विस्तृत फलक़ है। हर दशक में यहां से विभूतियां निकलीं हैं। रतलाम साहित्यकारों का गढ़ रहा है। बेहद खुशी होती है जब अपने घर के लोगों में हम भी शामिल हों। आशीष का यह कार्य रतलाम की पहचान बनेगा। “
अपने घर के जोगी मेरे इस प्रयास पर मुझे स्नेह प्रदान कर मुझे हौंसला दे रहे हैं। एक किताब किस तरह एक शहर को जीवन्त कर सकती हैं, यह इस पुस्तक की रचनाप्रक्रिया से सीखने को मिला है।