शशि तिवारी
यात्राओं में, विशेषकर लंबी दूरी की यात्राओं में छोटे-मोटे ‘भारत दर्शन’ की फीलिंग आती है। कभी गंगा, यमुना, नर्मदा, ताप्ती, गोमती, राप्ती, चंबल नदियों को पार करते हुए उनसे निकटता जोड़ते अद्भुत अनुभव, कभी किताबों में पढ़ी और तस्वीरों में देखी ऐतिहासिक इमारतों को निहारते हुए सहेज लेने वाले पल तो कभी खेत, जंगल, पहाड़, धूप, छांह, बादल के नयनाभिराम दृश्य। यहां तक कि जिन जगहों पर हम कभी नहीं गए और जहां जाने की कोई संभावना भी नहीं, वहां की बोलचाल, खान-पान, वस्त्र विन्यास आदि की एक झलक भी मिल ही जाती है सहयात्रियों के माध्यम से। यात्राओं के दौरान कई खट्टे- मीठे अनुभवों से गुजरना होता है।
कुछ लोग जिनसे जीवन में सिर्फ एक बार का मिलना हुआ, आजीवन याद रह जाने वाले निकले। कभी कोई परेशानी का सबब बना तो कोई बना संकट में सहायक। जो भी याद रह गए उन सबको धन्यवाद जीवन के छोटे से अंश का सहभागी बनने के लिए। कभी ऐसा भी हुआ कि परेशानी का कारण या निवारण बने बिना भी याद रह जाने वाले लोग मिले।
आज बात यात्रा के साथी 23-24 साल के एक युवक की। चेहरा याद नहीं रहा पर उसकी व्यग्रता आज भी नहीं भूलती। सामने की अपर सीट पर बैठा लड़का जो मेरे आठ घंटे के सफर में करीब पांच घंटे फोन पर लगा रहा। टाइम पास करने के लिए स्क्रीन स्क्रॉल करते रहना अलग बात है पर वह लगातार कॉल पर था। बेचैनी में बीसियों बार कभी ऊपर तो कभी नीचे की सीट पर बैठता। आधी पहनी आधी छूटती चप्पलों में पैर फंसाता और दरवाज़े की ओर चला जाता। अगले कुछ मिनटों में वापस। मेरी आंखें उसकी भंगिमाओं को समझने की कोशिश में लगीं उसका पीछा करतीं। पानी की बॉटल खोलता और बिना पिए बंद करके एक तरफ़ रख देता। चिप्स के पैकेट खरीद कर लाया फिर दस मिनट बाद साफ-सफाई के लिए आए लड़के के हाथ में थमा दिया। न जताते हुए भी मेरा ध्यान उसकी ओर था। लाल डबडबाई आंखें…रुंधा गला। बंदा कभी इतने तैश में कि चिल्ला ही पड़ेगा तो अगले ही पल अनुनय की मुद्रा में। या तो अपनी उलझनों में घिरा इतना बेखबर कि बातें औरों तक जा रही हैं, इसका भी ख्याल नहीं या फिर ‘दुनिया मेरे ठेंगे पर ‘ वाला हिसाब- किताब।
दिल टूटा था बेचारे का!
‘थोड़ी देर मैं यहां बैठ जाऊं प्लीज?’
किसी की नजरों में अपने लिए कोई सवाल देखने और उसका सामना करने की स्थिति में वह नहीं था इसलिए मेरी तरफ देखे बिना उसने पूछा। मैंने भी बिना कुछ कहे थोड़ा हटकर खिड़की के पास जगह बना दी। आंसू छिपाने के लिए सबके साथ रहकर भी सबसे अलग होना पड़ता है। यह शायद सबसे मुफीद जगह थी। सबकी ओर पीठ करके आंसू पीने और फिर भी जो छलक जाएं उन्हें पोंछने के लिए। यूं भी वह लड़का है, उसे रोना नहीं चाहिए। और वो भी प्यार मोहब्बत जैसी फिजूल बातों के लिए? उसके अंकलजी की उम्र के दो लोगों ने एक दूसरे की ओर देखा। एक ने आंखों आंखों में कुछ कहा और दूसरे के चेहरे पर बेचारगी के भाव आए जिसमें व्यंग्य का पुट था। अस्फुट से शब्दों में कुछ कहा गया। स्पष्ट था कि इस अति संक्षिप्त वार्तालाप में पूरी नई पीढ़ी लपेट ली गई थी।
खुशियां तो सबके साथ बांट ली जाती हैं पर रोने के लिए हम कोना ढूंढते हैं जबकि सबसे ज्यादा किसी के साथ की जरूरत हमें तभी होती है। उसकी हालत देखकर लग रहा था कि इस वक्त कोई ऐसा होना चाहिए इसके पास जो प्यार से कुछ पूछ भर दे…नरमाहट से हथेलियों को थाम ले… सर पर हाथ फिरा दे…।
इतना तो काफी होता उसके फूट पड़ने के लिए। कभी गुस्सा भी आ रहा था। क्या जरूरत थी इन चक्करों में पड़ने की? पढ़ने-लिखने के लिए निकले थे ना घर से? वही किया होता! ये हाल तो न हुआ होता!
जाने क्या कॉम्प्लिकेशन रहे होंगे।
मेरा स्टेशन आ रहा था। उसके बाद भी यह सिलसिला पता नही कब तक चला होगा।
‘आज के समय में जब कि सामानों के जैसे रिश्तों में भी यूज़ एन थ्रो का कॉन्सेप्ट घर कर गया है…जहां अफेयर, पैचअप, ब्रेकअप के अलावा रिलेशनशिप के संदर्भ में न जाने कितने नए टर्म व्यवहार और चलन में आ गए हैं… जहां ट्राइ एन एरर के सिद्धांत पर चलते हुए हर पल रिश्ते बन-बिगड़ रहे हैं…जहां जीवन के प्रहसन में पात्रों को रिप्लेस करते देर नहीं लग रही…जहां ज्यादातर युवा कई- कई विकल्प ले कर चल रहे…ऐसे दौर में कौन किसे इतना मनाता है यार! इतनी निर्मोही न बनो। सफाइयों और आरोप-प्रत्यारोप के बीच, काश, तुम इसकी हालत देख पाती। और क्या पता दूसरी तरफ तुम्हारा भी हाल कुछ ऐसा ही हो। तो माफ कर दो न या माफी मांग लो, जो भी उचित हो तुम्हारे मामले में। माना मुश्किल होता है माफी मांगना और वैसा ही मुश्किल है माफ कर देना भी। पर बड़ी-बड़ी जटिलताएं सुलझ जाती हैं इससे। करके देखो। यकीन मानो इतना भी कठिन नहीं है। अच्छा सुनो… अब मान भी जाना तुम जो भी हो, जहां भी हो। पर हां, अगर धोखा मिला है तुम्हें तब फिर कुछ नहीं कहना है। आत्म सम्मान किनारे रखना पड़े तो रिश्ते में कतई आगे न बढ़ना। तुम्हारे एक-एक पल का हिसाब रखती हुई फिक्र से जरा सचेत रहना। तुम्हारे परिवार व अन्य संबंधों के लिए आदर भाव न हो तो थम कर सोचना जरा। प्रेम, परवाह और सम्मान थोड़ा भी बचा हो एक-दूसरे के लिए तो ताउम्र एक रिश्ते के बने रह पाने की गुंजाइश बची रहती है। सो देख लेना।’
मन ने कुछ ऐसा कहा। आंखों ने उस अनजान हमराही को आखिरी बार देखा, दिल ने उसके लिए दुआ की और हम सामान लिए आगे बढ़ने को उद्यत हुए।
आज भी ये बातें याद आती हैं तो मन कहता है कि आंसू व्यर्थ नहीं गए होंगे और सब कुछ ठीक हो गया होगा। यदि यह उम्मीद है तो काश पूरी हो गई हो और यदि भ्रम है तो काश बना रहे।