Bhopal Gas Tragedy: यह लेखक विभूति झा का आत्मकथ्य नहीं, एक त्रासदी से मिले लाइलाज दर्द की बयानी है
पंकज शुक्ला, पत्रकार-स्तंभकार
एक किताब आई है। भोपाल गैस कांड और पीड़ितों को न्याय दिलवाने की प्रक्रिया पर केंद्रित है यह नई किताब …
यह सूचना मिलते ही तपाक से सवाल हुआ, एक और किताब!!!
गैस कांड के बीते चालीस सालों में क्या कुछ नहीं लिखा गया? क्या कुछ न उजागर हुआ? हर साल कितने ही कागज काले हुए, कितने ही परिशिष्ट निकाले गए। कितने ही अध्ययन हुए, कितने ही शोध किए गए। अब भी क्या कुछ छूट गया है? क्या नई किताब में भी पहले से ही बताए गए, जाने गए, समझे गए तथ्यों का दोबारा प्रकटीकरण नहीं होगा?
एक किताब को आने पर उसके औचित्य पर सवालों की बारिश ने मुझे यहीं रोक लिया। मैंने इन सवालों के जवाब इस किताब ‘कठघरे में सॉंसें’ के बहाने देने का इरादा किया।
मैंने पाया कि यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए क्योंकि: इसे विभूति झा ने लिखा है।
अब जाहिर है, सवाल होगा विभूति झा कौन?
… किताब को जानने के पहले पहले इस पुस्तक के लेखक को जानिए। विभूति झा 2 और 3 दिसंबर की रात भोपाल की सड़कों पर भागती मौत के चश्मदीद हैं। वे गैस कांड प्रभावितों की पीड़ा को आवाज देने के लिए बने पहले संगठन ‘जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा’ के संस्थापक सदस्य हैं। इस संगठन ने गैस कांड के दूसरे ही दिन से मोर्चा संभाला, आंदोलन खड़ा किया और सरकार को गैस पीड़ितों के प्रति संवेदनशील बनाने में भूमिका निभाई।
विभूति झा
पुस्तक ‘कठघरे में साँसें’ के लेखक
विभूति झा वे वकील है जो जिला अदालत में गैस पीड़ितों की ओर से कोर्ट में खड़े हुए और पैरवी कर 350 करोड़ का मुआवजा दिलवाया। यह काम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि तब के अपेक्षाकृत कम अनुभवी वकील विभूति झा के सामने भारत सरकार की ओर से स्वयं अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल उपस्थित थे। आरोपी अमेरिकी कंपनी की ओर से सुप्रीम कोर्ट के सफलतम वकील फली एस. नारीमन अनेक भारतीय और अमेरिकन अधिवक्ताओं को साथ उपस्थित थे। स्वतंत्र भारत के न्यायिक इतिहास में वह पहला मौका था जब किसी जिला न्यायालय में सुनवाई के लिए भारत सरकार की ओर से स्वयं अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल उपस्थित थे। अदालत में मिली इस पहली जीत ने लाखों गैस पीड़ितों को पुनर्जीवन दिया, जैसे।
यह सब कैसे हुआ यह जानने के लिए यह किताब पढ़ी जानी चाहिए। यह किताब इसलिए पढ़ी जानी चाहिए कि यह लेखक की आत्मकथा नहीं उस शहर भोपाल की आत्मकथा है जिसने अपने बाशिंदों को बदहवास अपनी सड़कों पर दौड़ते देखा है जो आज भी उन्हें दम तोड़ते देख रहा है।
यह किताब पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि: सिस्टम तो सिस्टम हैं। वह अपने हजारों नागरिकों की मौत के बाद भी बदलता नहीं है…
बीते चालीस सालों में केंद्र में अलग-अलग दलों की सरकारें रहीं लेकिन गैस पीड़ितों के मामले में सभी सरकारों का चेहरा एक ही था; अमेरिकापरस्ती का चेहरा। जिन सरकारों को अपने गैस पीड़ितों की चिंता करनी थी वे दोषी अमेरिकी कंपनी को बचाने और फायदा पहुंचाने का काम कर रही थी। गैस पीड़ितों और उनकी लड़ाई लड़ रहे समूह को लग रहा था कि सरकार उनके पक्ष में नहीं है। बल्कि वह तो अमेरिका के दबाव में यूनियन कार्बाइड का साथ दे रही थी। यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन की दिखावटी गिरफ्तारी और फिर ससम्मान भोपाल से जाने देना, फिर यूनियन कार्बाइड के साथ समझौते के लिए लालायित होना, कानूनी की प्रक्रिया के पेंच आदि ऐसे तमाम कारण थे।
यह किताब बताती है कि न्याय पाना कितना मुश्किल है जब न्यायपालिका भी बिना पक्ष सुने फैसला सुनाने लगे। एक तरफ तो सरकार ने अमेरिका में कानूनी लड़ाई लड़ने का गैस पीड़ितों का मूल अधिकार छिना दूसरी तरफ व्यक्तिगत मुआवजा वितरण के लिए मुश्किल दावा प्रक्रिया अपनाई गई।
भोपाल आज बदल गया है। यहां मेट्रो आने वाली है। हाईराइज इमारतें नया चेहरा होने वाली है लेकिन चालीस बाद भी यूनियन कार्बाइड वाला क्षेत्र आज भी वैसा ही है। रासायनिक कचरा हटाने में सरकार का रवैया वैसा ही है जैसा गैस कांड और उसके बाद के वर्षों में था। विडंबना यह है कि कार्बाइड के जहर से मौत के आगोश में समा गए लोगों की याद में जा तक कोई स्मारक नहीं बनाया गया। स्मारक के नाम पर कार्बाइड फैक्ट्री के सामने स्थापित गैस पीड़ित स्त्री और उसके बच्चों की मूर्ति ही है, जिसे गैस पीड़ितों के ही एक स्वयंसेवी संगठन ने बनवाकर लगाया था। सरकार का काम सिर्फ हर साल 3 दिसंबर को भोपाल में छुट्टी घोषित करना और एक सर्वधर्म प्रार्थना सभा की रस्म अदायगी करना रह गया है।
आज भी गैस कांड के शिकार खाँसते, हॉफते, आँखें मलते, पुरानी और नई बीमारियों से जूझते जी रहे हैं और अफसोस है कि पूरा शहर अपने इस बाशिंदों के इस दर्द से अनजान है। यह किताब वास्तव में मानवजनित त्रासदी से मिले दर्द का दस्तावेज है। यह उस कांड के बाद न्याय पाने की जद्दोजहद का लेखा जोखा है। यह बताती हैं तंत्र कितना क्रूर और अमानवीय है और इसी सिस्टम में कितने भले, संवेदनशील, सहयोगी लोग भी हैं।
प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का संपादन वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल और वन्या झा ने किया है।
यह किताब पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि:
- आप जानेंगे कि एंबुलेंस चेंजर कौन थे और क्यों पीड़ितों को आगाह किया जा रहा था कि वे इनके झांसे में न आएं, न दस्तखत करें और न कोई कागज दें?
- 12 दिसंबर 1984 को क्यों भोपाल में फिर अफरा-तफरी मच गई थी? क्यों लोग अपने घर, सामान, मवेशी सब छोड़ कर भाग रहे थे? क्यों आधा शहर खाली हो गया था?
- 3 जनवरी 1985 को क्यों धिक्कार दिवस मनाया गया और धिक्कार दिवस के पर्चे में क्या लिखा गया था?
- क्या है सोडियम थायोसल्फेट जिसके कारण एक लक्ष्य वाले समर्पित व नेक कार्यकर्ताओं का ‘जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा’ भी बिखर गया?
- आईसीएमआर की 1984, 85, 86, 87, 88 और 1989 में किए गए प्रभाव अध्ययन की रिपोर्ट के आंकड़ें तथा उनका तुलनात्मक प्रस्तुति। आखिर क्यों ये अध्ययन बाद में रोक दिए गए जबकि गैस पीड़ित और उनकी पीढ़ियां अब भी जानलेवा बीमारियों की चपेट में हैं।
- सरकार ने न्यायिक जांच आयोग के कार्यकाल में वृद्धि क्यों नहीं की? क्यों यह आयोग बिना पूरी जांच और निष्कर्ष के ही भंग कर दिया गया?
- क्यों भारत सरकार ने अमेरिका में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ केस लड़ने का गैस पीड़ितों का अधिकार खुद अपने कब्जे में कर लिया और कैसे भारत सरकार अमेरिकी अदालत में हार गई?
- क्यों त्रासदी के दो साल बीतने के बाद भी गैस पीड़ितों को कोई मुआवजा नहीं मिला था? क्यों जिला अदालत को अपनी पीड़ा सुनाने के लिए 30 अक्टूबर 1987 को अदालत के बाहर सड़क पर धरना देना पड़ा था? क्या इस धरने का असर उन जज साहब पर हुआ जो अदालत में गैस पीड़ितों के वकील को सुन ही नहीं रहे थे?
- क्यों सरकार यूनियन कार्बाइड से 650 करोड़ का समझौता करने को तत्पर थी जबकि गैस पीड़ितों के इलाज और रोजगार पर ही 1000 हजार से ज्यादा खर्च होने थे? इसमें मुआवजा शामिल नहीं था।
- क्यों हाईकोर्ट ने 350 करोड़ के अंतरिम मुआवजे को घटा कर 250 करोड़ कर दिया और क्यों हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने में केंद्र सरकार ने सुस्ती दिखाई?
- 14 फरवरी 1989 को सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस आरएस पाठक ने क्या आदेश दिया और गैस पीड़ितों के वकील की अनुपस्थिति में भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड ने क्या समझौता कर लिया था?
- क्यों 14 और 15 फरवरी को दूसरी विभिषिका कहा गया? आखिर कैसे इस एक फैसले के कारण यूनियन कार्बाइड के कर्ताधर्ता सजा से बचा लिए गए?
- भारत सरकार के प्रतिनिधि अटार्नी जनरल पारासरन क्यों मुआवजा प्रकरण और भोपाल एक्ट की वैधता पर परस्पर विरोधी तर्क देते रहे?