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- सुधीर मोता
सुपरिचित कवि-लेखक
आखिर क्यों देखें कंगना की फिल्म इमरजेंसी
कल मुझे भोपाल रेलवे स्टेशन के उस सूने से प्लेटफार्म नंबर चार या पांच पर नीम अंधेरे में टहलने की सन 1977 की वह रात याद आ गई। मैं मोरारजी देसाई के साथ उनकी तेज गति से कदम मिलाने की कोशिश करते चल रहा था। वह व्यक्ति जो कुछ ही दिन बाद देश का प्रधान मंत्री बना मेरे साथ अकेला था और उनकी राजनैतिक सामाजिक संलग्नता के किसी भी संगठन का कोई भी व्यक्ति उनके साथ नहीं था।
मैंने उनसे रूक कर कहीं बैठने के लिये कहा तो उनका उत्तर था – हुं शुं काम बेसुं मने नथी बेसवु – मैं क्यो बैठूं भाई, मुझे नहीं बैठना।
मुझे इसी स्टेशन पर जयप्रकाश नारायण के आगमन पर खचाखच उमड़ी भीड़ का अनुभव भी याद आया। बचपन में पिता के साथ जाकर देखे सुने नेहरूजी के भोपाल के लाल परेड मैदान के उस छोटे-से गुलाबी मंच से दिए उद्बोधन याद आए। उसी मंच से सुने गए इंदिरा गांधी के भाषण याद आए। भोपाल के इमामी गेट सोमवारा की सड़क पर बने मंच से अटल बिहारी वाजपेयी का ललकार भरा इतिहास के कूड़े दान में फेंके जाने का वह जोशीला वाक्य याद आया।
जयप्रकाश नारायण, वीपी सिंह, जार्ज फर्नांडिज, मधु दंडवते, अग्निवेश, चंद्रशेखर आदि बहुत से नेताओं की सभाएं याद आईं। भोपाल के इमामी गेट पर राजीव गांधी का उनकी मृत्यु के कुछ ही दिन पहले का बहुत निकट से देखा चेहरा और भाषण याद आया। पत्नी ज्योति साथ थी। मैंने उसे इन कार्यक्रमों में मंच से दूर ही बैठने की सतर्कता बरतने की याद दिलाई, हालांकि हम बैठे तो मंच के कुछ निकट ही। वह चुनावी रैली थी। इसके कुछ ही दिन बाद तो एक सभा में मंच से उतरते ही राजीव गांधी की हत्या हुई।
भोपाल गैस कांड की आंखों देखी और भोगी विभीषिका, उसके ठीक अगले दिन हमीदिया अस्पताल में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह से आमने-सामने अपना व्यवस्थाओं संबंधी सीधा बेबाक संवाद याद आया। इंदिरा गांधी की हत्या की घटना और फिर हुए दंगों से पूरे देश के साथ भोपाल गुजरा वह कैसे भुलाया जा सकता है?
ये सब याद आया कल जब मैं फिल्म ‘इमरजेंसी’ देख रहा था। फिल्मों से मेरा लगाव नया नहीं है और फिल्मों को उनके विषय-वस्तु व प्रस्तुतीकरण के स्तर और अपनी अभिरूचि के हिसाब से देख लेने का प्रयास अवश्य करता हूं। इतिहास सिर्फ वही नहीं है जो हमारे जन्म के सैकड़ों-सहस्रों वर्ष पहले हुआ, वह भी इतिहास ही है जो कल हमारे देखे-सहे गुजरा।
‘इमरजेंसी’ नामक इस फिल्म की बात करूं तो जो कुछ भी कल्पित कर इसका समर्थन या विरोध किया जा रहा है वह सब इसमें नहीं है। यह अंततः एक बायोपिक है जिसे देख कर आप उसकी प्रमुख पात्र से सहानुभूति अधिक और निंदा कम के भाव से बाहर आते हैं। एक अभिनेत्री कैसे अपने अभिनीत किसी पात्र में अपने को ढाल लेती है और अगर हमें वह इसमें सफल दीखती है तो उसे सराहा जाना चाहिए। इसे एक असाधारण स्त्री नायक के जीवन की सार्वजनिकता और निजता तथा साहसिकता और भयग्रस्तता के टकरावों के अधूरे फिल्मांकन की तरह देखा जा सकता है। अधूरा इसलिए कहा क्योंकि इसमें प्रस्तोता की हिचक या सेंसर बोर्ड की कत्तर दीखती है। स्वर्गीय अभिनेता सतीश कौशिक इसमें दिखे इससे यह समझ आता है कि फिल्म बने समय हुआ और कुछ समय यह डिब्बे और पर्दे के बीच झूलती भी रही होगी।
कहना यही है कि कई बार विरोध या समर्थन करते समय हम उस ही बात के पक्ष में खड़े हो जाते हैं जिसके हम सदा से विरोध में खड़े रहना और दिखना चाहते हैं। ऐसे समय में हम अपने ही बीते समय को याद नहीं कर पाते जब हम निष्ठाएं बदल-बदल कर कभी किसी पक्ष में तो कभी किसी अन्य पक्षधरता में आ जाते हैं। कोई फिल्म कितने लोगों को ले कर बनती है और फिर कितनी आंखों की प्रतीक्षा में रहती है यह वह फिल्मकार ही समझ सकता है। लेकिन हमें भी समझना चाहिए और अगर हम साहित्य या कला के किसी भी अंग से जुड़े हैं तब तो और भी। हम सब का निजी जीवन है और कई बार रूझान भी। और साथ ही हम सब को किसी नायक-नायिका से शासित होने की जन्मजात आदत होती ही है। समय-समय पर हम स्वयं अपने को किसी नायक भूमिका में देखना चाहने लगते हैं। इस तृष्णा को तुष्ट करने के लिये हमें चयनित फिल्में देखना और किताबें पढ़ना चाहिए। और लिखना भी।
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कमाल की फिल्म है – इमरजेंसी
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- लक्ष्मीशरण मिश्रा
शिक्षक एवं सिविल सर्विस क्लब, भोपाल के संस्थापक
बेवकूफ हैं वो जो जिसे प्रोपेगंडा फिल्म समझ रहे हैं। ये फिल्म किसी धर्म,किसी पार्टी,किसी नेता या किसी घटना के विरुद्ध नहीं है उल्टा यह देश के इतिहास का निष्पक्ष चित्रण है। मेरा मानना है कि इसका नाम ‘इमरजेंसी’ नहीं बल्कि ‘इंदिरा’ होना चाहिए था क्योंकि फिल्म केवल इमरजेंसी को नहीं बल्कि इंदिरा के पूरे जीवन दिखाती है। जिन्हें इंडियन पॉलिटिक्स/कंटेम्पररी हिस्ट्री में रूचि है, उनके लिए तो ये फिल्म ‘एक हिस्ट्री क्लास’ की तरह है।
विश्वास मानिए। मैं इंदिरा का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं और आज भी उन्हें देश का सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री मानता हूं। मुझे इस फिल्म में कहीं भी उनका गलत चित्रण नहीं दिखा। सच कहूं तो मुझे कंगना से इस निष्पक्षता की उम्मीद नहीं थी।
अगर आपको इंडिया से प्यार है तो ये फिल्म आपको बहुत अच्छी लगेगी क्योंकि देश प्रेम ही इस फिल्म का मूल भाव है। फिल्म की सबसे कमाल बात है उस दौर के हर बड़े व्यक्ति के साथ पूरा न्याय।
मिलिंद सोमन की मानेकशॉ के तौर पर एंट्री रोंगटे खड़े करनी वाली है तो वहीं श्रेयस तलपड़े अटल बिहारी वाजपेयी के विराट व्यक्तित्व के साथ पर्दे पर कमाल करते दिख रहे हैं। जेपी के साथ भी फिल्म ने उतना न्याय किया है जितना कभी उनके राजनीतिक चेलों ने भी नहीं किया।
मेरे जैसे संजय गांधी फैन को संजय का पूर्वाग्रह से मुक्त तार्किक चित्रण अच्छा लगेगा पर मेरे लिए सबसे बड़ी ट्रीट थी ‘अपने पसंदीदा दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति को सलाह देते देखना।
मेरी सलाह होगी कि भले ही आपने इंदिरा पर सैकड़ों किताबें पढ़ी हों फिर भी आप ये फिल्म जरूर देखिए। इसे ना देखकर आप भारत में बनी एक बेहतरीन ‘बायोपिक’ को मिस कर देंगे।
और हांं, प्लीज इसे कंगना की फिल्म समझकर जज मत कीजिए।