भारतीय वामपंथ की वर्तमान कायरता के अंत और साहसिक नेतृत्‍व की आस

  • अरुण माहेश्वरी

प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक और लेखक

सीपीआई (एम) की 24 वीं पार्टी कांग्रेस

सीपीआई (एम) की 24 वीं पार्टी कांग्रेस मदुराई में 2-6 अप्रैल 2025 को होगी। इस कांग्रेस की प्रक्रिया पुरजोर शुरू हो चुकी है। कुछ राज्यों में तो स्थानीय सम्मेलनों के अलावा जिला इकाइयों और राज्य के सम्मेलन भी पूरे हो गए हैं। कुछ के होने की प्रक्रिया में हैं। पार्टी कांग्रेस के प्रारंभ के पहले सभी राज्यों के सम्मेलन पूरे हो जाएंगे।

पार्टी कांग्रेस से वर्तमान परिस्थितियों के बारे में पार्टी की राजनीतिक समझ के पुनर्नवीकरण के अलावा संगठन का भी यथासंभव नवीकरण होता है। यह माना जाता है कि पार्टी के अंदर चलने वाली यह प्रक्रिया ही अंततः पार्टी के संगठन की क्रिया शक्ति का रूप लेती है। इस प्रक्रिया से पार्टी के लक्ष्य का प्रयोजन और स्पष्ट होता है जिससे उसकी इच्छा शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई पूरी पार्टी की क्रिया शक्ति में परिणत होती है। जीवन के ठोस अनुभवों से चेतना अर्जित करके पार्टी के तात्कालिक और दूरगामी विचारधारात्मक लक्ष्यों की भी शिनाख्त होती है। क्रिया का अर्थ ही ज्ञान का विस्तार है। इसीलिए जाहिर है कि जो प्रक्रिया पार्टी की इच्छा शक्ति को क्रिया शक्ति में बदलती है, पार्टी के पूरे जीवन और उसकी सामाजिक भूमिका के लिए उस प्रक्रिया की स्वच्छता का असीम महत्व होता है।

किसी भी राजनीतिक दल के लिए उसका संगठन अगर उसका शरीर है तो उसकी विचारधारा उसकी आत्मा, आध्यात्म की भाषा में उसका परमार्थ रूप।

संगठन कोई जड़ वस्तु नहीं होता। अगर इसे जड़ अर्थात् अचल मान लिया जाए तो उससे किसी भी काम की सिद्धि कैसे संभव होगी? इससे तो उसकी आत्मा, अर्थात् विचारधारा भी जड़ हो जाएगी। विचारधारा को यदि हम स्व-प्रकाशतुल्य भी मान लें, अर्थात् उसे स्वयं में क्रियामूलक और अद्दम्य भी मान लिया जाए तब भी यह सवाल बना रह जाता है कि मृत संगठन के चलते उसका स्वरूप किस माध्यम से अपने को व्यक्त करेगा? दर्शन की भाषा में कहें तो विचारधारा अर्थात् परमार्थ सृष्टि रूप होने के कारण ही किसी संगठन (प्रमाता) की आत्म-चेतना नहीं होती। वह तो संगठन की ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के ऊपर आरूढ़ होती है।

पार्टी कांग्रेस की पूरी प्रक्रिया का अर्थ होता है पार्टी के स्व-स्वरूप की पहचान, जिसे हमारे दर्शन की भाषा में प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है। प्रत्यभिज्ञा, अर्थात् स्व-स्वरूप का वह ज्ञान जो पहले भी आभासित होता रहा और इस समय भी भासित हो रहा है। ‘पूर्वकाल एवं वर्तमान समय के काल का सम्प्रति वर्तमान से एकाकार होकर भासित होने का नाम प्रत्यभिज्ञा है’। स्व-स्वरूप का यह काल-संबद्ध सटीक अभिज्ञान ही अन्य से आपके भेद का वास्तविक आधार बनता है।

पार्टी कांग्रेस कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए एक वैसे ही विमर्श को संभव बनाती है जिसमें इस कालावधि में पार्टी का जो स्वरूप सामने आया है उसका परिचय प्राप्त किया जाए। इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय तमाम विषयों के आकलन से आगे उनमें अपनी क्रियाशीलता की संभावना का संधान किया जाता है। यह काम किसी पत्रकार की भांति महज राजनीतिक घटनाक्रमों के, अर्थात् यथार्थ के ब्यौरों मात्र से संभव नहीं हो सकता है। यथार्थ का विवरण भर हमेशा किसी चौखटे में बांध दिए गए ‘ठोस यथार्थ’ की जड़ता से जुड़ी आधिभौतिकता को पैदा करता है। इसके बजाय विमर्श के लिए जरूरी होता है अनेक अर्थों की संभावनाओं को बनाने वाले सामान्यीकरण का खुलापन। इसीलिए माना जाता है कि ज्ञानमीमांसा में ठोस संदर्भ मीमांसा के प्रवाह को परिमित करके एक प्रकार से उसे बाधित ही करते हैं।

सारी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांतकार नेताओं और सैद्धांतिक दस्तावेजों की मूल भूमिका ठोस संदर्भों से प्रारंभ करके उन सामान्यीकृत निदर्शनों की दिशा में विमर्शों को ले जाने की रही है, जिनका काल-सापेक्ष सार्विक महत्व होता है। विमर्शों से अर्जित इस ज्ञान से ही पार्टी किसी समग्र और परिमित राजनीतिक घटनाक्रम में भी अपना स्थान बनाने में सक्षम हो सकती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान और क्रिया ही जीवित प्राणियों का जीवन होता है। जड़ता का कोई भी रूप हमेशा प्रमाता के अर्थ प्रकाश की क्षमता को बाधित करेगा। इसीलिए जब पार्टी के कथित सैद्धांतिक दस्तावेज पत्रकारितामूलक, राजनीतिक घटनाओं के बीच तारतम्य के क्रमिक ब्यौरों की तरह के बन जाते हैं तब उनसे किसी वास्तविक विमर्श के पैदा होने की गुंजाइश नहीं रहती है। तभी पार्टी कांग्रेस की पूरी प्रक्रिया के एक भ्रामक कर्मकांड में बदल जाने का खतरा भी पैदा हो जाता है।
पार्टी कांग्रेस का वास्तविक अर्थ किसी भी मायने में कोरी खाना-पूर्ति नहीं हो सकता है। आज भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने जिस प्रकार की अस्तित्व से जुड़ी चुनौतियां हैं, उस परिस्थिति में यह नितांत स्वाभाविक और अपेक्षित है कि पार्टी कांग्रेस की प्रक्रिया से पार्टी के अंदर से एक तीव्र विचाराधारात्मक संघर्ष आभासित हो। इसका गतानुगतिक रूप में, बिना किसी वैचारिक रक्तपात के गुजर जाना कभी भी अपेक्षित नहीं हो सकता है।

अगर हम गहराई से देखें तो पाएंगे कि सीपीआई (एम) के सामने कमोबेस ऐसी ही चुनौतीपूर्ण स्थिति 21वीं (2015) की विशाखापटनम (आंध्र प्रदेश) कांग्रेस, 22 वीं (2018) तेलंगाना (हैदराबाद) कांग्रेस और फिर 23वीं (2022) कन्नूर (केरल) कांग्रेस के वक्त भी रही थी। विशाखापटनम में ही पहली बार सीताराम येचुरी को पार्टी के महासचिव पद के लिए चुना गया था। तब से लेकर 23 वीं अर्थात् कन्नूर कांग्रेस तक वे बार-बार इस पद के लिए चुने जाते रहें। पर गौर करने की बात है कि ऐसे हर मौके पर उनके चुनाव को लेकर पार्टी के अंदर से तीखी खींच-तान के समाचार आभासित होते रहे। सीताराम येचुरी का चुनाव कभी भी सहजता से न हो पाना जहां इस बात का गवाह था कि पार्टी में 2008 (जब सीपीएम यूपीए सरकार से निकल कर उसके खिलाफ उतर गई थी) से लेकर 2014 में नरेन्द्र मोदी की जीत के घटना क्रम के बाद एक आंतरिक वैचारिक तनाव विकसित हो रहा था, वहीं इस खास प्रकार के तनाव के लंबे काल तक लगातार बने रहने से यह भी जाहिर हुआ कि नेतृत्व में परिवर्तन के बावजूद सीपीआई (एम) को अपने अन्तर्द्वन्द्व के निदान का सही पथ नहीं मिल पाया है। इसके चलते ही सीपीआई (एम) एक गहरे गतिरोध की शिकार नजर आने लगी। तीखे तनावों के बाद प्रकाश करात की जगह महासचिव पद पर सीताराम येचुरी का आना सीपीआई (एम) के सामूहिक नेतृत्व के चरित्र में किसी परिवर्तन का हेतु नहीं बन पाया था।

सीपीआई (एम) के नेतृत्व का जो प्रमुख तबका 1993 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने के लिए मजबूर करने की अपनी हठ के लिए केंद्रीय कमेटी में अपने बहुमत की शुद्ध पेशी शक्ति तक का प्रयोग करने का दोषी था और वही तबका 2008 में अमेरिका से न्यूक्लियर समझौते के प्रश्न पर यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेने के अज्ञानतापूर्ण हठ और अहंकार के लिए जिम्मेदार था, वही तबका 2012 में पार्टी के नेतृत्व में परिवर्तन के बाद भी पोलिट ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी पर अपने प्रभावी वर्चस्व को बनाए रखने में सफल रहा। फलतः 2012 से पार्टी में जिन नए विमर्शों के रास्ते खुलने की संभावना बनी थी, वह संभावना आज तक एक कोरी संभावना ही रह गई है, पार्टी की अपनी राजनीतिक-सांगठनिक संरचना पर उसका कोई वास्तविक असर दिखाई नहीं देता है। समय के प्रवाह के क्षय के साथ पार्टी क्रमशः और भी रसातल में जाती हुई दिखाई देती है।

एक ऐसी परिस्थिति में, अब सीपीआई (एम) की इस 24 वीं कांग्रेस के वक्त कुछ खास कारणों से हमें भारतीय वामपंथ के इस सबसे प्रमुख दल की संरचना और उसकी भूमिका में कुछ वास्तविक, नए परिवर्तनों की आशा के संकेत दिखाई देते हैं। इस आशा के पीछे भी खास राजनीतिक और सांगठनिक, दोनों कारण हैं।

पहला, राजनीतिक कारण, यह है कि पिछले दस सालों के अनुभवों के बाद सीपीआई (एम) में अब इस बात को लेकर किसी प्रकार का कोई भ्रम नहीं रह गया है कि मोदी और आरएसएस के नेतृत्व की भारतीय जनता पार्टी शुद्ध रूप में एक सांप्रदायिक फासीवादी पार्टी है। 2014 के बाद कतिपय मौकों पर प्रकाश करात ने आरएसएस के बारे में अब तक के तमाम अध्ययनों की सचाई से इंकार करते हुए भाजपा और कांग्रेस के बीच नवउदारवाद के नाम पर भ्रामक सादृश्यता की जो तस्वीर पेश करने की कोशिश की थी, वह समझ अब तक पूरी तरह से पिट चुकी है। इस विषय में उसमें कोई भ्रम शेष नहीं रहा है।

दूसरा, सांगठनिक कारण, यह है कि पिछले दिनों सीपीआई (एम) ने अपने नेतृत्व के ऐसे तमाम लोगों को जिनकी उम्र 75 साल पूरी हो चुकी है, नेतृत्वकारी पदों से हटाने का निर्णय लिया था। अब उस निर्णय पर अमल से यह साफ नजर आता है कि इससे पार्टी के नेतृत्व की पूरी संरचना में भारी परिवर्तन अवश्यंभावी है। नेतृत्व में लंबे अरसे से जमे हुए ऐसे तमाम लोग, जो 1993 की ऐतिहासिक भूल और 2008 के अज्ञानतापूर्ण हठ के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहे हैं और जो 2012, 2015 और 2018 की कांग्रेस में बार-बार पराजित होने पर भी पार्टी पर अपना वर्चस्व बनाये रखने में सफल हुए हैं, उन सबकी इस कांग्रेस से एकमुश्त विदाई होना तय है।

पार्टी की 24 वीं कांग्रेस यदि अपने कांग्रेस की प्रक्रिया से पैदा होने वाले विमर्शों की शुद्धता को बनाए रखते हुए राजनीतिक लक्ष्यों के बारे में स्पष्टता के आधार पर अपनी आगे की कार्यनीति तय करती है और अपने सांगठनिक ताने-बाने के नवीकरण को बाधित नहीं होने देती है, तो हमारा मानना है कि इससे भारतीय वामपंथ के एक और नए, गंभीर, लचीले और जुझारू संस्करण का जन्म होगा। इस टिप्पणी में हमने ‘विमर्श की शुद्धता’ की बात पर बार-बार बल दिया है क्योंकि हम संगठन नामक जिस तंत्र को तैयार करके शक्ति अर्जित करते हैं, उसके गठन की प्रक्रिया में इतिहास में अक्सर ऐसी गलत प्रवृत्तियों की प्रबलता रही है, जिनसे यह तंत्र ही हमारे अभिष्ट के विरुद्ध असाधारण रूप से अपरिमित शक्ति हासिल कर लेते हैं। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की क्रांतिकारी जनवादी धारा के विकास से उत्पन्न समाजवाद ही स्वतंत्रता का दुश्मन बन जाता है। विमर्श की शुद्धता के बीच से ही वर्तमान कायरता का भी अंत होगा जो नए नेतृत्व को साहसपूर्ण फैसलों की शक्ति देगा; पराजितों की वर्चस्व की बेजा कोशिश को परास्त करेगा।

बहरहाल, सीपीआई (एम) की 24 वीं कांग्रेस के मध्य से भारतीय वामपंथ के राजनीतिक और सांगठनिक स्वरूप में बड़े परिवर्तनों की तमाम नई संभावनाओं को ही मद्देनजर रखते हुए, आज जब पार्टी कांग्रेस की प्रक्रिया शुरू हो गई है, हम 24वीं कांग्रेस का स्वागत करते हैं और तहे दिल से इसकी सफलता की कामना करते हैं।

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