प्यार के एहसास को ओढ़ना, सलीके से गुजरना

  • आशीष दशोत्‍तर

साहित्‍यकार एवं स्‍तंभकार

हर लफ़्ज़ की अपनी एक जगह मुकम्मल होती है और उसके मायने भी। किस सलीके से उसे वापरा गया है यह उस पर निर्भर करता है कि वह लफ्ज़ कितने सारे आयामों को खोल रहा है। बशीर बद्र साहब की ख़ूबसूरत ग़ज़ल का यह शेर जिसका हर एक लफ्ज़ कई मआनी पैदा कर रहा है। यह शेर जो अपने लफ़्जी मआनी पेश कर रहा है उसके पीछे ज़िंदगी के कई ज़ाविए नज़र आ रहे हैं। हर एक लफ्ज़ के बीच जो खाली जगह है वह कई सारे अर्थो को प्रतिध्वनित कर रही है। शेर जो कह रहा है वह अलग है लेकिन जो शेर नहीं कह रहा है वह सबसे ख़ास है। इस शेर के पीछे कई सारे मंज़र नज़र आ रहे हैं। इन मंज़रों से गुजरते हुए अगर इस शेर को समझा जाए तो इसका खुलासा कुछ इस तरह हो सकता है।

सीधे-सीधे लफ़्जी मआनी पर गौर किया जाए तो हर इंसान अपने ऊपर एक नक़ाब पहन कर चल रहा है। उसका बाहरी आवरण कुछ और है और भीतरी आवरण कुछ और। भीतरी आवरण उसकी हक़ीक़त को ज़ाहिर कर रहा है जबकि बाहरी आवरण उसके भीतर को छुपा रहा है। इस नकली आवरण का कभी भी उतरना तय है क्योंकि इंसान ज़िंदगी की जिस राह से गुज़र रहा है वहां इस नकाब को उतारने के लिए क़दम क़दम पर चिराग़ों को लिए ऐसे लोग खड़े हैं जो उसे हक़ीक़त की ज़मीन पर लाना चाहते हैं। मुश्किल यह है कि इंसान पर बेहतर न होते हुए बेहतर दिखाने का नशा है। क़ाबिल न होते हुए क़ाबिल दिखने का नशा है। व्यर्थ होते हुए अर्थवान दिखने की लालसा है। मन में मैल भरा होने पर भी उजले तन को दिखाने की तमन्ना है। तमाम बुराइयां होते हुए भी अच्छाइयों के प्रदर्शन करने की लालसा है। यह नशा ठीक वैसा ही है जैसा कभी होलिका को था, जिसने अपने भीतर के पाप को जलने के बजाए अपनी गोद में बैठा कर प्रहलाद को जलाने की कोशिश की। लेकिन सच्चाई की अग्नि ने होलिका के झूठ के आवरण को जलाकर ख़ाक़ कर दिया। ठीक वैसे ही अपने बनावटी रूप से गुज़रते इंसान को अपने बाहरी आवरण को कायम रखने की ललक है। यहां उसे बहुत ऐहतियात बरतना होगा वरना उसके ऊपर जो नशा सवार है वह पल में उसे खााक कर देगा, सबके सामने उजागर कर देगा।

अब लफ़्जी मआनी से इतर ग़ौर किया जाए तो कई इशारे मिलते हैं। यह नशा अगर तसव्वुफ़ का है तो इस दीवानगी को कोई समझ नहीं सकता। बदन पर काग़ज़ी पैरहन है वह भक्ति का है। उस पर मुसीबत यह कि इस लबादे को ओढ़े दीवाना उन लोगों के बीच से गुज़रने पर मजबूर है जो तसव्वुफ़ से नाआशना हैं। कभी आप इस पैरहन को ओढ़ कर देखिए, आपके इर्द-गिर्द जमा लोग अपनी हसद के चिराग़ लेकर खड़े मिलेंगे। कोशिश करेंगे कि आपको जला कर ख़ाक़ कर दें। ये परदुखियारे न कुछ करना चाहते हैं, न किसी को कुछ करने देना चाहते हैं। लेकिन ऐसे ही लोगों के बीच रहना है और अपने मेआर को भी गिरने नहीं देना है, इसलिए बहुत संभल कर चलने की ज़रूरत है। जो नशा तुम पर तारी है, वह तुम्हें अपनी मंज़िल तक तभी पहुंचा सकता है जब इस फ़ानी दुनिया के तमाम असरात से बचकर तुम निकल सको।
अगर किसी की मुहब्बत की गिरफ़्त में हो तो प्यार के एहसास को ओढ़ कर निकलना ज़रूरी है। मुहब्बत करने के लिए एक मुहब्बत भरा दिल तो ज़रूरी है ही लेकिन सलीका भी मुहब्बत भरा होना ज़रूरी है। मुहब्बत के लिबास को ओढ़ लो और आगे बढ़ने से पहले यह भी सोच लो कि तुम्हें राह में जो भी लोग खड़े मिलेंगे वे नफरत के चिरागों से तुम्हें नजरे-आतिश करने के लिए बेताब होंगे। किसी को अपना प्यार इतनी आसानी से कहां मिला है? तुम्हें भी नहीं मिलेगा। तुम्हें इन लोगों के बीच से ही गुज़रना होगा। इसलिए संभल कर गुजरना जरूरी है। मुहब्बत के नशे में कदम लड़खड़ाते भी हैं और इस राह पर लड़खड़ाया हुआ कदम तुम्हें अपने मंजिल से दूर कर सकता है।

अगरचे कोई अपनी ख़ूबसूरती पर बहुत इतरा रहा है तो उसे यह जान लेना चाहिए कि फूलों को अक्सर पत्थरों के बीच से ही गुज़रना होता है। अपनी नजाकत पर गुरूर किए बग़ैर उन पत्थरों के बीच से गुजरने का हुनर उसे सीखना होगा। वरना जो नशा अपनी ख़ूबसूरती का, अपनी अदायगी का, अपनी बेहतरी का उस पर तारी है, वह उसे ख़ाक़ भी कर सकता है।

अपने ओहदे और रसूख पर नाज़ करने वालों, ज़रा हक़ीक़त की ज़मीन पर चलने की कोशिश करो। यह ओहदा, नाम और रसूख तो चंद लम्हों का है। अपने आसपास जो शोहरत का घेरा तुम देख रहे हो, वह तो काग़ज़ी है, जो कभी भी उड़ सकता है। यह तुम्हें कभी भी ख़त्म कर सकता है। आख़िर तुम्हें गुजरना तो ज़िंदगी की तेज हवाओं के बीच से ही है! ये हवाओं के चिराग़ तुम्हारे पैरहन को जला सकते हैं, तुम्हें बेलिबास कर सकते हैं। तुम नशे में लड़खड़ाओगे ज़रूर और अपने आप को ख़त्म कर लोगे। इसलिए जरूरी है कि हक़ीक़त की ज़मीन पर क़दम रखो और संभल-संभल कर आगे बढ़ो।

इंसान पर कई बार इल्म का नशा भी सवार होता है। वह अपने आप को बहुत ज्ञानी मान लेता है। परिपूर्ण भी मान लेता है। यहीं से उसके ख़त्म होने की शुरुआत होती है। शाइर कहता है कि तुमने अपने आप को संपूर्ण मानकर जो आवरण पहन रखा है, उसे तुम खुद ही उतार दो और यह समझ लो कि संसार में कभी कोई पूर्ण नहीं होता है। जो अपने आप को पूर्ण मान लेता है उसे उसकी हक़ीक़त से वाबस्ता कराने के लिए कई दीप जल रहे होते हैं। जो उसे अहंकार के अंधेरे से बाहर निकाल कर रोशनी की राह दिखाने की कोशिश करते हैं। अगर तुम अपनी बेहतरी चाहते हो तो इस नक़ाब को अभी उतार दो, और चलना ही चाहते हो तो फिर ज़रा संभल कर चलो क्योंकि तुम जिस नशे में डूबे हुए हो वह नशा तुम्हें आगे नहीं बढ़ने देगा और आगे बढ़ भी गए तो तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा नहीं रहने देगा।

संपर्क: 9827084966

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