
आलेख – पूजा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
फोटो: गिरीश शर्मा
कुछ समय पहले एक मित्र के घर भोजन पर निमंत्रण था। वहां कुछ और अतिथि आए हुए थे। मित्र ने हमारा परिचय कराया। वहां आए एक अन्य अतिथि एक बड़े समाचार पत्र के किसी विभाग में संपादक का दायित्व निभा रहे थे। बातचीत के दौरान यूं ही उनसे पूछ बैठी कि उनकी टीम में कुल कितने लोग हैं? जवाब में उन्होंने कहा कि उनकी टीम में 12 लोग हैं।
अचानक मैं पूछ बैठी, “क्या आपका संस्थान नीतिगत स्तर पर डायवर्सिटी का ध्यान रखता है या फिर क्या आप अपनी टीम चुनते वक्त इसका ध्यान रखते हैं?”
“मतलब! मैं कुछ समझा नहीं।” उनके चेहरे पर विस्मय था।
मैंने आगे कहा, “मेरा कहने का अर्थ है कि क्या आपका संस्थान लोगों को नौकरी देते वक्त या आप अपनी टीम चुनते वक्त यह ध्यान में रखते हैं कि उसमें समाज के सभी तबकों-जातियों और वर्गों का उचित प्रतिनिधित्व हो सके?”
“ऐसी कोई नीति तो नहीं है लेकिन मेरी टीम में तीन महिलाएं हैं।” शायद उन्हें लगा होगा कि वह मुझे संतुष्ट नहीं कर सके हैं तो उन्होंने आगे कहा, “मैं और मेरा संस्थान मेरिट पर भरोसा करते हैं। हम जान बूझकर किसी को आगे पीछे नहीं करते।”
उनका आश्चर्य से भरा चेहरा और उनकी बातों से यह अंदाजा हो गया था कि अगर इस विषय पर आगे बात करती हूं तो वह बहस का रूप ले लेगी, न केवल बहस बल्कि शायद कड़वी बहस का रूप अख्तियार कर लेगी।
मैं मेरिट के बारे में सोचने लगी कि कैसे हमारे देश में जिसे मेरिट अथवा योग्यता कहा जाता है वह जाति व्यवस्था से गहराई से जुड़ी हुई है। समाज में जिन जातियों को ऊंची जातियों का दर्जा हासिल है उन्हें बीती कई सदियों से सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर जिस तरह की बढ़त हासिल है, जिस तरह की सुविधाएं हासिल हैं, वे योग्यता की पूरी परिभाषा को ही बेमानी बना देते हैं। आखिर योग्यता उसी में तो होगी जो सदियों से इन सुविधाओं का लाभ उठाता आ रहा है। रोटी और जीवन का संघर्ष कर रहा व्यक्ति ऐसी योग्यता कहां से हासिल कर पाएगा।
अंग्रेजी भाषा का एक शब्द हमें बार-बार सुनने को मिलता है-प्रिविलेज यानी विशेषाधिकार। हिंदुस्तानी समाज में उच्च जातियों को शुरुआत से ही कई प्रकार के विशेषाधिकार हासिल रहे हैं। आधुनिक समाज में भी इसके उदाहरण आज भी देखने-सुनने को मिल ही जाते हैं। कथित सवर्ण शिक्षकों द्वारा निचली जातियों के बच्चों को पढ़ाने से इनकार करना, उन्हें दूसरों से अलग बिठाना और यहां तक कि पीने का पानी भी अलग करने जैसे उदाहरण हमें आज भी देखने को मिलते रहते हैं। पारिवारिक रूप से संपन्न और समृद्ध होने का बच्चों की योग्यता पर सीधा असर होता है। क्या एक दलित या आदिवासी परिवार में जन्मा बच्चा जिसके माता-पिता रोज मजदूरी करके पेट पालते हों, जो किसी तरह गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ा हो, जिसे अंग्रेजी नहीं आती हो, क्या वह कथित मेरिट के मानक पर कभी शहरी उच्च मध्य वर्ग में पले बढ़े बच्चे का मुकाबला कर पाएगा? नहीं कर पाएगा।
आज़ादी के पहले से लेकर आज तक यही परंपरा है कि अमीर परिवारों के बच्चे आधुनिक निजी स्कूलों और विदेशी विश्वविद्यालयों में जाएंगे और गरीबों के बच्चे सरकारी व्यवस्था में शिक्षा हासिल करेंगे। किसी व्यक्ति की मेरिट में उसके परिवार की पृष्ठभूमि और उसकी आर्थिक सफलता की अहम भूमिका होती है।
इस बारे में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के विचारों को जानना उचित होगा। उनका कहना था कि भारत में सदियों से उच्च जातियों के लोगों को शिक्षा, संसाधनों और सत्ता पर विशिष्ट पकड़ हासिल रही है। अम्बेडकर ने कहा कि इस व्यवस्था के चलते हमारे देश में मेरिट और उच्च जाति के विशेषाधिकार एक दूसरे के पर्याय बन गए।
यह एक स्थापित तथ्य है कि निचली कही जाने वाली जातियों को व्यवस्थित तरीके से बुनियादी साक्षरता, संपत्ति रखने के अधिकार और चुनिंदा पेशों को अपनाने तक से दूर रखा गया। डॉ. अम्बेडकर ने साफ कहा कि इन अभावों का मतलब प्रतिभा अथवा योग्यता की कमी नहीं बल्कि प्रतिभा को जानबूझकर दबाना है।
यहीं से मेरिट का एक भ्रामक कथानक गढ़े जाने की शुरुआत होती है जिसमें सारी योग्यता उच्च जाति के लोगों के बीच ही सिमटी रहती है। इसमें दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था ने भारत में निचली जातियों के दमन और उनके साथ भेदभाव की ऐसी परंपरा की शुरुआत की जिसके चलते उन जातियों के लोगों में प्रतिभाओं और क्षमताओं के विकास को जानबूझकर बाधित किया गया।
उस दिन बातचीत में उन मित्र ने यह भी कहा था कि उनके संस्थान में मेरिट को प्रोत्साहन दिया जाता है और बिना लोगों के जाति-धर्म-सम्प्रदाय देखे उनके काम करने की काबिलियत के आधार पर उनको आगे बढ़ने के मौके दिए जाते हैं।
वास्तव में, खुली प्रतिस्पर्धा की यह बात भी एक भ्रम के सिवा कुछ नहीं है। खुली प्रतिस्पर्धा का बहाना करके समाज में गहरे तक व्याप्त असमानता को ढकने की कोशिश की जाती है। प्रश्न यह है कि जिन जातियों के लोगों को सैकड़ों बल्कि हजारों सालों तक शिक्षा और कौशल विकसित करने से जानबूझकर रोका गया हो, वे खुली प्रतिस्पर्धा में किस प्रकार कामयाबी हासिल कर सकेंगे?
सरकारी शिक्षा और सरकारी उच्च शिक्षा को सस्ता और किफायती बनाने तथा आरक्षण की व्यवस्था लागू करने का उद्देश्य क्या था? इसका उद्देश्य यही था कि अगर शैक्षणिक संस्थाएं देश के सभी जाति-वर्ग के लोगों को निशुल्क उपलब्ध होंगी तो सभी को बेहतर प्रतिस्पर्धी बनने में मदद मिलेगी। बिना ऐसी व्यवस्था के वंचित जातियों के लोगों को प्रतिस्पर्धा का सामना करके आगे आने को कहना सिर्फ एक मजाक था।
कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत में मेरिट मोटे तौर पर एक सामाजिक संरचना है। असमानता से भरे हमारे समाज में जहां प्रभावशाली क्षेत्रों में चुनिंदा जातियों का प्रभुत्व है वहां सही मायनों में मेरिट का सम्मान तभी हो सकेगा जब सदियों से चले आ रहे व्यवस्थित भेदभाव से निजात पाई जा सके। इसका एक ही उपाय है। समाज को अधिक से अधिक समावेशी बनाना। एक न्याय आधारित और समतापूर्ण समाज ही इस जाल को काट सकता है। एक ऐसा समाज जहां किसी का जन्म, लिंग, जाति या वर्ग यह निर्धारित नहीं करेगा कि उसे कौन से अवसर मिलेंगे या नहीं मिलेंगे। यदि हम ऐसा समाज बना पाए तभी सही मायनों में मेरिट सही अर्थों में लागू हो सकेगी।
एक खाली दिमाग कल्पनाएं आसानी से कर लेता है। इससे निकलने का प्रयास करें क्योंकि सामान्यतः आपने भावनात्मक रूप से आधारहीन बात की है। खुद ही अपने तथ्यों में उलझती नजर आ रहीं हैं। ध्यान रखें कि किसी को सुविधा दी जा सकती है उसे प्रतिस्पर्धा से हटा के अलग से परिणाम नहीं दिया जा सकता । कमसे कम अपने वर्ग में तो प्रतिस्पर्धा करना ही होगा।
योग्यता, समानता, समान अवसर, डायवर्सिटी और इसके पीछे छिपी असली मंशा को बेपर्दा करता यह आलेख बेहद उम्दा। वर्तमान समय में ऐसे संवेदनशील विषय पर अब लोग खुलकर लिखना भूल ही गए हैं।।
योग्यता, समानता, समान अवसर, डायवर्सिटी और इसके पीछे छिपी असली मंशा को बेपर्दा करता यह आलेख बेहद उम्दा है। वर्तमान समय में ऐसे संवेदनशील विषय पर अब लोग खुलकर लिखना भूल ही गए हैं।। समाज के लिए जरूरी इन विषयों को ऐसे आलेखों के माध्यम से ही मुख्य पटल पर लाया जा सकता है।