
- राघवेंद्र तेलंग
सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
मेवाती गुरूकुल ऑफ सितार की वर्कशॉप: धीरे-धीरे अनुशासन अभ्यास नहीं बल्कि आनंद हो जाता है।
सितार सांगीतिक स्वर लहरियों को साधने का वाद्य है। इसका वादक वही हो सकता है जिसने मां सरस्वती की साधना के लिए अपने को समर्पित कर दिया हो। यह विषय आस्था और विश्वास का है और इसके लिए अपने शरीर को मंदिर मानकर वहां विराजमान शिवशक्ति से प्रार्थना की शुरुआत कर यात्रा की तैयारी करना होती है। हर विद्या अर्जित करते समय मां देवी सरस्वती का आह्वान अपने को भुलाकर,कर्ता भाव के अहं को तिरोहित कर ही किया जाता है। पात्र खाली होगा तो ही उसमें ज्ञान रूपी ऊर्जा उड़ेली जा सकेगी। ऐसे निरपेक्ष को ही डिवाइन से साधिकारी होने का वरदान प्राप्त होता है।
संक्षेप में कहें तो स्वर लहरियों के विषय ज्ञान का संसार के फूलों की भाषा डिकोड कर उनकी खुशबू को अपने अंदर समाहित करने के कौशल का शास्त्र है। यह एक आदर्श मनुष्य का अपने को रूपांतरित कर चंदन-सा सुवासित व्यक्तित्त्व विकसित करने का विज्ञान तो है ही। संगीत का मनुष्य के भीतर समाहित होकर प्रस्फुटित होना एक तरह से इवॉल्यूशन का, सभ्यता का चरम है।
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पद्धति में निर्बाध रूप से चली आ रही गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति का मुकुट है। संगीत के विभिन्न गुरुकुल या कहें संगीत के घराने कला के माध्यम से अस्तित्व के साथ पूरी तरह एन्टैन्गलमेंट कर सकने वाला मानवीय व्यक्तित्व चिरकाल से रचते आ रहे हैं। संगीत आपमें उतरकर आपका आविष्कार करता है। एक बार यह आपमें आत्मप्रकाश जगाकर आनंद की अनुभूति की चेन रिएक्शन की प्रोसेस को सदा के लिए इग्नाइट कर देता है, लाइटर की तरह।
इस आलेख को लिखने के पहले मैंने हमारे समय के महान भारतीय दार्शनिक ओशो के संगीत के बारे में विचारों की तलाश की। यह तलाश पूरी हुई अग्रज और मित्रवर संजीव मिश्रा द्वारा उपलब्ध कराए आलेख के जरिए। प्रस्तुत हैं महान विचारक ओशो के उद्बोधन से लिए गए आज के हमारे विषय संगीत से संबंधित विचार ;
भारतीय शास्त्रीय संगीत की साधना बहुत कठिन है। यदि अनुशासित ढंग से इसका अभ्यास न किया जाए तो इसकी निपुणता में कसर रह जाती है। संगीत पर अपना अधिकार जमाए रखने के लिए सदा उसकी तैयारी में लगे रहना पड़ता है। इसके अभ्यास मे जरा सी भी लापरवाही नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसकी प्रस्तुति में वह त्रुटि तत्क्षण खटक जाती है। एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ ने कहा है : अगर मैं तीन दिन तक अभ्यास न करूं, तो श्रोताओं को इसका पता चल जाता है। अगर मैं दो दिन अभ्यास न करूं तो संगीत के विशेषज्ञों को पता चल जाता है। और अगर मैं एक दिन अभ्यास न करूं तो मेरे शिष्यों को मालूम हो जाता है। जहां तक मेरा अपना प्रश्न है, मुझे तो निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। एक क्षण के लिए भी मैं इसे छोड़ नहीं सकता। अन्यथा तुरंत मुझे खटक जाता है। कि कहीं कुछ गड़बड़ है। रात भी की अच्छी नींद के बाद सुबह मुझे कुछ खोया-खोया सा लगा है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत बहुत ही कठोर अनुशासन है। परंतु यदि तुम इस अनुशासन को अपनी इच्छा से अपने ऊपर लागू करो तो यह तुम्हें यथेष्ट स्वतंत्रता भी देता है। सच तो यह है कि अगर समुद्र में तैरना हो तो तैरने का अभ्यास अच्छी तरह से करन पड़ता है। और अगर आकाश में उड़ना हो तो बड़े कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है। लेकिन यह किसी ओर के द्वारा तुम्हारे ऊपर थोपा नहीं जा सकता। सच तो यह है कि जब कोई दूसरा तुम पर अनुशासन ला दे तो यह बहुत अप्रिय लगता है। अनुशासन शब्द के अप्रिय हो जाने का मुख्य कारण यही है। अनुशासन शब्द वास्तव में पर्यायवाची बन गया है माता-पिता,अध्यापक जैसे लोगों की कठोरता का,जो अनुशासन के बारे में कुछ भी नहीं जानते। उनको तो इसका स्वाद भी मालूम नहीं।
संगीत का वह गुरु यह कह रहा था कि अगर मैं कुछ घंटे भी अभ्यास न करूं तो दूसरे किसी को तो पता नहीं चलता परंतु फर्क मालूम हो जाता है। इसलिए इसका अभ्यास निरंतर करते रहना होता है और जितना ज्यादा तुम अभ्यास करो,उतना ही ज्यादा अभ्यास करने का अभ्यास हो जाता है और वह आसान हो जाता है। तब धीरे-धीरे अनुशासन अभ्यास नहीं बल्कि आनंद हो जाता है। (ओशो)
हंसध्वनि में आज बात मुंबई में आयोजित दो दिवसीय सितार प्रशिक्षण शिविर की होने जा रही है। इसे प्रतिष्ठित संगीत गुरूकुल मेवाती गुरूकुल ऑफ सितार,मुंबई ने अपने प्रतिबद्ध और संकल्पित शिष्यों के लिए विशेष तौर पर मुंबई के मीरा रोड के एक प्राकृतिक रमणीय स्थान में आयोजित किया था। इस शिविर के संयोजक व प्रायोजक तथा मेरे अभिन्न मित्र (कवि उपनाम सरस्वतीचंद्र) सितार वादक शशिकांत पाठक ने मुझे समापन अवसर पर विशेष रूप से आमंत्रित किया था।

ऐसा पहली बार देखने में आया कि जिन पौध को 15-20 साल पहले रोपा गया हो वे अपने क्रमिक विकास की प्रक्रिया को नई पौध के साथ बैठकर अपने को अभी भी उसी तरह लेते हों जैसे उन्हें मिट्टी में अभी-अभी ही रोपा गया हो। बरगद,पीपल जैसे सिद्ध पेड़ ऐसी ही। मनोभूमि से तैयार होते हैं। गुरु के सान्निध्य में रियाज़ की प्रोसेस पवित्र स्नान जैसी होती है जो कि एक प्रक्रिया है सतत शुद्धिकरण की,जमी धूल झाड़ने की और गुरु द्वारा अपनी निगरानी में पौध को सिंचित करते रहने की।
मेवाती सितार घराने के परिवार के वरिष्ठ कलाकार और इंदौर से संबद्ध वरेण्य कला विभूति संगीत गुरु व उस्ताद सिराज खान साहब के संगीत प्रशिक्षण कौशल से परिचित होने का जो सौभाग्य और उनका आत्मीय सान्निध्य इस आयोजन में मिला उस सुगंध से सराबोर होकर ही हंसध्वनि के इस आलेख के शब्द पुष्पित हुए हैं।
गुरुजी ने शिविर के प्रतिभागी व अपने शिष्यों से मेरा परिचय कराया और उन्हें निर्देशित किया कि वे सब मेरी उपस्थिति का लाभ संगीत के विज्ञान-टेक्नालॉजी के आधुनिक पक्ष से जुड़े सामयिक प्रश्नोत्तर के माध्यम से अवश्य लें। ऐसा सफलतापूर्वक हुआ भी, हम सबने मिलकर संगीत के तरंग विज्ञान,वेव्ह मेकेनिक्स व आधुनिक तकनीक की संबद्धता की सीमाएं व कांशसनेस से जुड़े बुनियादी संबंधों और कालातीत परंपरा के उदाहरणों पर बात की। शशिकांत,नागनाथ, ऋषिकेश व अमन राग तेलंग ने संगीत के क्वांटम मेकेनिक्स के पक्ष और प्रज्ञा के उभार से जुड़े पक्षों पर बात छेड़ी और अपने गहन एक्सपोजर का परिचय दिया। गुरूजी सिराज खान साहब जी ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि संगीत से जुड़े मनुष्य के मनोवैज्ञानिक और व्यवहारगत पक्षों से भी हर कलाकार को परिचित होना चाहिए। आज की भाग-दौड़ भरी जीवनशैली में बढ़ते स्ट्रेस और एंग्जायटी से निपटने के लिए भी लोग संगीत के निकट आ रहे हैं। संगीत एक तरह से तारणहार रहा है और यह उजला पक्ष भारतीय समाज के जागृत विवेक का स्वत: परिचायक है। संगीत कला के विविध सकारात्मक व लाभकारी फैक्टर्स मनुष्य के व्यक्तित्व के इवॉल्यूशन और हर तरह की बढ़त की अपेक्षाओं से जुड़े हैं।
गुरुजी ने परस्पर जारी संवाद के बीच अंतर्ज्ञान यानी इंट्यूशन अर्थात इलहाम के बारे में विस्तार से जानने की जिज्ञासा प्रकट की वह भी मुस्कुराकर। इस संकेत को मैं इसलिए समझ गया क्योंकि गुरुजी सिराज खान साहब यह जानते-बूझते हुए भी मुझसे वहां यह कहलवाना चाह रहे थे कि बिना ईश्वरीय आह्वान व प्रतीति के कोई भी कलाकार अपनी यात्रा को गुणवत्तापूर्ण नहीं बना सकता। गुरु और ईश्वर का संरक्षण हर उस कलाकार को मिलता है जो विश्वास व समर्पण जैसे कठिन मूल्य को अपनी संकल्प शक्ति से साधता है। ठीक अर्जुन की तरह। गुरुजी का अतिथि को सम्मानित महसूस कराने का यह अंदाज निराला था जिसने मुझे विज्ञ होने के एक अनोखे अहसास से संपूरित किया।
मैंने प्रशिक्षु कलाकारों को उदाहरणों के जरिए डिकोड कर बताने की कोशिश की कि वादन के दौरान श्रोताओं व दर्शकों से कनेक्टिंग संवाद कैसे अतिसूक्ष्म ढंग से यानी क्वांटम प्रकार से ही संपन्न होता है। बिना कहे कहना यही तो कहलाता है। रोशनी की लकीरों के जरिए कहन को उस पर सवार कर दो विवेकवान लोग जब आंखों ही आंखों में मुस्काराएं तो समझ लेना चाहिए कि नज़र से नज़र की बात भी हो गई और बिना बात की मुलाकात भी हो गई। एक साथ कई गूंजती सितार देखने का अनुभव विरल था। युवा पीढ़ी की इस वर्कशॉप का यह आयोजन बड़ा आल्हादकारी भी लगा।
सबसे और बहुत बतियाने का मन था पर समय की सीमा थी सो चलते-चलते इस परिवार के दूसरे महत्वपूर्ण सदस्य व रिसोर्स पर्सन तथा प्रख्यात अंतरराष्ट्रीय सितार वादक उस्ताद असद खान साहब भी स्वयं आकर मुझसे गले मिले और मुझे भाव-विभोर कर दिया। नोबेल पीस फाउंडेशन के समारोह में सितार वादन के लिए आमंत्रित किए जा चुके एक लोकप्रिय और वरेण्य कलाकार जब ऐसी विनम्र निकटता जाहिर करें तो मान लेना चाहिए कि …आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा! ज्ञातव्य है संगीतज्ञ असद खान साहब भारत की शान और ऑस्कर से सम्मानित प्रख्यात अंतरराष्ट्रीय फिल्म संगीतकार ए.आर. रहमान जी के निकटतम सहयोगी हैं।
कुछ बाल गोपाल जैसे शौर्य, समदर्शी और अज़ान भी इस शिविर में अंकुरण के लिए चयनित थे, उनसे भी मिलना हुआ। विभिन्न शहरों से आए कई प्रतिभागियों को भोपाल के कलाकारों की ओर से मैंने प्रतिनिधि के बतौर शुभकामनाएं दीं। गुरूजी सिराज खान साहब जो नाम से ही साक्षात ऊर्जा के स्रोत हैं उनका उस दिन जन्मदिन भी था, मैंने हार्दिक शुभकामनाएं ज्ञापित कीं। ऐसे सूर्य के उदय दिवस पर यहां हंसध्वनि के मंच से भी हम कहते हैं- जीवेम् शरद: शतम्।
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