भाषा की समझ कितना बड़ा संकट हल कर सकती है या हमें कितनी बड़ी मुसीबत में डाल सकती है, यह युद्ध या प्रेम में ही समझा जा सकता है। अक्सर लगता है कि दो राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकात में दुभाषिए का कितना बड़ा महत्व होता है। अगर दुभाषिए ने एक शब्द के मंतव्य को पकड़ने में जरा सी चूक कर दी तो…? इस तो के कई परिणाम है। संभव है यह एक त्रुटि राष्ट्रों को बर्बाद कर दें। वहां के मासूम नागरिकों को बिना कसूर मौत की सजा दे दे। इतिहास में ऐसी चूक के कई उदाहरण हो सकते हैं लेकिन आज यहां जिस चूक के बारे में बाद की जा रही है वह हमारे युग की सबसे भयंकर भूल में शुमार है। शब्द के अनुवाद की एक चूक जिसने सीधे-सीधे 2 लाख 14 हजार लोगों की जान ले ली। उस चूक से मिला दर्द आज भी सालता है। अफसोस कि युद्ध उन्माद में उस शब्द के अनुवाद की गलती सुधारी नहीं गई। अगर सुधार ली जाती तो आज का इतिहास कुछ ओर होता।
हमारे युग की सबसे भयंकर भूल को सुधार लेते तो कुछ और होता इतिहास
सन् 1945 का टोकियो। वसंत ऋतु में जापान बुरी तरह हारता जा रहा था। भित्रराष्ट्रों के विमानी हमले रेल, तार, सड़क, पुल और मकानों को उतनी तेजी से नष्ट करते जा रहे थे, जितनी तेजी से कि वे बन नहीं सकते थे। कामचलाऊ पुल भी बनाने का जापानियों को अवसर नहीं मिल रहा था। जापान परेशान था। जापान पराजित हो रहा था। जापान मिट रहा था। शहरों और कस्बों में खंडहरों से धुएं को धाराएं उठ रही थीं। लाखों लोग वेधरवार होकर इधर-उधर भटक रहे थे। खाने-पीने की चीजें खत्म हो गई थीं।
जापान का अंतिम समुद्री बेड़ा गर्क हो चुका था।
किंतु जापान की सर्वोच्च सैन्य हाई कमान ने तलवार म्यान में रखने से इंकार कर दिया था और प्रतिज्ञा की थी कि जब तक जान में जान है, आन और शान नहीं जाने पाएगी। जापान के युद्ध-वादियों का तर्क था कि वे शीघ्र ही निर्णायक युद्ध में विजय प्राप्त करने ही वाले हैं। युद्धमंत्री जनरल कोरेचिका अनामी ने वचन दिया कि आक्रमणकारी ओकिनावा से परे भगा दिए जाएंगे।
इन युद्धवादियों का विरोधी एक छोटा-सा दल था, जापान के कूटनीतिज्ञों का, जिसने यह महसूस कर लिया था कि अंत तक लड़ने की अपेक्षा समर्पण में जापान की बहुत कम हानि है। उस समय रूस और जापान के बीच युद्ध अभी छिड़ा नहीं था। इसलिए इन नीतिज्ञों ने रूस से इस सम्बन्ध में चर्चा चलाई कि शांति-स्थापना हो जाए। इसमें इन लोगों का यह उद्देश्य था कि अगर अभी समर्पण कर दिया तो जापान को कुछ अच्छी शर्तों पर कई सुविधाएं मिल जाएंगी, वरना बाद में तो बिला शर्त समर्पण करना ही पड़ेगा।
जून महीने में भूतपूर्व प्रधानमंत्री कोकीहिरोता रूसी राजदूत जेकब मलिक से मिला। किंतु मलिक ने उसके प्रस्तावों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई। तब 12 जुलाई के दिन जापान के सम्राट ने राजकुमार कोनेये को अपने निजी संदेश के साथ शांति का प्रस्ताव लेकर भेजा।
कोनेये को ये आदेश दिए गए थे कि किसी भी कीमत पर लड़ाई खत्म होनी चाहिए। वह इस हेतु मास्को गया। मगर उस वक्त स्तालिन और मॉलोत्तोव पोट्सडम कान्फ्रेंस में जानेवाले थे, अतः उन्होंने क्षमा-याचना की और चलते बने। पोट्सडम में स्तालिन ने अमरीका के राष्ट्रपति ट्रमेन को बातचीत में यह बताया कि जापान ने शांतिसंधि की बात चलाई है; लेकिन रूस सरकार को जापान के वचन पर विश्वास नहीं, इसलिए बात ठुकरा दी गई है।
26 जुलाई, 1945 के दिन जापान को वह प्रसिद्ध अल्टीमेटम दिया गया, जिसपर ब्रिटेन, अमरीका और चीन के हस्ताक्षर थे। इसके अनुसार मांग की गई थी कि जापान आत्मसमर्पण कर दे अथवा सर्वनाश के लिए तैयार हो जाए। जापान को आत्मसमर्पण का मार्ग अच्छा लगा, क्योंकि सुविधाओं के अनुसार उसे अपनी सरकार स्वयं बनाने का मौका मिल रहा था और एक राष्ट्र के रूप में जापान नष्ट नहीं होता। इसमें यह भी संकेत दिया गया था कि जापान के सम्राट से सिंहासन नहीं छीना जाएगा।
जापान के सम्राट ने अपने विदेशमंत्री शिगेनोरी तोजो से कहा कि बिना किसी हिचकिचाहट के उसे मित्र राष्ट्रों के अल्टीमेटम के के अनुरूप आत्मसमर्पण का प्रस्ताव पसंद है।
तब जापान के मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई। इस बैठक में मित्र राष्ट्रों के अल्टीमेटम पर विचार-विमर्श किया गया। 27 जुलाई का निर्णय यही रहा कि जापान में जल्द से जल्द शांति की स्थापना हो जानी चाहिए। इस निर्णय का इस बैठक में युद्धमंत्रीअनामी और चीफ ऑफ स्टाफ ने बहुत विरोध किया।
शांति-स्थापना और समर्पण साधारण काम नहीं था। कई अड़चनें सामने थीं। रूसियों के साथ आत्मसमर्पण की जो चर्चा चल रही है, उसका क्या होगा? और अभी दो दिन पूर्व, एक अंतिम प्रस्ताव मास्को भेजा गया था। इसके अलावा एक और तथ्य था, जिसपर विचार करने को मंत्रिमंडल बाध्य था। अभी तक जापान ने पोट्सडम घोषणा सिर्फ रेडियो पर चुनी थी। क्या जापानी सरकार इस तरह की गैर-सरकारी सूचना के आधार पर काम कर सकती है? फिर भी मित्र राष्ट्रों की शर्तों की स्वीकृति की घोषणा में अधिक विलम्ब नहीं था।
जापानी प्रधानमंत्री सुजूकी ने 28 जुलाई की अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में बयान दिया कि मंत्रिमंडल ‘माकुसत्सु’ की नीति को चालू रखेगा। इस शब्द का अंग्रेजी में कोई पर्याय नहीं मिलता है और जापानी भाषा में इसके दो अर्थ निकल सकते हैं, एक, ‘ध्यान न देना’ और दूसरा ‘टिप्पणी से दूर रहना’। परन्तु दुर्भाग्यवश जापानी समाचार एजेंसी दोमो के अनुवादकों को यह पता न था, अथवा उन्होंने यह जानने का प्रयत्न न किया कि उनके प्रधानमंत्री के मन-मस्तिष्क में कौन-सा शब्दार्थ था। जल्दी-जल्दी उन्होंने प्रधानमंत्री के बयान का अंग्रेजी अनुवाद किया और गजब हो गया कि उन्होंने गलत शब्द का चुनाव किया।
रेडियो टोकियो से मित्र राष्ट्रों को बिजली की तरह यह समाचार मिला कि सुजूको मंत्रिमंडल ने पोट्सडम अल्टी-मेटम पर कोई ‘ध्यान न देने’ का निर्णय किया है।जापानी आकाशवाणी की इस घोषणा का तात्कालिक परिणाम कुछ इस प्रकार भी प्रकट हुआ कि जापान के बाहर, लंदन के ‘द टाइम्स’ ने 28 जुलाई, 1945 को लिखा- “टोकियो मित्र राष्ट्रों की शर्तों पर ध्यान नहीं देगा-लड़ते रहने का दृढ़ निश्चय।”
इसके बाद की कहानी इतिहास बन गई! इस अस्वीकृति के जवाब में मित्र राष्ट्रों के लिए यह साबित करता जरूरी हो गया कि अल्टीमेटम का अब भी वही मतलब था, जो शुरू में था। और जापान को अच्छी तरह समझा देने के लिए एटम बम ही सर्वथा उचित अस्त्र होगा।
इन प्रश्नों का आज तक कोई उत्तर न मिला कि जापानी सरकार ने मोकुसत्सु के अर्थ की गलती को वैसी हो क्यों रहने दिया और उसें दुरुस्त क्यों न किया? इतने भयंकर परिणाम पैदा करने वाली गलती की गम्भीरता को जापानियों ने क्यों न समझा?
उस समय जापानी सेना शांति के प्रचारकों की गिरफ्तारियां कर रही थी। जो भी कोई उनका विरोध कर रहा था, उसे वे तुरंत गिरफ्तार कर रहे थे, चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो! शांति चाहनेवाले पक्ष को 27 जुलाई की मंत्रिमंडल की बैठक तक अपनी बात पहुंचाने के लिए कई माह प्रयत्न करना पड़ा था। स्थिति अधर में भूलती रही, क्योंकि थल सेना और नौसेना नियंत्रण के बाहर थीं।
यह धारणा बन गई कि ‘प्रधानमंत्री सुजूकी ने मित्र राष्ट्रों के अल्टीमेटम को ठुकराकर उन्हें चुनौती देने का साहस किया है।’ इस तथ्य से जापान के युद्धवादियों के हाथ में शक्ति संतुलन चला गया और वहां के शांतिवादियों को अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर छिपना पड़ा।
इन सभी घटनाओं के दुष्परिणाम पूरे विश्व को विदित हैं-
हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए गए; ऊपर रूसी सेनाएं मंचूरिया में प्रविष्ट हुई और पूर्व में रूस अत्यंत शक्तिशाली बन गया। जापान की हार हुई।
हिंदी, हिंद पॉकेट बुक्स के प्रकाशन विश्व युद्ध की रोमांचक कहानियां (परदेशी द्वारा) से साभार