
- सोनल
लेखक साहित्यकार हैं।
यात्रा संस्मरण: धूप, हवा, बादल …
विस्परिंग वैली के गेट पर टैक्सी से उतरते ही वह मिला। पहाड़ के लगभग हर घर में पलने वाला, घने झबरीले बालों वाला, गबरू तगड़ा सुल्तान।
गुर्र… उसकी रोरिंग की कल्पना से मेरा मन काँपा। लेकिन उसने अपना सिर उठाया, आँखों पर बल डाल कर अतिथियों की ओर देखा और फिर पहाड़ की ओर देखने लगा। और जैसे ही हम कॉटेज की ओर बढ़े, वह हमारे आगे-आगे किसी अनमने बच्चे की तरह चल पड़ा।
आश्चर्य! न सूंघना, न भौंकना और न ही पूँछ हिलाना! ये तो बड़ा भला मानुस है भई! अरे हाँ, भला कुत्ताI एक अजीब गंभीर और अनासक्त भाव है, उसके चेहरे पर ही नहीं, उसके पूरे होने में।
सड़क पर लगे गेट से ढलान लिए एक सुंदर, फूलों भरा रास्ता अंदर को लुढ़काए लिए जाता है और कुल सौ कदम पर आप उस नन्ही सी कॉटेज के सामने खड़े होते हैं। घने पेड़ों और फूलों की बेलों में डूबे इस परिसर में आते ही बगल से गुजरती रानीखेत-अल्मोड़ा सड़क; आँखों से ही नहीं मन से भी ओझल हो जाती है। अब एक ओर पहाड़ है और दूसरी ओर घाटी।
इसीलिए तो… इसीलिए तो इस यात्रा के ‘चार दर्शनीय स्थल’ पर जाने का मोह छोड़कर हमने यहाँ रानीखेत के नजदीक मचखाली गाँव की इस कॉटेज में रह जाना चुना था।
पुराने अंग्रेजी ढंग की इस कॉटेज की अपनी एक एकांतिक दुनिया है। खासकर इसका बरामदा बहुत सुंदर है। हम यहीं कुर्सियों पर बैठ गए।
आसपास नन्हे-नन्हे गमलों और क्यारियों में फूल खिलें हैं। पीछे मझौले कद के सेब,आडू और खुबानी के वृक्ष हैं। खुबानी और सेब पर तो फल भी लगे हैं। लेकिन अभी कच्चे हैं।
सामान अंदर रख कर मैं बाहर आई तो देखा जा चुकी धूप लौट आई है। हवा बादलों को उड़ा रही है और आहिस्ता-आहिस्ता सामने पहाड़ की चोटियाँ परत-दर-परत उग रहीं हैं। पहाड़ में यह धूप, हवा और बादल का खेल खूब चलता है।
अहा! बस इसी के लिए तो! ऐसे समय मुझे कैमरा उठाने का मन नहीं करता। मेरी आँखें दूर पहाड़ की चोटियाँ, घाटी, चीढ़ के हवा में डोलते वृक्ष से होकर पास ही खिले छोटे-छोटे फूलों तक लौटी तो देखा लॉन पर वह बैठा है। उसी तरह चुप, शांत।
मैं उठकर टहलते हुए कॉटेज के बायीं ओर खुले आँगन के छोर तक चली गई। रेलिंग के पास पहुँच कर लगा, अरे! यह आँगन नहीं छत है! यह भी पहाड़ का आनंद है। हर तल छत है और साथ ही साथ आँगन भी। यहाँ खड़े होते ही आँखों के सामने नीचे गहरी घाटी खुल जाती है जो चीढ़, बुरांश और ओक के पेड़ों से भरी है।
जब बाहर ठंड सी लगने लगी तो हम लिविंग रूम में सोफों पर पसर गए। कमरों में जाने का किसी का मन नहीं। यहाँ कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से बाहर आसमान की जगमग की झलक मिल रही है।
हमारी पहाड़ की मेजबान डरी हुई थीं कि हम भर गर्मी में आ रहे हैं। कहीं, ‘रानीखेत में पंखे चलाने पड़ते हैं’ – जैसा बुरा अनुभव साथ लेकर न जाएँ! ‘आप मानसून में आते न! या ठंडों में!’ मई-जून में ‘जंगल सूखे भूरे हो रख्खे होगे’ ढलानों पर बिछे ‘चीढ़ के पिरुल’ में चाहे जब आग धधक जाती है।

लेकिन हम सदा के भाग्यशाली यात्री हैं। बारिश और ठंडी हवाएं साथ लाए हैं। हमने यहाँ इन्हीं दिनों में काली अंधेरी रात में बिजली की कौंध से जगमग हो जाता आसमान देखा है, झमाझम बारिश में घिर गए ‘द कैफे’ में भाप उठती गर्म-गर्म कैपेचिनो पी है और सुबह सुबह ठंडी हवाओं में फर्र फर्र उड़ते जैकेट सम्हालते हुए लम्बी टहलान का आनन्द लिया है।और क्या चाहिए आदमी को!
सुबह तरह तरह की चिड़ियाँओं के स्वर से आँख खुली। जब लिविंग हॉल के झीने परदे हटाने से भी संतोष नहीं हुआ तो हम बाहर निकल आये। सामने खड़े चीड़ के वृक्ष हवा में डोल रहे थे। और उनके लम्बी हरी सुईयों जैसी पत्तियों के गुच्छे सुनहरी धूप में चिलक रहे थे।
अहा ! कैसा खिला हुआ दिन है !
अब हम बरामदे कुर्सियों पर अधलेटे, चाय की चुस्कियां ले रहे हैं। बातों का दौर साथ साथ चल रहा है -पेड़ -पहाड़ से लेकर चेखव और लालू यादव तक की बातें ।इसी बीच कोई फूलों और तितलियों को फोटो में पकड़ कर व्हाट्स एप के जरिये दोस्तों और परिवारजनों को भेजने में लगा है।
और यहीं, सामने लॉन पर सुल्तान बैठा है। वही झबरीला, अपने में खोया प्राणी। उसी तरह शान्त, एकदम चुप। बीच बीच में वह पंजों पर सिर टिका कर गहरी सांस लेता है और किसी सोच में डूब जाता है।

मेरे मन में जाने कैसे यह एक विचित्र सा ख्याल बैठा हुआ है कि हम मनुष्यों में बोलने या प्रकट करने की जितनी बेचैनी है-उतनी दूसरे प्राणियों में नहीं है। इसलिए हमने भाषा विकसित की। बल्कि ऐसा लगता है कि हमें छोड़कर दूसरे प्राणियों को भाषा की उतनी दरकार ही नहीं है। जितना, जो जरूरी है; अर्थपूर्ण है; वह वे यूं ही प्रकट करना जानते हैं। और इस तरह वे अपने में इतने संतुष्ट से हैं कि चुप रहते हैं। खासकर कुत्तों की भावपूर्ण आँखें देखकर तो मुझे यह ख्याल और भी पक्का हो जाता है।
लेकिन सुलतान को देख कर लगता है वह किसी भी तरह कुछ बोलता ही नहीं-न आँख से, न किसी भंगिमा से, किसी भी तरह से नहीं। जैसे,वह कुछ कहना ही नहीं चाहता। जैसे, बोलने का उसका मन ही नहीं। जैसे वह किसी गहरे मौन में है।
“कितना शांत रहता है भाई यह! साधु है यह तो!” केयरटेकर वर्मा जी से मैंने कहा।
“ऐसा नहीं था यह” … चाय के सामान समटते हुए वर्मा जी बोले और फिर एक ऐसी निगाह सुल्तान की ओर डाली जैसे कोई अपने बीमार बच्चे को दुलार और करुणा से भर कर देखता हो।
“बहुत चंचल था यह तो! इधर छोड़ा और उधर भागा। ‘रानीखेत गोल्फ कोर्स’ तक चला जाता था। मुश्किल से दूर से ढूँढ कर लाना पड़ता था वापस।”
“क़रीब दो साल हो गए, इसके साथी को बाघ ले गया तब से ये ऐसा हो गया !”
“अच्छा ! बाघ यहाँ तक आ जाता है?”
“हाँ। जंगल लगा हुआ ठहरा… और फिर कुत्ते-बकरियां जहाँ होते हैं वहाँ तो वो सूंघता हुआ आ जाता है। और मौका मिलते ही उठा कर ले जाता हैI”
“ऐसे ही तो टेडी को ले गया। टेडी और इसका हमेशा का साथ था। वो इससे पहले से यहाँ था। ये छोटा सा आया था तब से उसी के साथ रहता था। हमेशा उसके पीछे पीछे ही घूमता था।”
“उस दिन जब बाघ आया तब भी ये उसके साथ ही था। वो एकदम भौंकने लगा और उधर को दौड़ गया। उसका ऐसा ही स्वभाव था। ये थोड़ा डरपोक है वो बहादुर था। बाघ की गंध आते ही भौंकने लगता था और उधर को ही दौड़ पड़ता था। उसी चक्कर में तो पकड़ लिया बाघ ने उसको। ये उस समय उसके पीछे को ही था…ये बच गया।”
“उसके बाद तो इसने कोई दो महीने तक ठीक से खाना भी नहीं खाया था।”
ओह! मैंने सुलतान की ओर देखा। अब मुझे उसका अकेलापन दिखाई दिया, किसी के पीछे रह जाने का, छूट जाने का, अकेले रह जाने का अकेलापन।
सुलतान ने एक गहरी साँस छोड़कर मुँह दूसरी ओर मोड़ लिया। जैसे, वह अपनी कहानी सुन रहा हो और उसे वह दिन याद आ गया हो।
बाघ झाड़ी में छिपा होगा। उसकी आँखें चमक रही होगीं। उसकी गंध इसे भी आई होगी। इसने चाहा भी होगा कि टेडी उस ओर न जाए। लेकिन टेडी तो दौड़ पड़ा होगा! और फिर जो हुआ इसने अपनी आँखों से देखा होगा। इसके सामने से बाघ इसके साथी को… लहुलुहान टेडी को घसीटता ले गया होगा!
एकाएक मुझे ‘चांदनी’ की याद आ गई… वही ‘अब्बू खां की बकरी’ कहानी जो बचपन में पढ़ी थी। यहीं करीब ही तो है अल्मोड़ा! वहीं की तो बात है! उसी कहानी से पहली बार किसी पहाड़ी की बस्ती का चित्र मन में बना था। वह कहानी मन में धंसी सी बैठी है।
पहाड़ का जंगल। आजादी से उछलती कूदती चांदनी। कोमल नन्ही सफेद बकरी, जिसपर कहीं कहीं काले छीटें। इसीलिए तो अब्बू खां ने उसका नाम रखा था चाँदनी! उसे जंगल से प्यार था। इसीलिए वह अब्बू खां की देखभाल और बाड़े की सुरक्षा छोड़ कर भाग आई थी।
शाम का झुटपुटा! बेचारे अब्बू खाँ उसे पुकार रहे हैं! लेकिन चांदनी लौटना नहीं चाहती। वहीं पास ही झाड़ी में भेड़िया घात लगाए बैठा है।
भेड़िये की लाल-लाल आँखें चमक रही होंगीं। चाँदनी के मुलायम कान कैसे झूल गए होगें जब उसने चौकन्ना होकर देखा होगा चारों ओर!
लेकिन मौका देखते ही ‘वह’ सामने आ गया। कहानी कहती है, पास के पेड़ों पर बैठी चिड़ियाओं ने देखा चांदनी भागी नहीं, वह लड़ पड़ी उस भेड़िये से, जिसके हाथों उसका मरना तय था।
कहानी वहीं जंगल में समाप्त हो गई, अब्बू खां के बारे में कुछ कहे बिना ही! बेचारे अब्बू खां! मेरा मन वहीँ अटक गया था।
टेडी चाँदनी जैसा रहा होगा! तब क्या सुल्तान पीछे छूटा अब्बू खां है!
नहीं, शायद अब्बू खां उतने बेबस नहीं थे। भेड़िया अगर उनके सामने चांदनी को पकड़ता तो! अगर बाड़े की खुली छूट गई खिड़की; जिससे चांदनी निकल भागी थी; उससे भेड़िया अंदर आ जाता तो! अब्बू खां अगर चांदनी को अपनी आँख के सामने लहुलुहान होते, घसीटा जाता देखते तो…!
सुल्तान… मैंने उसे पुकारा। इसबार उसने आँखें उठा कर मेरी ओर देखा। लेकिन वे आँखें सूनी थीं; उदास; जाने कहाँ देखती हुई!
आँखें! ओह हाँ, आँखें! एकाएक मुझे ‘उस आदमी’ की आँखें याद आ गईं जो इसी यात्रा में पिछले दिनों मिला था।
मैं चाय की प्रतीक्षा में टपरी में लगी बैंच पर बैठी थी। मेरी आँखें फोन पर थीं। तभी मैंने सिर उठाया तो देखा एक आदमी मेरे एकदम सामने खड़ा मुझे देख रहा है, घूर रहा है।
अजीब बात है! मेरे एकदम नजदीक, मुश्किल से तीन फीट की दूरी पर वह कमर पर हाथ रखे खड़ा है और सीधे मुझे; मेरी आँखों में देख रहा है! मैंने प्रश्नवाचक और आपत्ति करने वाली निगाहों से उसकी ओर देखा कि उसे होश आये, लेकिन उसपर कोई असर नहीं हुआ। वह तो उसी तरह देखे जा रहा है, न कोई संकोच, न भय!
दुबला पतला आदमी, बाल आधे काले, आधे सफेद, छोटे-छोटे कटे, सिर पर चिपके से। देह पर कुर्ता पजामा, मटमैला सा। उम्र पैंसठ से ऊपर तो होगी ही।
पिचके गाल और नुकीली दृष्टि वाले धंसी हुई आँखें। खाली सफेद और जाने कहाँ देखती आँखें। वे आँखें किस भाव में देख रहीं थीं कहना मुश्किल है, बहुत ही मुश्किल, क्योंकि उस भाव से मेरा कोई परिचय नहीं। कभी एक क्षण को लगता था उसकी आँखें मुझमें कोई परिचित को खोज रहीं हैं, किसी अपने को पहचानने की कोशिश जैसा कुछ। लेकिन नहीं।
मैंने पूछा भी, “बोलिए! क्या बात है?”
उनपर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई!
ऐसे देखे जाना बेचैन करता है न! मुझे एक भय सा भी हुआ।
मैंने फिर कहा, “कुछ चाहिए आपको!” लेकिन, जैसे उधर तक मेरी बात पहुँच ही नहीं रही थी। और वे आँखे उसी तरह बस ताक रही थीं। मेरी ही तरह चाय पीने आए एक सज्जन ने उनके कंधे पकड़ कर उन्हें झंझोड़ दिया, “क्या बात है! बोलो?” लेकिन तब भी उधर कोई हलचल नहीं हुई।
मैंने पूछा था, चाय वाले से इनके बारे में, तो बोला, “कुछ नहीं करेंगें। बस ऐसे ही देखते रहते हैं बोलते कुछ नहीं।”
ओह! ऐसी असहायता! और ऐसी अगम्य दूरी कि कोई छू भी नहीं सकता!
आज ख्याल में आया कहीं किसी दुख के झटके ने तो ऐसा अकेला नहीं कर दिया था उस आदमी को भी!
फिर मुझे ‘ग्रेविटी’ फिल्म की याद आई। एक अंतरिक्ष यात्री जो यान से बाहर अपने साथियों से दूर भटक गई थी। एक ओर अनंत अंतरिक्ष और दूसरी ओर धरती। वह धरती को देख सकती है लेकिन उसके गुरुत्व से बाहर छिटकी वह उसमें प्रवेश नहीं कर सकती। अतंरिक्ष में भटकते यात्री की धरती पर न लौट पाने की भयावह कातरता उस फिल्म की सबसे गहरी याद है।
फिर जाने क्यों मुझे ‘चितई गोलू देवता’ के मंदिर की याद आई। पहाड़ के गोल्ज्यू देव का वह मंदिर और उसमें बंधी वे असंख्य चिट्ठियाँ। नन्हीं इच्छाओं से लेकर असंभव सी कामनाओं, शिकायतों और प्रार्थना से भरी कातर चिट्ठियाँ। अथाह दुःख और असहायता के अंतरिक्ष में भटकते आदमी की मंदिर की घंटियों से बंधीं चिठ्ठियाँ।

दूरदराज से लोग आते हैं। चिट्ठियां बाँधकर जाते हैं। बंद-खुली, छोटी बड़ी ये चिट्ठियाँ महीनों-बरसों हवा, बारिश और धूप से धुंधलाती रहती हैं। लोग फिर फिर लौटते हैं, कभी आभार में घंटी चढाने तो कभी दुबारा एक ओर चिठ्ठी बांधने। मैंने सोचा था, मैं भी एक चिठ्ठी लिखूंगी गोल्ज्यू देव को। नहीं लिख पाई। जाने क्यों!
यहाँ, पहाड़ में मेरा मन ऐसी ही सब बातों में उड़ता डूबता रहा है और जाने का समय भी आ गया।
आज यहाँ की यह आखिरी शाम है। पूरी घाटी नन्हे-नन्हे टिमटिमाते जुगनुओं के गुच्छों से भर गई है। यह कीमती समय सामान बाँधने में तो नहीं खो सकती न! और फिर मैं कोई टूरिस्ट थोड़े ही हूँ कि चेक आउट करूँ तो बिस्तरा उलट-पलट कर देखूं कि कहीं कुछ छूटा तो नहीं! उल्टा, मैं तो चाहती हूँ कुछ भूल जाऊं, कुछ छोड़ दूं कि आऊँगी ही फिर!
मैं फिर आऊँगी। ठीक है न सुल्तान! … इस बार उसने पूँछ हिलाई और लॉन से उठा और अहाते में मेरे नजदीक आकर बैठ गया। उसकी देह मेरे पैरों को छू रही है लेकिन वह मेरी ओर देखता नहीं। मुंह आसमान की ओर किए बैठा है, जैसे,पास तो होना चाहता है लेकिन जताना नहीं चाहता। मेरे मन में उसे सहलाने का भाव जागता है लेकिन मैं अपने आप को रोक लेती हूँ।
तभी देखती हूँ सामने से बादल घिरते चले आ रहे हैं। देखते ही देखते गहरी चौड़ी घाटी बादलों से भर गई। पहाड़ तो जैसे गायब ही हो गए। जरा सी देर में सब तरफ ऐसा घुंधलका सा छा गया और ऊँचे लंबे चीढ़ से लेकर सेब-आडू बुरांश और नन्हे-नन्हे फूल सब ऐसे खोने लगे जैसे कोई नन्हा बच्चा इरेजर से अपना ही बनाया चित्र मिटा रहा हो।