हिंदी, अंग्रेजी और पंजाबी भाषा में समान रूप से दक्ष अनुजीत इकबाल अपनी कविता, कहानियां, आलेख और यात्रा संस्मरणों के लिए पहचानी जाती हैं। अंग्रेजी में अध्यापन कर चुकी अनुजीत इकबाल के लिए लिखना महज शौक नहीं, एक यात्रा है, स्वयं के विकास की यात्रा, अनुभव की अभिव्यक्ति की यात्रा। वे ‘टॉक थ्रू’ के लिए निरंतर लिख रही हैं।यहां प्रस्तुत उनकी कविताओं की जमीन तो प्रेम है, प्रेम की अभिव्यक्ति है लेकिन ये कविताएं खालिस प्रेम कविताएं नहीं है। बाह्य रूप में ये कविताएं एक चिट्ठी, एक संदेश प्रतीत होती हैं, लेकिन जरा गौर करेंगे तो पाएंगे कि वास्तव में यह समर्पण से पगी अभिव्यक्ति हैं। यहां उलाहना नहीं है, प्रेम के होने की सरसता है। ये कविताएं प्रेम के होने का उत्सव है। ‘होना’ यानी अस्तित्व। अपने अस्तित्व को पहचान से उपजी अभिव्यक्ति।

अनुजीत इकबाल, लखनऊ
पथभ्रष्ट
मध्य मार्ग के थकित सूत्र और
जन्म मरण की तिब्बती पुस्तकें लेकर चलना श्रेयकर था
लेकिन कोई था जो इन सबसे व्यापक था
जिसे किसी साक्ष्य या प्रमाण की आवश्यकता नहीं थी
जिसके स्मरण में मन, बुद्धि, चित्त समग्रता से डूबे रहे
और आकाश की भंगिमाओं में उसका सुंदर चेहरा उभरता रहा
‘वो’ जो केवल मेरी संपदा था-
जिस पर सदैव रहस्य की झीनी चादर पड़ी रही।
प्रेम की सभ्यता प्रतिष्ठित हुई
और उसके दृष्टि स्पर्श से देह का मार्जन हुआ
लिखा तो बहुत उस पर लेकिन
संबोधन में सदैव असमंजस बना रहा
यह एक निहायत ही गूढ़ संयोजन था जीवन का
उस की आवाज भर सुन लेने से
छंदशास्त्र की समस्त रागिनियाँ निरर्थक हो जातीं।
‘रास्ते पर चलना’ जीवन में भटक जाने का पर्याय था
इसलिए मैं उसके प्रेम में पूर्णतया ‘पथभ्रष्ट’ थी
नियमनिष्ठ तो बिल्कुल भी नहीं
सभ्यता, शिष्टता, संस्कार के दहन के उपरांत
जिस दिन मैंने पृथ्वी का लास्य
निष्कवच सूर्य को दिखाने के लिए
रंगमहल के सात द्वार
उस प्रेयस का हाथ थाम कर पार किए थे
उस दिन नक्षत्रों की गति अचंभे में पड़ गई थी
और चटक गई थी गर्भगृह में स्थापित
एक देवमूर्ति
मेरे यायावर प्रेमी
आजकल हर वक़्त अंतःकरण
कृतज्ञता से भरा रहता है
जल, पृथ्वी, नक्षत्रों, मेघों से
और सबसे ज़्यादा तुमसे
इन दिनों तुम्हारी यात्राओं की तस्वीरों में
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा देखना कितना सुखद है
ख़ुश हूँ कि तुम पैरों पर नहीं परों पर चलते हो
एक रिक्त मन को संतुष्ट करने के लिए
इतना ही बहुत है कि
इस पृथ्वी के एक हिस्से में तुम भी हो
और तुम्हारा होना भर ही
ज़िंदगी की बदइंतज़ामी को व्यवस्थित कर देता है
प्रेम की प्रथाएँ जानने वाले मन जानते हैं कि
प्रेमपात्र का चयन हम कर सकते हैं
लेकिन ‘प्रेमी’ का चयन केवल ब्रह्मांड करता है
मेरे भीतर कभी-कभी तुम्हारे नाम के अनुरूप
एक उज्ज्वल और भव्य प्रतिबिंब उतरने लगता है तो
मैं आँखें मूँद बैठ जाती हूँ
‘ख़ुद की तलाश में’
लेकिन आँखें बंद करके भी मुझे
सिर्फ़ तुम मिलते हो
जीवन और जीवित रह सकने के मध्य की जगह पर
देवमुद्रा में खड़े हुए।
प्रेम पत्र
हे अरण्यक,
जब पहली बार तुम्हारी सुधि आई
तो श्यामल बादलों को देखा
जो आकाश में विचरते थे
मानो मेरे हृदय की व्यथा
तुम तक पहुंचाने को उत्सुक हों
क्या प्रेम भी कभी
ऋषि-कुंज में बसी कोई धुन बनकर
वनविहंगों के स्वर में लौटता है?
क्या किसी झील में
चंद्रमा अपना प्रतिबिंब छोड़कर
फिर उसी जल में लुप्त हो जाता है
जहां प्रथम प्रेम पत्र की मादकता झरी थी?
तुम मुझे मिले
जैसे किसी योगी की हठ साधना में
कोई मधुर स्वप्न जाग उठा हो
जैसे किसी अधूरे वाक्य को
अचानक पूर्ण करने वाला शब्द मिल जाए
या जैसे किसी तपस्विनी की सूनी दृष्टि में
एक क्षण को वसंत ठहर जाए
जैसे किसी यज्ञ की अधूरी आहुति को
अचानक कोई दिव्य मंत्र मिल जाए
जैसे किसी उजड़े मंदिर की टूटी घंटियों में
फिर से राग बिहाग गूंज जाए
तुम मुझे मिले
उसी मेघदूत की तरह
जो प्रेयसी तक संदेश नहीं
बल्कि प्रेम का पूरा आकाश ले जाता है
तुम मिले उस गूँगे हृदय की तरह
जो प्रणय का श्लोक रचता तो है
पर अधरों तक लाने का साहस नहीं कर पाता
क्या तुम्हें भी कभी ऐसा लगा
कि प्रेम किसी फूल पर गिरी
ओस-बूंद जैसा है
जो छूते ही विलीन हो जाता है
पर अपने स्पर्श की कोमलता को
अमर कर जाता है?
क्या तुम्हें भी कभी ऐसा लगा
कि विरह कोई अंधकार नहीं
बल्कि एक दिव्य अग्नि है
जिसमें आत्मा तपकर कुंदन हो जाती है?
तुमसे मिलना जैसे
दग्ध धरा पर प्रथम वर्षा की शीतल बूंदे गिरें
या जैसे प्रखर रवि के ताप में
सहसा चंद्रिका अपना शीतलता बरसाए
जैसे तुम्हारी छाँव में
हर तृष्णा विश्राम पाए
और शून्य में विलीन होकर
केवल वही शेष रह जाए
जो अनंत, अचल और निर्विकार है।
तुम्हारी अनुपस्थिति
तुम्हारी अनुपस्थिति में
मैंने रोना नहीं चुना
केवल उन अधलिखे प्रेम-पत्रों को
देवदार की शाखाओं पर टांग आई
जिन्हें तुमने कभी पढ़ा ही नहीं
काष्ठ-मंदिर की घंटियाँ
अब तुम्हारा नाम नहीं दोहरातीं
और प्राचीन देव मूर्तियां
मेरे प्रश्नों से कतराने लगी हैं
देवता भी अब
तुम्हारे न होने की विवशता ओढ़े हुए हैं
कहते हैं कि फूल तब खिलते हैं
जब पर्वत का दिल धड़कता है
पर देखो, बुरांश ने भी इस बार
खिलने से इनकार कर दिया है
शायद ऋतु को भी खबर लग गई थी
कि अब पर्वत पर प्रेम नहीं ठहरा
सिर्फ यादों की बर्फ़ है
जो पिघलती नहीं
आज पहाड़ों ने कुछ नहीं कहा
पर मैं जानती हूं
वे पढ़ रहे थे मेरे भीतर की टूटी हुई पंक्तियों को
जैसे तुमने कोई कविता अधूरी छोड़ दी हो
और हिमालय अब तक उसे थामे हुए है
तुम्हारे बिना इस जीवन में
कोई उत्सव नहीं
सिर्फ एक निरुद्देश्य हिमयात्रा है
जिसमें मेरे पदचिह्न
हर शाम बर्फ़ से ढंक जाते हैं।
❤️🔆🙏