
- पूजा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
मेरा यह अनुभव चंडीगढ़ की डेटा रिकवरी लैब सीडीजी डेटा रिकवरी सेंटर से जुड़ा है।
क्या स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले विषय भी जनाना और मर्दाना होते हैं? क्या आपने पढ़ाई-लिखाई जेंडर आधारित विभाजन सुना है? सुना होगा शायद। एक दौर था जब लड़कियों को ‘होम साइंस’ यानी गृह विज्ञान की पढ़ाई करने को कहा जाता था। जाहिर है एक अच्छी गृहणी बनने का यह शुरुआती प्रशिक्षण होता था। लेकिन इस बात को एक लंबा अरसा हो गया। मुझे लगता था कि अब ऐसा नहीं होता होगा। किंतु यह सच नहीं है।
होम साइंस तो पीछे छूट गया लेकिन हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों ने परिवारों और एक हद तक शिक्षकों के मन में भी यह धारणा मजबूती से बिठाए रखी कि लड़कियों को कला विषयों की पढ़ाई करनी चाहिए जो अपेक्षाकृत हल्के होते हैं जबकि फिजिक्स, मैथ्स या इकनॉमिक्स जैसे कथित ‘टफ’ सब्जेक्ट्स को लड़कों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि ये धारणा हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से उपजी है जहां लड़कियों को नाजुक और लड़कों को ‘मर्द’ माना जाता है। ऐसे में अगर विषयों की ‘मर्दानगी’ तय कर दी गई तो भला आश्चर्य की क्या बात है?
आपकी समझ से कंप्यूटर और लैपटॉप के बारे में बात करने के लिए जेंडर आधारित पात्रता आवश्यक है या नहीं। इससे पहले कि आप किसी असमंजस में पड़ें आइए जान लेते हैं कंप्यूटर साइंस में महिलाओं के योगदान की। इस विषय का उल्लेख क्यों किया यह चर्चा हम आगे करेंगे।
एडा लवलेस- एडा लवलेस 19वीं सदी की एक प्रमुख अंग्रेज गणितज्ञ और लेखिका थीं जिनको दुनिया की पहली प्रोग्रामर माना जाता है। उन्होंने चार्ल्स बैबेज के एनालिटिकल इंजन के लिए प्रोग्रामिंग का काम किया था।
ग्रेस हूपर- अमेरिका की रहने वाली ग्रेस हूपर को प्यार से कंप्यूटर की दादी कहकर पुकारा जाता है। उन्होंने शुरुआती कंप्यूटर लैंगुएज कोबोल के विकास में अहम भूमिका निभाई थी जिसके चलते कंप्यूटर का इस्तेमाल गणितीय प्रयोगों के साथ-साथ रोजमर्रा के कामकाज में किए जाने की संभावना बनी।
मार्गरेट हैमिल्टन- हैमिल्टन एक कंप्यूटर वैज्ञानिक थी जिन्होंने अमेरिका के अपोलो अंतरिक्ष मिशन के लिए उड़ान सॉफ्टवेयर विकसित करने में अहम भूमिका निभाई थी।
राडिया पर्लमैन- पर्लमैन भी एमआईटी से पढ़ी एक कंप्यूटर विज्ञानी हैं जिन्होंने वर्तमान इंटरनेट के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्हें कंप्यूटर नेटवर्क और इंटरनेट का बहुत बड़ा जानकार माना जाता है। पर्लमैन को मदर ऑफ इंटरनेट भी कहा जाता है।
इन चार महत्वपूर्ण महिलाओं के नाम के उल्लेख के साथ मैं एक खास संदर्भ में अपना जिक्र भी करती चलूं। मेरा नाम पूजा सिंह है। मैंने अपने जीवन का पहला कंप्यूटर 2006 में और पहला लैपटॉप 2009 में खरीदा था। मेरा पहला लैपटॉप इंटेल के कोर आई3 प्रोसेसर से लैस था। मैं करीब दो दशकों से पत्रकारिता कर रही हूं। मैंने नेटवर्क 18, दैनिक भास्कर, तहलका, शुक्रवार समेत देश के अग्रणी मीडिया संस्थानों में काम किया है और इस दौरान मैंने अपने जीवन के असंख्य घंटे लैपटॉप और स्मार्टफोन पर काम करते हुए बिता दिए हैं।
कहने की जरूरत नहीं कि मैं डेस्कटॉप, लैपटॉप, टैबलेट और स्मार्टफोन जैसी डिवाइसेस की बुनियादी कार्यप्रणाली से बहुत अच्छी तरह वाकिफ हूं।
अब उस मूल मुद्दे पर वापस आते हैं जिसके चलते मैंने दुनिया की जानी-मानी कंप्यूटर विज्ञानी महिलाओं के जिक्र के साथ अपनी बात की शुरुआत की। पिछले दिनों डेटा रिकवरी जैसा संवेदनशील काम करने वाली एक कंपनी के कर्मचारी के साथ मुझे जो अनुभव हुआ उसने मुझे न केवल झकझोर कर रख दिया बल्कि यह अहसास भी कराया कि बदलाव की तमाम बातें शायद किसी दूरस्थ टापू पर हो रही हैं और हमारे समाज का एक तबका (जो आधुनिक भी है और प्रगतिशील भी) अभी भी महिलाओं को लेकर ऐसी पुरातन सोच में अटका हुआ है कि सोचकर भी हैरानी होती है।
मेरा यह अनुभव चंडीगढ़ की डेटा रिकवरी लैब सीडीजी डेटा रिकवरी सेंटर से जुड़ा है।
दरअसल, कुछ रोज पहले मेरे लैपटॉप की हार्ड ड्राइव अचानक क्रैश हो गई। उसमें ढेर सारी महत्वपूर्ण सामग्री थी और इसलिए मैं पुरजोर तरीके से उसकी डेटा रिकवरी की कोशिश में लग गई। इसी दौरान मैंने चंडीगढ़ की सीडीजी लैब में फोन किया। डेटा रिकवरी के बारे में दरयाफ्त करने पर वहां बैठे एक सज्जन ने मुझसे कुछ इस तरह बात की:
“क्या आपके आसपास कोई ‘मेल’ कलीग नहीं है। देखिए इस फील्ड में मेरा 15 साल का अनुभव बताता है कि कंप्यूटर के बारे में औरतों से बात करना और पत्थर से सर फोड़ना बराबर है। उनको कुछ पता होता नहीं है। बेकार में समय खराब करती हैं। अगर कोई मेल है तो बात कराइए वरना हम आगे बात नहीं कर पाएंगे।”
मैं अवाक थी। फोन काटा जा चुका था। मैं सोच रही थी कि क्या इस आदमी ने एडा लवलेस, ग्रेस हूपर, मार्गरेट हैमिल्टन या राडिया पर्लमैन का नाम सुना होगा? उनके बारे में इसकी क्या राय होगी?
इक्कीसवीं सदी का चौथाई हिस्सा बीत गया है और लैंगिक पूर्वाग्रह आज भी इतने सघन हैं। क्या ये केवल सामाजिक या सांस्कृतिक वजहों से है? या इसकी कोई और वजह है। दुर्भाग्यशाली और प्रतिगामी है वह समाज जिसे मुखर, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और आज़ादख्याल औरतें पसंद नहीं। आपराधिक मानसिकता के हैं वे लोग जिन्हें लगता है कि औरतों की जगह केवल रसोई में है।
औरतें आसमान में उड़ रही हैं, अस्पतालों में जान बचा रही हैं, कंपनियां संभाल रही हैं, कला से लेकर खेल और विज्ञान तक हर जगह वे आगे रहकर मोर्चा संभाल रही हैं। हालांकि 21वीं सदी के तीसरे दशक में यह कहना थोड़ा अजीब लगता है लेकिन महिलाओं को लेकर सोच में व्यापक बदलाव की जरूरत है। ‘महिलाएं क्या कर सकती हैं?’ से आगे हमें यह देखना होगा कि हम उनके बारे में अपनी सोच को कितना बदल सकते हैं और उनके साथ कितना समतापूर्ण व्यवहार कर सकते हैं।
Bahut badhiya likha hai..wakai pahle arts aur science ko lekar esa discrimination saf dikhai padta tha..aj bhi discrimination hai bus arts or science ke jagah computer, software aur data science ne le lo hai..