पुनर्पाठ
मूर्धन्य संगीत गुरु पं. छन्नूलाल मिश्र और कला समीक्षक विनय उपाध्याय के बीच करीब 10 वर्ष पहले हुई बातचीत के प्रमुख अंश
प्रख्यात शास्त्रीय गायक और पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र अब इस दुनिया में नहीं रहे। 2 अक्टूबर तड़के 91 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में उन्होंने अंतिम सांस ली। 3 अगस्त 1936 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के हरिहरपुर में जन्मे पंडित छन्नूलाल मिश्र भारतीय शास्त्रीय संगीत के बनारस घराने के सबसे स्तंभ गायक थे। उनकी गायकी में ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती और भजन जैसी शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय शैलियों का समावेश था। उनकी आवाज में अनोखा सम्मोहन है जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था। अब उनकी आवाज तो है लेकिन वे नहीं हैं। उनके न होने पर उनकी सीख, मुलाकातों और सार्वजनिक रूप से कही गई बातें बतौर स्मृति हमारे साथ हैं। वे गुरु-शिष्य परंपरा के ऐसे ध्वजवाहक थे जिन्होंने जीवन के अंतिम पड़ाव तक न गुरु को विस्मृत किया न उनकी शिक्षाओं को। करीब 10 साल पहले कला समीक्षक-पत्रकार विनय उपाध्याय ने पंडित छन्नूलाल मिश्र से लंबी बात की थी।
इस चर्चा में पंडित जी ने गुरु-शिष्य परंपरा और समकाल के बहाने भारतीय शास्त्रीय संगीत पर विचार रखे थे। पुनर्पाठ में उसी साक्षात्कार के प्रमुख अंश:
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मौजूदा दौर में पं. छन्नुलाल मिश्र की उपस्थिति आदर और उत्कर्ष की परिचायक थी। गुरू-शिष्य परंपरा उनके समूचे व्यक्तित्व में मुखर थी। वे वेद-शास्त्रों के ज्ञाता है और अपने ज्ञान तथा तर्कों को प्राचीन ग्रंथों के उद्धरणों से प्रामाणिक बनाते हैं। बनारस के ऐसे स्वर मनीषी से मिलना किसी सत की छाया में बिश्मने का सुख देता था। गुरू के प्रति अपने निवेदन और श्रद्धाभावों को छन्नूलालजी ने पूरी आत्मीयता से खोल कर रख दिया था। वे बता रहे थे:
मेरी उम्र आठ साल की रही होगी जय मेरे जीवन में गुरू का प्रवेश हुआ। गुरू थे किराना घराने के नामी गायक प्रो. अब्दुल गनी की परंपरा के अहमद खाँ साहब। मैंने ग्यारह साल तक मुजफ्फरपुर (बिहार) में रहकर उनसे सीखा। पहला कार्यक्रम पूर्णिया के चंपानगर के राजा के यहाँ दिया। हम राज गायक बनना चाहते थे पर पिता ने मना कर दिन्रा। बिहार से मैं बनारस आया और ठाकुर जयदेवसिंह से शास्त्र का सूक्ष्म भेद सीखा। पचहत्तर की उम्र पार कर गया हूँ और मेरे भी कई शिष्य हैं तब भी मैं अपने गुरू को नहीं भूल पाता। गुरु आज भी मेरे सपने में आते हैं और में उनसे सीखता रहता हूं। गुरु कभी मरते नहीं। वे हमारी रूह में सदा बस रहते है।
गुरु-शिष्य परंपरा के बगैर हमारे संगीत की विकास पात्रा को समझना निरर्थक होगा। आदिकाल से इस परंपरा को सम्मान और महत्व मिलता रहा है। वेद शास्त्र, पुराण से लेकर आज तक गुरु और शिष्य की नातेदारी बराबर बनी हुई है। शिव और कृष्ण देवकाल भी इस परंपरा से अनुप्राणित रहा है। भगवान कृष्ण ने इंद्रलोक से ठुमरी सीखी और उसे भू-लोक में प्रतिशत किया। उन्होंने प्रद्युम्न तथा चलराम को ठुमरी का गीत-संगीत हस्तांरित किया। पहले ठुमरी का नाम छालिक्य था। बाद में यह ठुमरी कहलाई। इसी तरह शिव से गुरू-शिष्य परंपरा चलकर रामचरित मानस में आई। भगवान शंकर ने स्वर और संगीत की रचना की। बिना किसी शिष्य के भला यह कैसे आगे बढ़ती? शिव ने अपनी सहधर्मिणी पार्वती को संगीत सुनाया। मानस में कहा भी गया है-
पूजि महेश निज मानस राखा
पायसु समय शिवासन भाखा
सोई शिव काग भुसंडिनी दीना
रामभगत अधिकारी चीन्हा
यानी शिव ने कागभुशुंडी जैसे उपयुक्त अधिकारी को भी संगीत सिखाया। वहाँ गुरु और शिष्य दोनों ही बिना छल-कपट के देने लेने के पात्र हैं। इस निर्मल और पवित्र भाव के साथ गुरु-शिष्य परंपरा हमारी संस्कृति में प्रवहमान होती रही है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि कागभुशुंडी ने भी उसी भावना के साथ मुनि याज्ञवल्क को सिखाया। याज्ञवल्कजी ने भारद्वाज मुनि तक उसे पहुंचाया और भारद्वाज ने वेद की ऋचाएं गाकर संगीत को जन-जन तक प्रचारित किया। यहीं से संगीत शास्त्र सात स्वरों के माध्यम से निरंतर फलता–फूलता रहा।
बीच में कई वर्षों तक यह परंपरा ओझल रही। लेकिन अब आधुनिक काल में पुनः इसकी प्रतिष्ठा हुई। स्वामी हरिदास के समय से भारतीय शास्त्रीय संगीत का हम पुनः उन्नयन देखते हैं, जिन्होंने अपने शिष्यों नायक गोपाल, बैजू बावरा, तानसेन आदि की कठिन अनुशासन में सिखाया। बाद में, हम जैसा कि जानते हैं, इन संगीतज्ञों ने प्राण-प्रण में संगीत को परवान चढ़ाया। उन्होंने भी अपने कई शिष्यों को तैयार किया।
मेरी स्पष्ट मान्यता है कि गुरु के बिना संगीत सीखा ही नहीं जा सकता। आज कई संसाधनों का आविष्कार हो गया है, जिनसे संगीत सीखने-सिखाने की कोशिशें की जा रही है, लेकिन मैं इसे अभिजात संगीत कहूंगा। शास्त्रीय संगीत की श्रेणी में इसे नहीं रखा जा सकता। इन संसाधनों से जितना सुनेंगे उतना ही सीखने की सीमा होती है, लेकिन गुरू की छाया में बैठकर ऐसी अनमोल सीखों का प्रसाद मिलता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। गुरु हमें कल्पना के आकाश में उड़ना सिखाते है। संगीत के अलौकिक रहस्यों को जानने-समझने की आत्मशक्ति का संचार करते हैं। आप जरा गौर करें किसी फिल्मी गीत पर। जैसे सिनेमा का कोई गीत राग यमन को आधार बनाकर संगीतबद्ध किया गया है। उसे जब आप सीखेंगे तो राग यमन के एक निश्चित शाब्दिक और सांगीतिक धरातल तक ही सीमित रहेंगे लेकिन जब कोई शास्त्रीय गायक यमन में कोई बंदिश गाएगा तो कई स्वर, छंद और आरोह-अवरोहों का उसमें प्रयोग रहेगा। गुरु के पास बैठकर कला, कल्पना के नए-नए आभूषणों से सुसज्जित करने का और गहराई में जाकर भाव का नया सौदर्य पैदा करने की कुव्वत पैदा होती है।
यह सब गुरु के साथ रहकर ही पाया जा सकता है। गुरू की आभा का प्रभाव जाने-अनजाने शिष्य के जीवन में पड़ता ही है। वे क्या, क्या दे दें, शिष्य को पाने के लिए तैयार रहना चाहिए। सच्चा गुरु संस्कारों का पुत्र होता है और उसका प्रकाश शिष्य को निकटता में न मिले, संभव ही नहीं। राम तो चक्रवर्ती राजा दशरथ के पुत्र थे। उनके पिता चाहते तो गुरुओं को महल में बुला लेते लेकिन उन्होंने अपने पुत्रों को गुरुकुल भेजा। वहां दशरथ पुत्रों ने गुरू की सेवा की, आश्रम के नियम माने और गुरु ने प्रसन्न होकर अपने शिष्यों को अल्प अवधि में ही शिक्षा-दीक्षा से संपन्न कर दिया। गुरु के प्रति उनका श्रद्धा भाव आजीवन रहा। मानस में तुलसी ने कहा है कि शिव का धनुष बड़े-बड़े शुरवीर भी उठा नहीं पाए लेकिन जब श्रीराम ने गुरु का स्मरण कर उस धनुष को स्पर्श किया तो एक हो प्रयास में उसे उठाने में सफल हो गए। कहने का आशय यह कि गुरु की हमारे भीतर एक शक्ति की तरह उपस्थिति रहती है। ये जीवन के अनेक मुश्किल पड़ावों पर हमारी मदद करते हैं।
सच्चा गुरु जीवन में मिल जाए तो क्या बात। लेकिन दुर्भाग्य से सतगुरु आज कम ही हैं। संत कबीर ने सतगुरु के गुणों का क्या खुब वर्णन किया है-
सो गुरु सत्य कहावै
कोई नैनन अलख लगावें
डोलत डिगे न बोलत बिसरे,अस उपदेश दिखावें
जप तप जोग क्रिया ते न्यारा,सहज समाधी सिखावें।
सो गुरु सत्य कहावै
काया कष्ट भूल नहीं देवें
नहीं संसार छुडावैं
यह मन जाये जहाँ जहाँ तहाँ तहाँ
परमात्मा दरसावें।
कबीर के इस पद में गुरु की जो विशेषताएं बताई गई है उन्हें भला आज कितने लोग चरितार्थ करते हैं? लेकिन सौभाग्य से मेरे गुरु में मैंने ये सभी खूबियां देखी-पाई। आज भी मैं तानपुरा लेकर जब अभ्यास करता हूं या सभा में संगीत छेड़ता हूं तो जैसे गुरु मेरी रक्षा करते हैं। उनका स्मरण मुझे भीतर तक बल देता है। उन्होंने कहा था कि अहंकार से सदा दूर रहो। विलासिता के फेर में मत पड़ना। भीतर, बाहर एक जैसे दिखना।