सरकारी फाइलों में धूल फांकते हैं सुप्रीम कोर्ट के आदेश

- जे.पी. सिंह
वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2020 में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय और राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण सहित जांच एजेंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरण लगाने का निर्देश दिया था। ये एजेंसियां पूछताछ करती हैं और गिरफ्तारी की शक्ति रखती हैं लेकिन पांच साल बीत जाने के बाद भी इस निर्देश का अनुपालन नहीं हुआ है और हिरासत में मौतों का सिलसिला जारी है।
भारत का पुलिस बल संदिग्धों से पूछताछ करता है और अक्सर थर्ड-डिग्री अत्याचार का उपयोग करके उनसे जानकारी निकलवाता है। कभी-कभी प्रताड़ना का भी मसला रहता है, जैसे, प्रताड़ना की चोटों से आरोपी की मौत हो जाती है अथवा आरोपी ने अपनी नसें काटकर, फांसी लगाकर, खुद को जहर देकर या खुद को जलाकर आत्महत्या कर ली। पूछताछ के लिए उचित प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) और तैयारी की कमी और पूर्वाग्रह-आधारित आरोपियों के उत्पीड़न के कारण हर साल हिरासत में हिंसा में दिन-ब-दिन वृद्धि होती जा रही है। इस पर प्रभावी रोक के लिए सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2020 में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय और राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण सहित जांच एजेंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरण लगाने का निर्देश दिया था।
फरवरी, 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को पुलिस थानों और जांच एजेंसियों के कार्यालयों में अनिवार्य रूप से सीसीटीवी कैमरे लगाने के उसके निर्देशों का एक महीने के भीतर पालन करने का निर्देश दिया था। न्यायमूर्ति बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र एवं राज्यों की सरकारों को 29 मार्च तक अपने आदेश पर अमल संबंधी हलफनामा दायर करने को कहा था। साथ ही आगाह किया था कि आदेश का पालन न करने की स्थिति में संबंधित अधिकारियों के खिलाफ आवश्यक कार्रवाई करने के लिए मजबूतर होना होगा।
पीठ ने 21 फरवरी 2023 को कहा था कि यदि निर्देशों का पालन नहीं किया जाता है तो हम केंद्रीय गृह सचिव और संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों और गृह सचिवों के खिलाफ आवश्यक कदम उठाने के लिए मजबूर होंगे। शीर्ष अदालत ने 2020 में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय और राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण सहित जांच एजेंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरण लगाने का निर्देश दिया था। ये एजेंसियां पूछताछ करती हैं और गिरफ्तारी की शक्ति रखती हैं।
इस मामले के न्याय मित्र वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे ने प्रस्तुत किया था कि 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अभी तक पहले के निर्देशों के अनुसार अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करनी थीं। न्यायालय ने देश भर के थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए छह सप्ताह का समय निर्धारित किया था। न्यायालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि प्रत्येक पुलिस थाने में, सभी प्रवेश और निकास बिंदुओं, मुख्य द्वार, लॉक-अप, कॉरिडोर, लॉबी और रिसेप्शन के साथ-साथ लॉक-अप रूम के बाहर भी सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं ताकि कोई भाग कैमरे की नजर से न बचे। इस मामले की तार्किक परिणति से पहले मास्टर ऑफ़ रोस्टर और रजिस्ट्री की कृपा से मामले की आगे सुनवाई नहीं हुई और पूरा प्रकरण फाइलों में दबकर रह गया।
हिरासत में मौत एक सार्वभौमिक समस्या है और इसे बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के बाद उल्लंघन का सबसे क्रूर रूप माना गया है। पुलिस को कैदियों का संरक्षक माना जाता है, और यहां बचाने वाला ही उन कानूनों और नियमों का उल्लंघन कर रहा है जो नागरिक के कल्याण और मानव जाति की सुरक्षा के लिए बनाए गए हैं।
हिरासत में मौत का तात्पर्य किसी आरोपी की सुनवाई से पहले या सजा के बाद मौत से है। मौत हिरासत के दौरान पुलिस के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्य के कारण होती है। इसमें न केवल जेल में बल्कि चिकित्सा या निजी परिसर, या पुलिस या अन्य वाहन में होने वाली मृत्यु भी शामिल है। हिरासत में होने वाली मौतों को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: पुलिस हिरासत में हुई मृत्यु, न्यायिक हिरासत में हुई मृत्यु, सेना या अर्धसैनिक बलों की हिरासत में हुई मृत्यु।
हिरासत में हिंसा को मानवाधिकारों के दुरुपयोग के सबसे क्रूर रूपों में से एक माना जाता है। भारत का संविधान व्यक्तियों को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है और अभियुक्तों से बयान लेने के लिए किसी भी प्रकार की हिरासत में अत्याचार पर रोक लगाता है। भारत का संविधान पुलिस और न्यायिक हिरासत में दोषियों और आरोपियों की सुरक्षा का आह्वान (इन्वोकेशन) करता है, लेकिन पुलिस जैसे अधिकारी ऐसी संवैधानिक संरचनाओं को कमजोर करते हैं और हिरासत में हिंसा और अत्याचार करते हैं।
संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 21 में कहा गया है, ‘किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।’ अत्याचार से सुरक्षा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) के तहत निहित एक मौलिक अधिकार है।
अनुच्छेद 22 ‘कुछ मामलों में गिरफ्तारी और हिरासत के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।’ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत परामर्श का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है।
अन्य प्रावधान
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी)
2009 में, दंड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 41 में संशोधन किए गए ताकि मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और पूछताछ के लिए हिरासत में लेने के खिलाफ सुरक्षा शामिल की जा सके; हिरासत के लिए प्रलेखित प्रक्रियाएं और उचित आधार; परिवार, दोस्तों और जनता के लिए गिरफ्तारी प्रक्रिया के संबंध में पारदर्शिता; और सुरक्षा के लिए कानूनी प्रतिनिधित्व तक पहुंच सके।
भारतीय दंड संहिता
भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 330 और 331, जबरन कबूलनामा (कन्फेशन) द्वारा पहुंचाई गई चोट के लिए सजा का प्रावधान करती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 302: यदि कोई पुलिस अधिकारी हिरासत के दौरान किसी संदिग्ध की मौत के लिए उत्तरदायी है, तो उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा और दंडित किया जाएगा।
भारत जैसे देशों के लिए हिरासत में मौतें कोई हालिया समस्या या अवधारणा नहीं हैं। इसे पहली बार 1975 के संयुक्त राष्ट्र अत्याचार सम्मलेन में उठाया गया था। भारत संयुक्त राष्ट्र का एक हस्ताक्षरकर्ता सदस्य है, इसलिए संयुक्त राष्ट्र के किसी भी कानून को भारत में लागू करने के लिए सबसे पहले हमारी संसद को इसके लिए कानून बनाना पड़ता है। इसलिए, लोकसभा में अत्याचार निवारण विधेयक 2010 पेश किया गया। इस विधेयक के तहत यदि कोई लोक सेवक किसी पर अत्याचार करते हुए देखा जाता है तो सजा का प्रावधान है। यहां ‘अत्याचार’ का मतलब है कि अगर कोई लोक सेवक किसी व्यक्ति या तीसरे पक्ष के जीवन, अंग को गंभीर चोट पहुंचाकर या मानसिक रूप से अत्याचार देकर उसकी जानकारी छीन लेता है, तो दस साल की सजा का प्रावधान किया जाएगा। पुलिस हिंसा और हिरासत में मौतों पर डी.के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य का फैसला ऐतिहासिक मन जाता है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक दिशा निर्देश जारी किए थे।
डी.के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य (1997)
इस मामले में डी.के.बसु एक गैर-राजनीतिक संगठन, कानूनी सहायता सेवा, पश्चिम बंगाल के कार्यकारी अध्यक्ष, ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय को पत्र लिखकर टेलीग्राफ समाचार पत्र में प्रकाशित पुलिस हिरासत में मौतों के बारे में खबरों पर उनका ध्यान आकर्षित किया। याचिकाकर्ता ने अनुरोध किया कि उसके पत्र को “जनहित याचिका” श्रेणी के तहत रिट याचिका के रूप में स्वीकार किया जाए।
जब याचिका पर विचार चल ही रहा था, अशोक कुमार जौहरी ने मुख्य न्यायाधीश को अलीगढ़ पुलिस हिरासत में पिखना के महेश बिहारी की मौत के बारे में लिखा था। इन दोनों पत्रों को रिट याचिकाएं माना गया था। न्यायालय ने भारत के कानून आयोगों और सभी राज्य सरकारों को सूचना भेजकर मांग की कि वे दो महीने के भीतर स्थिति से निपटने के लिए उचित उपाय लेकर आएं।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा-निर्देश इस प्रकार हैं:
- गिरफ्तारी के सभी विवरणों के संबंध में एक गिरफ्तारी ज्ञापन बनाए रखना, उदाहरण के लिए, गवाह के हस्ताक्षर, समय, तारीख और गिरफ्तारी का स्थान।
- व्यक्ति की गिरफ्तारी की सूचना परिजनों को दी जाये।
- पुलिस को बंदी की हिरासत का समय और हिरासत का स्थान जहां उसे रखा जा रहा है, बंदी के अगले दोस्त को सूचित करना चाहिए।
- गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उसके इस अधिकार के बारे में अवगत कराया जाना चाहिए कि जैसे ही उसे गिरफ्तार किया जाए या हिरासत में लिया जाए, किसी को उसकी गिरफ्तारी या हिरासत के बारे में सूचित किया जाए।
- गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की गिरफ्तारी के समय भी जांच की जानी चाहिए, और शरीर पर मौजूद सभी बड़ी और छोटी चोटों को दर्ज किया जाना चाहिए। और निरीक्षण ज्ञापन पर बंदी और गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी दोनों के हस्ताक्षर होने चाहिए।
- गिरफ्तार व्यक्ति की प्रत्येक 48 घंटे में एक प्रशिक्षित चिकित्सक द्वारा मेडिकल जांच की जानी चाहिए।
- इन सभी की प्रतियां मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए।
- पूछताछ के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति अपने वकील से मिल सकता है।
- प्रत्येक राज्य या जिला मुख्यालय में एक पुलिस नियंत्रण कक्ष होता है।