प्रीति राघव, स्तंभकार
मैंने सदा अपनी घुमक्कड़ी को यायावरी कहना ही उचित समझा है, क्योंकि यात्राओं की गठी हुई सुनिश्चितता मुझे कभी रास ही नहीं आई। कहीं भी जाने के पहले से तय वादे, योजनाबद्ध यात्रा कभी फलीभूत ही नहीं हुए। इसी कारण अब बस यही मन में कहती हूं कि देखती हूं कब संभव हो पाता है। और होता भी तभी है जब औचक ही तैयारी हो जाये और मैं निकल जाऊं पूर्व में सोची-विचारी गई किसी जगह।
आज आपको अपने संग सैर करवाती हूं भारत के दिल मध्यप्रदेश के चम्बल की गोदी में खिलखिलाते ग्वालियर शहर से करीब सत्तर (70) किलोमीटर दूर मुरैना जिले के सिहोनिया कस्बे में स्थित ‘ककनमठ मंदिर’ की, जो भुरभुरी रेतीली मिट्टी वाले खेतों के बीच खड़ा इतराता है। यह मंदिर देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। मुरैना-भिंड हाईवे के नजदीक सिहोनिया को पुरातन काल में कभी सिंहपाणि नगर कहा जाता था। लेकिन अब सिहोनिया मुख्य रूप से ककनमठ के कारण ही विश्व पर्यटन मानचित्र पर अपनी धाक जमाये बैठा है। बचपन से अब तक यूं तो बहुत बार यहां जाना हुआ परन्तु इस बार पुनः यायावरी की वजह मेरी बेटी रही। मुझे लगता है कि बच्चे जब छोटे होते हैं तब वे हमारे साथ पर्यटन का लुत्फ तो खूब उठाते हैं लेकिन उस स्थल की विशेषता, उसके इतिहास, प्रचलित कहानियों से अनभिज्ञ ही रह जाते हैं। हों भी क्यों नहीं! भई उम्र का तकाज़ा है। बालक अपनी ही दुनिया में मग्न नहीं रहेंगे तो कहां रहेंगे? हमने भी बेटी के बड़े होने पर यह विचार किया कि इसे घुमक्कड़ी का असली आनंद और उस स्थान विशेष से रोचक जुड़ाव,अनुभव अब समझ आयेगा। फिर क्या था सवारी निकल पड़ी गुरुग्राम से मुरैना के लिए। पलवल, मथुरा, आगरा, धौलपुर से होते हुये चंबल के बीहड़ और अंतत: मुरैना, लगभग साढ़े चार-पांच घंटे का रास्ता है। मेरी हमेशा से आदत रही है कि सफर में पर्याप्त जल व भोजन होना चाहिये तो पानी की पर्याप्त बोतलों के साथ सूखे आलू और मैथी की पूड़ियां बना कर रख लीं। रास्ते में रोली-पोली बना कर हम सबने खाईं। मथुरा रोड़ पर आगे एक ढाबा खुला था वहां कार से उतर कर टांगें सीधी की और कड़क चाय कुल्हड़ में लेकर निकल पड़े पुनः मंजिल की ओर। मुरैना पहुंच कर रात वहीं रुके ताकि थकान मिटाकर अगले दिन समय पर घूमने निकल सकें।
अक्टूबर के महीने की सुबहें यूं तो नीमी ठंड में लिपटी हुई होती हैं मगर उस समय अच्छी चुभने वाली गर्मी थी। सूरज देवता मानो निगाह तरेरे हुये हों! पर जाना तय था इस कारण ब्रंच कर के घर से निकले क्यूं कि मुरैना के आगे कोई अच्छा ढाबा या भोजन की व्यवस्था नहीं है। तो आप जहां भी ठहरें वहा से खा कर निकलें या फिर साथ पैक करवा कर। रेलवे स्टेशन जाने वाली रोड़ पर पहले सदर बाजार का चौराहा पड़ता है। चौराहे से दाईं तरफ पुल है, जो सीधा मुरैना के बाहरी क्षेत्र बडोखर माता मंदिर पर खत्म होता है। पुल पर होते हुए निकलते बढ़ते थोड़ी देर में सिंहोनिया तक आये और ककनमठ मंदिर की तरफ के रास्ते पर गाड़ी काट ली। मुख्यमार्ग से सटे रास्ते में भीतर गांवों के छोटे-छोटे घर,खेत सब मानो एकटक हमें देखते जा रहे हों। उनसे मोह की तंद्रा टूटी तो देखा कि कुछ बड़े खेतों में टीन के पीपे ही पीपे उग रहे थे! और उन पर जाल भी लगे हुए थे एवं वहां खड़े लोगों ने मास्क-रबड़ के दस्ताने पहन रखे हैं। पहले-पहल समझ नहीं आया तब मां ने बताया कि ये शहद की खेती है व इन पीपों में मधुमक्खियों के छत्ते पनपाये जाते हैं,छोटी-छोटी कालोनियां हों जैसे। हर ओर सरसों के खेत लहलहा रहे हैं तो ये कामकाजी मधुमक्खियां सरसों के फूलों से मधु एकत्र करती हैं, मां ने बताया। कहीं पक्की सड़क तो कभी कहीं दचके-पिचके रास्ते पर चलते हुए हम पहुंचे अपनी मंजिल ‘ककनमठ’।
वैसे इतिहास की कंदराओं में झांकें तो सिहोनिया के विषय में प्रचलित दो बातें सामने आती हैं। प्रथम यह है कि सिहोनिया या सिहुनिया कुशवाहों की राजधानी थी। कुशवाह (राजावत) साम्राज्य की स्थापना 11 वीं शताब्दी में 1015 से 1035 के मध्य हुई थी। माना जाता है कि कछवाहा वंश (कच्छप घात) के राजा कीर्तिराज की रानी ककनावती महाशिव की अनन्य भक्त थीं। रानी की इच्छा पूरी करने के लिए उन्हीं के कहने पर यहां राजा ने शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। इसी कारण इस मंदिर का नाम ककनमठ रखा गया।
द्वितीय मत यह है कि इस भव्य ‘शिव मंदिर’ को तोमर राजवंश के राजा सोनपाल तोमर ने इसे ग्यारहवीं सदी में बनवाया था। कहा जाता है,कि इस मंदिर को भूतों ने एक रात में बनाया था लेकिन जब निर्मित होते-होते सुबह का उजाला फैल गया तो शिव के भूत-गणों ने निर्माण कार्य वहीं रोक दिया, जिस कारण यह मंदिर अधूरा ही रह गया। आज भी इस मंदिर को देखने पर यही लगता है कि जल्दबाजी में बिना चूना-गारे बनाई गई इस कलात्मक कृति में कुछ अधूरापन है…!
विशिष्ट बात यह है कि यह बिल्कुल भी भूतिया या डरावना नहीं लगता। शिवलिंग पर प्रतिदिन होती पूजा और एक सकारात्मकता की सुगन्ध यहां अपने अस्तित्व को उकेरती है।
आश्चर्यचकित कर देने वाला 115 फीट ऊंचा ककनमठ मंदिर उत्तर भारतीय ‘नागर शैली’ में बनाया गया है। आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के दौरान मंदिरों का निर्माण नागर शैली में ही किया जाता रहा है। ककनमठ मंदिर भी इस शैली का उत्कृष्ट नमूना है। इसे खजुराहो मंदिर की श्रेणी में बना हुआ भी बताया जाता है। कलात्मक सुंदरता व अद्भुत कार्य-यंत्रिका का परिचायक ककनमठ मंदिर का वास्तु अंचंभित कर देने वाला है। पूरी एक 300 फीट ऊंची चट्टान पर उत्कीर्ण कर के वजनी पत्थरों को एक के ऊपर एक बिना किसी मसाले के ऐसे रखा गया है कि आज सालों बाद भी यह आस्था का भवन जस का तस खड़ा सुशोभित हो रहा है। पुरातत्वविदों के मुताबिक इन पत्थरों को जोड़ने के लिए पिघला हुआ लोहा, शीशा व चूना मिला कर गारा बनाया गया था। जबकि बहुत करीब से देखने के बाद भी बस यही दिखाई दिया कि भारी भरकम मज़बूत शिलायें एक-दूसरे पर टिका कर रखी हुई हैं जिनके बीच किसी भी प्रकार के मसाले का कोई लेपन नहीं है।
सचमुच यह बात हतप्रभ कर देती है कि अद्भुत कार्विंग की हुई पत्थर की भारी भरकम शिलाओं को बिना किसी मसाले के एक के ऊपर एक संतुलित रखकर यह मंदिर बनाया गया जो इतने लंबे समय से अनेकों प्राकृतिक आपदाओं, झंझावातों को झेलता आ रहा है। मौसम की मार और देखभाल की कमी के कारण यहां बने छोटे-छोटे मंदिर नष्ट हो गए हैं। और बहुत से छोटे कलात्मक पाषाण खंड पर्यटकों द्वारा चुरा भी लिये गये हैं बतौर सोवेनियर।
मन को जिज्ञासा से भर देने वाली बात यह थी कि क्विंटलों वजनी ऊबड़खाबड़ पत्थरों को उठाकर 300 फीट की ऊंचाई तक कैसे पहुंचाया होगा और आज सालों बाद भी मौसमी चक्रव्यूहों से गुजरकर ये शिलायें कैसे बिना किसी जोड़ के अडिग खड़ी हैं? भवन के अंदर ठंडक में ‘शिवलिंग’ के रूप में भोले बाबा सुकून से विराजमान हैं।
एक विशेष बात यहां साझा कर रही हूं कि मंदिर की शिलायें जिन शिला-स्तंभों पर खड़ी हैं वे अपनी गिनती हर बार बदल लेते हैं। आपको यकीन नहीं हो रहा होगा पर ये सौ प्रतिशत सच है। आप जायें तो आजमाइएगा जरूर। स्तंभों की गिनती की शुरुआत के लिये एक स्तंभ पर निशान लगा कर किसी मित्र को खड़ा कर दें। हर बार गिनती में एक स्तंभ घट या बढ जाता है ये भी विस्मय में डालने वाली बात है। मैंने कर के देखा है, आप भी अवश्य गणना करियेगा ।
बहरहाल, बाहर गर्मी हो गई थी लेकिन जगह की सकारात्मकता ने थकान नहीं होने दी। घूम-घूम कर हमने खूब छाया चित्र लिए। सीढ़ियों से नीचे आ कर टूटी पड़ी खंडित शिलाओं पर पीपल के नीचे थोड़ा सुस्ता कर मंदिर के ओर पास का प्रांगण भी देखा। कई जगह पुरातत्व विभाग ने लोहे के सरिये व एंगल टिका रखे थे जिस से कोई शिला अकस्मात् ही ना आ गिरे। किंतु विभाग ने देखरेख से आंखें मूँदी हुई हैं। बस एक औपचारिकता भर है प्रशासन की ओर से।
इतिहास की गार से निकला ये नमूना ईश कृपा से ज्यों का त्यों बना हुआ है। भीड़ की दखलंदाजी से दूर…गांव की शांति में होने से यहां गजब का सुकून बरपा हुआ है। आसपास पीपल, नीम, बरगद, शीशम आदि पेड़ आच्छादित हैं जिसके कारण अलग ही बयार व ताजगी महसूस होती है यहां। मंदिर की घंटी कभी किसी पल भी बज कर अपने गौरव की गाथा कह देती है। प्रचंड ग्रीष्म में भी पत्थरों के भवन में स्थित शिव-मंदिर में बहुत ठंडक है। शिलाओं के बीच खाली जगहों में नाना प्रकार के पक्षियों के घोंसले बने हैं। कुछ माइग्रेट्री पक्षी भी यहीं के हो कर रह गये हैं। चहुंओर फसलों के ग्रामीण बिंब कुछ सोचने व लिखने को मजबूर कर ही देते हैं।
कहते हैं कि ईसा से 200 साल पहले का है आज का सिहोनिया गांव बल्कि उससे भी पुरानी समृद्ध नगर सभ्यता थी यहां। सिहोनिया को कभी भारत के प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में गिना जाता था। आसन, सोन व चंबल नदियों के मार्ग से होते हुए व्यापारिक काफिले यहां से गुजरते थे।
बहरहाल, शहर की दौड़धूप,आपाधापी से दूर जाकर कुछ पल एकांत में प्रकृति की गोद में बिताने के लिए ककनमठ मंदिर मनोहारी जगह है। मंदिर के परिसर में चारों ओर कई विदीर्ण अवशेष रखे दिखाई देते हैं जो अपनी पुरातन कथा कहते प्रतीत होते हैं। मंदिर सिहोनिया कस्बे से कुछ किमी दूर एकदम एकांत में खेतों के बीचोंबीच स्थित है इसलिये खुद के वाहन से ही जाना ठीक रहेगा। मंदिर परिसर में ही घने पेडों की छाया में बैठकर आप अपना खाना भी बना कर पिकनिक मना सकते हैं लेकिन सामान आपको स्वयं लेकर जाना पडेगा क्यूं कि आसपास कोई घर या दुकान नहीं है, हालांकि मंदिर परिसर में खाना बनाने का साधन है। पुरातत्व विभाग के कर्मचारी के अलावा एक दो ग्रामीण भी रहते हैं वहां कमरे में और पानी की व्यवस्था भी है।
ककनमठ मंदिर की देखरेख अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) कर रही है। अफसरों को भय रहता है कि यदि मंदिर को छेड़ा गया तो यह गिर सकता है क्योंकि इसके पत्थर एक के ऊपर एक रखे हैं। इस कारण उन्होंने इसके संरक्षण कार्य से दूरी बना ली है जो कि अत्यंत निराशाजनक बात है। ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजना सिर्फ एक विभाग का ही काम नहीं होना चाहिए। जन साधारण को भी अपने हिस्से के भरसक प्रयास करने ही चाहिए और यह हम श्रमदान के जरिए एवं उन स्थलों पर प्लास्टिक, पोलीथीन आदि का कूड़ा-करकट ना फैलाकर सहज सहयोग से कर सकते हैं। बूंद-बूंद से घट अवश्य ही भरेगा। मिली-जुली मेहनत जरूर रंग लाएगी धरोहरों को बचाने में।
Bahut hi shandar lekh hai. Bhasha shaili ka achha prayog kiya gya hai. Apne vishwa ki dharohar ka vistrat chitran kr jankari pradan ki gai. Mai abhar vyakt krta hu lekhika ka aur kamna krta hu k ese adbhut chitran ko padne ka avsar bar bar milega.
Shubhkamnaye…
बेहद खूबसूरत सफ़र पढ़ कर आनंद आ गया कभी आना हुआ उस और तो एक बार जरूर जाएंगे?☺️