– पंकज शुक्ला, पत्रकार-स्तंभकार
कुछ दिन पहले की बात है। अगस्त 2023 का एक दिन था। लेपटॉप में सिर गढ़ाए बैठा था कि लेखिका-सामाजिक कार्यकर्ता सोनल शर्मा जी का मैसेज मिला। ‘लव ऑल’ फिल्म का जिक्र था। टाइटल पढ़ा तो लगा कि यह उस विषय पर फिल्म होगी जिस पर बात करने की आज सबसे ज्यादा जरूरत है: ‘मोहब्बत’। ‘कालीचट’ फिल्म के निर्माताओं और कल्पनाकारों से यह उम्मीद की जानी बेमानी भी नहीं है। मगर जब अगली ही पंक्ति में पढ़ा ‘बैडमिंटन’ तो स्तब्ध हो गया। शब्द गुंजने लगे: रैकेट, शटल कॉक, डांट, तालियां, स्मैश, रैली… सबकुछ। कोर्ट में रेफरी द्वारा कहे गए ‘लव ऑल’ से पहले भी और बाद भी। एक झटके से तंद्रा टूटी, ओह यह फिल्म अपने बैडमिंटन पर आधारित है। देखना तो बनता है। और इस तरह अर्से बाद हम मल्टी प्लेक्स में थे। हम यानी मैं, कविता और नन्हा देवधर।
इस फिल्म के बारे में मैंने ज्यादा पढ़ा नहीं था। इसलिए केवल भीतर यही रोमांच लिए स्क्रीन के सामने जम गया कि ‘चक दे इंडिया’ या ‘दंगल’ और थोड़ा पहले की बात करूं तो ‘हिप हिप हुर्रे’ सा आनंद गुजरने वाला है। मगर ये क्या, फिल्म शुरू हुई तो अपने भोपाल के साथ। अरे, देखो, देखो, अपनी बड़ी झील, वीआईपी रोड, ताजुल, 11 नंबर, जवाहर स्कूल। भेल के क्वार्टर हैं यह तो। अरे, ये तो हर्ष दौंड हैं। ये देखो ये स्वस्तिका चक्रवर्ती हैं, ये दामोदर प्रसाद आर्य हैं।
पूरी फिल्म में ये बातें पहचानता रहा, पास बैठे देवधर को बताता रहा। हीरो सा अपना शहर देख मेरे साथ वह भी प्रफुल्लित।
मगर, मगर बात इतनी ही नहीं है। बात तो बहुत आगे की है। फिल्म के फ्लैशबैक शॉट मुझे अपने अतीत में ले जा रहे थे।
रतलाम, उससे पहले का पेटलावद और फिर भोपाल में बीता ढ़ाई दशक। फिल्म के नायक की तरह मैं भी अपने भीतर दो शहर जी रहा था। मेरे भीतर कल का रतलाम भी था और आज का भोपाल भी।
कितना साम्य!
हमने जिया है, साइकिल का हैंडल थामे चंदर वाला किरदार। वो मैं ही तो था जो रतलाम के न्यू रोड पर छजलानी बुक शॉप या भोपाल के वैरायटी बुक हाउस व चांदना बुक हाउस पर किताबें खरीदने जाया करता था। रतलाम के साइंस-आर्ट कॉलेज का कोर्ट, ऑफिसर्स कॉलोनी का कोर्ट, रेलवे इंस्टीट्यूट। कोठारी स्पोर्ट्स। कॉलेज के स्पोर्ट्स टीचर मजावदिया सर। रायन डिक्रूज, प्रशांत कौशिक, मुजीब खान, रिंकू, नीरज शर्मा से लेकर कोर्ट में सिक्का जमाने वाले हमारे जमाने के सब के सब चैम्प्स।
दृश्य बदलता है तो याद आ जाते हैं, भोपाल का स्टेडियम। इंटर प्रेस बैडमिंटन टूर्नामेंट। साथी ललित कटारिया।
यह एक्सरसाइज तो हमें रेलवे इंस्टीट्यूट में सिखाई गई थी। ये रैकेट की गटिंग के लिए खुद ही औजार बनाए थे। कई बार यूं हुआ कि भूलने का मन हुआ कि थिएटर में बैठा हूं और जोर से चिल्लाना चाहा, क्या स्मैश था यार।
कितने ही किरदार याद आए। अपने जमाने के चैम्पियन्स, जिनके साथ खेल-खेल कर यहां तक पहुंचे। यहां माने जब बैडमिंटन खेले तो मनभर खेले और अखबार में काम कर रहे हैं तो शौक से।
मुख्य किरदार केके मेनन का कहा याद आया, कई लड़के रैकेट छोड़ अखबार बांटने लगते हैं। अखबार मेरी जिंदगी में भी आया। किसी दूसरी तरह से। लेकिन यह सच है कि बैडमिंटन पीछे छूट गया। याद आए टीम के साथ किए गए टूर। सीनियर की हिदायत कि वे हमला करने हॉकी लेकर आते हैं, हमें अपने से पहले अपने रैकेट को बचाना पड़ता है। फिर वही रैकेट कोर्ट में सबसे बड़ा साधन बनता है।
कितनी ही प्रेम कहानियां याद आईं। रैकेट से प्रेम, कोर्ट से इश्क, शटल से मोहब्बत। एक ही खिलाड़ी कभी शटल कहता, कभी चिड़िया, कभी कॉक या कभी महबूबा तो उसके मन के उतार चढ़ाव समझ आ जाया करते थे।
कॉफी और माफी के दृश्य हमारे जीवन के ही तो हैं। यह भी कि ऐसा दोस्त तो वहीं हो सकता है, उसी शहर में जिसे हम अपना घर वाला शहर कहते हैं।
मैं सुन रहा था, मुझे देना साहस कि हिम्मत न हारूं, रो कर कभी भी तुम्हें न पुकारूं!’ और मुझे याद आ रहे थे गुरुदेव। नहीं मांगता, प्रभु, विपत्ति से, मुझे बचाओ, त्राण करो, विपदा में निर्भीक रहूँ मैं, इतना, हे भगवान, करो।’
जब सुन रहा था कि सबसे बड़ा मैच होता है एक ऐसा युद्ध जिसे लड़ कर जितना पड़ता है खुद से खुद को। इस एक मंत्र को कितने ही ‘कोच’ (मैदान के और जीवन के गुरु) से सुना है। यह भी खेल तो खेल है, युद्ध का मैदान नहीं। याद आ गए जावरा, उज्जैन, मंदसौर की टीम से हुए हमारी टीम के मुकाबले और हार-जीत के बाद कोर्ट के बाहर चाय व खारी (बिस्किट) के साथ लगे ठहाके।
केके मेनन, स्वस्तिका मुखर्जी, श्रीस्वरा, सुमित अरोरा, अतुल श्रीवास्तव, रॉबिन दास, राजा बुंदेला तो मंजे हुए कलाकार हैं मगर वे उनका क्या जो कोर्ट में शानदार खेल दिखा रहे हैं, वे जो फिल्म में असरकारी अभिनय दिखा रहे हैं। पूरे समय यह सवाल मुझे परेशान करता रहा। ये अभिनेता है तो इतना अच्छा खेल कैसे, यह खिलाड़ी है तो इतना स्वाभाविक अभिनय कैसे? मुझसे रहा नहीं गया सर्च किया तो पता चला आदित्य यानी अर्क जैन राजस्थान के टॉप सीडेड बैडमिंटन खिलाड़ी हैं। फिर तो यही कहने का मन हुआ, वाह उस्ताद, क्या कमाल किया है।
यह वाह उस्ताद कहना अर्क जैन के लिए भी है और फिल्म के निर्देशक सुधांशु शर्मा के लिए भी। अगर यह कहूं कि यह फिल्म सिनेमा की भाषा में लिखी गई कविता है तो यह बहुत सतही टिप्पणी होगी। आसान सी। ऐसा लगेगा कि उस कवित्त तक पहुंचा ही नहीं जो सिनेमा में रचा गया है।
हां, यह कहना चाहूंगा कि यह फिल्म मेरे लिए यादों का एल्बम साबित हुई। ऐसा लगा जैसे कुछ कुछ मेरे ही कथानक पर फिल्म बना दी गई हो। जैसे मैं सीडी या यूं कहिए वीएचएस की कैसेट लगा कर 1986 से 2023 की यात्रा कर रहा हूं।
एक खास और बेहद व्यक्तिगत धन्यवाद बनता है:
इसलिए कि बहुत काम किया, सिर्फ काम किया वाली जिंदगी में यह फिल्म सितार के तार छेड़ गई। फिल्म देखते-देखते कई दफा मैंने अपनी उंगलियों को रैकेट पर कसते पाया। खुद को हारते और जीतते पाया।
इसलिए कि खेल भावना का पाठ दोहरा पाया। इसलिए कि घर में बरसों से टंगे रैकेट का अर्थ समझ पाया देवधर।
बॉक्स ऑफिस पर फ़िल्म की सफलता से इतर असली सफलता यही है कि कहानी से,पात्रों से,घटनाओं से इस कदर ,इतने गहरे जाकर जुड़ाव महसूस किया जा सके।उन कुछ घंटों में कुछ बरस जी लिए गए लगते हैं।