अनिल ठाकुर, स्तंभकार
2024 चुनाव सिर पर है लेकिन दिशाहीन सा विपक्ष अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि वे जनता के सामने मुद्दों को लेकर जा रहे या मोदी हटाओं के नारे को। मोदी विरोध के नाम पर बने विपक्षी गठबंधन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि मोदी हटाओ नारे की अगुवाई करने वाले प्रमुख नेताओं में से नीतीश बाबू अब मोदी के साथ है, ममता बनर्जी कांग्रेस को ही 40 सीटें ही जीतने की चुनौती दे रही है, तीसरे मोर्चे का ख्वाब देखने वाले नेता चंद्रशेखर राव विधानसभा चुनाव हारकर अपने ही राज्य में अस्तित्व को बचाने में उलझ गए।
अन्य राज्यस्तरीय नेता प्रारंभ से ही अपने प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गठबंधन में शामिल हुए थे, वे अभी भी गठबंधन में अपनी शर्तो पर बने हुए है। अखिलेश यादव, स्टालिन, सोरेन, केजरीवाल जैसे नेता इसी श्रेणी में आते हैं। केजरीवाल की पार्टी अभी दो राज्यों में सत्ता पर काबिज है, राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद वे पूरे देश में पार्टी के विस्तार के लक्ष्य को निर्धारित कर एक-एक कदम बड़ी सोची समझी रणनीति की तरह उठा रहे है। राहुल गांधी के बाद केजरीवाल ही एक ऐसे नेता हैं जो प्रधानमंत्री पद के लिए अपने को सबसे योग्य समझते हैं लेकिन फर्क और ताकत यह है कि केजरीवाल अपनी रणनीति खुद बनाते हैं जबकि राहुल गांधी चाटुकारों के भरोसे यह सपना पाले हुए है। वर्तमान हालात को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यदि 2024 में भाजपा पुनः सत्ता में आई तो 2029 में उसके सामने चुनौती कांग्रेस नहीं वरन आप नेता केजरीवाल होंगे। बशर्ते नए उभरते नेता चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर नई पार्टी बनाकर केजरीवाल के सामने न हो क्योंकि दोनों की सोच और कार्यशैली एक जैसी है।
गठबंधन की तीसरी प्रमुख पार्टी कम्युनिस्ट की लड़ाई सिर्फ और सिर्फ केरल में ही है और वह भी कांग्रेस से। राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टी कहीं-कहीं सिर्फ वैचारिक स्तर पर ही जिंदा है। इनमे से एक भी पार्टी ऐसी नही है जो सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों जैसे बेरोजगारी, महंगाई, अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी को चुनौती देने की बात कर रही हो। कुछ नए मुद्दे जैसे जातिगत जनगणना, अखिलेश यादव के पीडीए वाले फार्मूले को मोदी ने पिछले एक महीने के दौरान लिए निर्णयों से बोथरा कर दिया है। लोकतंत्र की हत्या, चुनाव आयोग, मीडिया और न्यायपालिका पर कब्जे को लेकर अनेक तर्क देते समय वे यह भूल जाते है कि इन्हीं सब आरोपों में मिली सजा वे लोकतांत्रिक तरीके से खुद सत्ता से बेदखल होकर भुगत रहे हैं।
कांग्रेस का यह मानना कि वह आज भी देश की बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है जिसका प्रभाव पूरे देश में है एवं 12 करोड़ मतदाताओं ने उस पर भरोसा दिखाया था, गलत नही है। प्रभाव की दृष्टि से यह संख्या कम नहीं है लेकिन जब आपका वोट बैंक बिखरा-बिखरा हो तो 400 सीटों पर चुनाव लडने के बावजूद आपके खाते में सिर्फ 40 सीटे ही आएंगी। कांग्रेस के पतन की रही सही कसर राहुल अपने बयानों से पूरी कर देते हैं, नीतियों से ज्यादा मोदी की व्यक्तिगत आलोचना करके। पिछले नौ वर्षो में वे एक भी मुद्दा ऐसा नहीं पकड़ पाए जो मतदाता को लुभा सके। फूल टाइम राजनेता ना होने के अपने ऊपर लगे आरोपों को उन्होंने भारत जोड़ा यात्रा के माध्यम से कुछ हद तक मिटाने का प्रयास किया था लेकिन विदेशों में दिए गए उनके विवादास्पद बयानों उस पर पानी फेर दिया। उनके कुछ प्रशंसक और राजनीतिक विश्लेषकों ने गठबंधन को इंडिया नाम देने पर ही राहुल को परिपक्व और चिंतनशील नेता बताने के साथ यह कहना शुरू कर दिया था कि मोदी को विपक्ष एकजुट होकर ही हरा सकता है।
अब यही विश्लेषक यह तर्क दे रहे है कि यदि गठबंधन के दल एक दूसरे के विरुद्ध लड़ेंगे तो मतदाता का पास विपक्ष के रूप में गठबंधन का ही दल रहेगा और वह बीजेपी के पक्ष में वोट नही करेगा। लेकिन दबी जुबान से वे यह स्वीकार्य करने लगे है कि एनडीए को बहुमत तो मिल ही जायेगा। तात्पर्य यह है कि राहुल को दिग्भ्रमित उनके अपने समर्थक और चाटुकार ही करते है। कोई ठोस मुद्दा या विचार कहीं नजर नहीं आता है और यदि है भी तो सिर्फ कागज और वक्तव्यों में।
विपक्ष कमजोर है इसलिए यह कहा जाए कि मोदी की जीत निश्चित है, यह भी अनुचित होगा। जीत और हार का निर्णय तो मतदाता ही करेंगे और वह भी परिणाम आने पर लेकिन जीत के लिए संकल्प, ललक और रणनीति आवश्यक है जो मतदाता को नजर आनी चाहिए। आसमान में सुराख करने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति चाहे वह मुद्दों के रूप में हो चाहे रणनीति के, आम जनता को महसूस होना चाहिए कि वह उसके हित में है। मोदी सिर्फ अपने मुद्दे और रणनीति ही तय नही करते बल्कि वे विपक्ष के मुद्दों को भी अपना हथियार बना लेते हैं। वे जैसे चाहे विपक्ष को उनकी पिच पर खेलने के लिए मजबूर कर देते हैं और यदि विपक्ष उसकी पिच पर लाने की कोशिश करता है तो उसे अपनी बनाकर मैदान को बिखेर देते है।
जातिगत जनगणना और पीडीए के मुद्दे को उन्होंने किस रणनीति से नेस्तनाबूद किया यह उदाहरण सामने है। कर्पूरी ठाकुर, चौ.चरणसिंह और नरसिम्हा राव को भारत रत्न एवं मुलायम सिंह यादव को पदम्भूषण देने का निर्णय इसी रणनीति का हिस्सा कहा जा सकता है। चुनाव के वक्त क्या कोई नेता यह साहस कर सकता है कि अपनी विरोधी विचारधारा के किसी राजनेता को देश के सर्वोच्च सम्मान से विभूषित करने का निर्णय ले सके? गणतंत्र दिवस के पूर्व आडवाणी को भारत रत्न देने की घोषणा करने बजाय बाद में इसकी घोषणा करने के पीछे क्या उद्देश्य है, क्या इस पर किसी ने ध्यान दिया? ऐसा तो नहीं है कि यह निर्णय उन्होंने बाद में लिया होगा।
इन तीन नेताओं को भारत रत्न देने को कुछ बुद्धिजीवी भारत रत्न का अवमूल्यन बता रहे हैं। वे यह भूल जाते है कि सचिन तेंदुलकर और बिस्मिलाह खां के लिए भी यही कहा गया था। चुनाव के वक्त इन हस्तियों को यह सम्मान प्रदान करने पर नैतिकता का सवाल भी उठाया जा रहा है। राजनीति की डिक्शनरी में अब नैतिकता शब्द बचा भी है क्या? भ्रष्टाचार में सजायाफ्ता जब नेतृत्व की अगुआई करें तो किस मुंह से नैतिकता की बात होंगी? यह सच है आज भाजपा भी उन्हीं रास्तों से गुजर रही है जो कांग्रेस ने बनाए थे। हो सकता है कुछ वर्षो बाद भाजपा को भी इसके परिणाम भुगतने पड़े। यही नहीं यदि राजनीतिक चाल चलन इसी तरह रहा तो 10/15 वर्षो बाद किसी सत्ताधारी को बेदखल करने के लिए भाजपा और कांग्रेस को गठबंधन करना पड़े तो आश्चर्य नहीं होगा।
अभी लक्ष्य 2024 का चुनाव है। जब विपक्षी गठबंधन बना था तो यह कहा जाने लगा था कि अब सत्ता परिवर्तन निश्चित है। अभी तो गठबंधन का भविष्य ही खतरे में है। जनाब, आसमान में सुराख ऐसे ही नहीं हो जाता। उसके लिए इच्छा शक्ति, संकल्प की जरूरत होती है। सत्ता के इस स्वयंवर में कई महारथी है, कौन योग्य है और कौन अयोग्य, इसका निर्धारण तो आम मतदाता ही करेंगे।