फोटो व आलेख: बंसीलाल परमार, प्रख्यात फोटोग्राफर
बनने की प्रक्रिया से पूर्व ही बालभोग… मेरा, आपका शायद हम सबका यह अनुभव रहा है। यह बचपना बूढ़े होने तक रहता है। यह आदत जुड़ी है एक सब्जी से। यह मालवा तो क्या सब जगह सब्जी है। यूं तो यह सब्जी नहीं है लेकिन कहते इसे सब सब्जी ही हैं और सब्जी को मात भी देती है। मैं बता कर रहा हूं बेसन गट्टे की।
जब भी घर पर मां बेसन गट्टे बनाती थी हम चौके चुल्हे के आसपास मंडराते रहते थे। बेसन में मिर्च-मसाला और मोइन डाल जब लकड़ी के पाटले पर दोनों हाथों से बेलनाकार बना कर उन्हे उबला जाता तो हमारे मुंह में स्वाद घुल जाता। भगोनी में जब तक पानी में बेसन गट्टे उबलते हम चौके के पास ही जम जाते पकने के इंतजार में। मां जब भगोनी उतार पीतल की थाली में उबले गट्टे डालती तब याचक मुद्रा में आकर खड़े हो जाते और एक ही पुकार, बई मने दे, बई मने दे।
मां बड़ी कंजूसी से खुरपे से छोटे टुकड़े कर कटौरी में उबले गट्टे देती हमें। हमारी कटोरी पल में साफ फिर वही पुकार, और दे। मां कहती सब्जी में क्या डालूंगी? तब भी अनुनय-विनय कर और हथिया लेते। कभी रूआंसे हो कर कहते, इसको ज्यादा दिया मुझे कम। यह हथकंडा काम आ जाता और इस झूठ के सहारे कुछ और गट्टे हाथ आ जाते थे।
आज भी पुत्र-पुत्रियां, नातिन -पौत्री आदि के होते हुए भी मैं उबले बेसन गट्टे हथियाने के हथकंड़े अपनाता हूं । मुझे आश्चर्य होता है कि इसे नाश्ते के रुप में विकसित क्यों नहीं किया गया? इसे पीसे मूंगफली दाने तथा अन्य पौष्टिक चीजों को मिला कर बेहतर नाश्ते का विकल्प बनाया जा सकता है। साथ ही फैट की मात्रा न के बराबर और स्वाद? स्वाद तो शायद सबने चखा सही है।