‘मानस के हंस’ और ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ के लेखक अमृतलाल नागर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद, कथाकार शरतचंद्र, महाप्राण निराला, जयशंकर प्रसाद जैसे रचनाकारों के सानिध्य में अद्वितीय लेखक बने। ऐसे रचनाकार जिनकी गिनती हिंदी साहित्य के गद्य शिल्पियों में प्रेमचंद के बाद होती है। उन्हीं अमृतलाल नागर की 23 फरवरी को पुण्यतिथि है। नागर जी का जन्म 17 अगस्त 1916 को आगरा के गोकुलपुरा में हुआ था। 55 वर्ष के लेखनकाल में उन्होंने बेहद विस्तृत और वैविध्यपूर्ण साहित्य रचा है। बाल साहित्य, कविताएं, कहानियां, उपन्यास, व्यंग्य, अनुवाद, संपादन, संस्मरण नाटक, रेडियो नाटक व फीचर, साहित्य की ऐसी कौन सी विधा जो नागर जी ने नहीं रची।
इस रचना प्रक्रिया की शुरुआत 1932 में हुई। पहले मेघराज इंद्र के नाम से कविताएं लिखीं। ‘तस्लीम लखनवी’ नाम से व्यंग्यपूर्ण स्केच व निबंध लिखे। कहानियां मूल नाम अमृतलाल नागर से ही लिखीं। पहला कहानी संग्रह, ‘वाटिका’ वर्ष 1935 में प्रकाशित हुआ था। 1956 में प्रकाशित, ‘बूंद और समुद्र’ बड़ा उपन्यास है जो लखनऊ के चौक मोहल्लों और गलियों के किरदारों से रूबरू करवाता है। ‘अमृत और विष’ 1965 में आत्मकथा शैली में लिखा गया जिसे 1967 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है। ‘एकदा नैमिषारण्य’ में भारत के पौराणिक और ऐतिहासिक अतीत के दर्शन होते हैं।
1972 में आया ‘मानस का हंस’ और 1977 में प्रकाशित ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ नागर जी का प्रतिनिधि साहित्य कहा जाता है। ‘मानस का हंस’ महकवि तुलसीदास की जीवनी है। ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ में सफाईकर्मी समाज और नारी शोषण की संवेदनशील गाथा है। 1980 में रचा गया ‘खंजन नयन’ उपन्यास भक्त कवि सूरदास की जीवनी पर आधारित हैं। ‘मानस का हंस’ पर मध्य प्रदेश सरकार ने अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार, वर्ष 1985 का उप्र हिंदी संस्थान का सर्वोच्च भारत भारती सम्मान तथा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण सम्मान प्रमुख हैं।
नागर जी ने बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र के प्रति अपने मोह को अक्सर व्यक्त किया है। शरतचंद्र से मुलाकात और उनसे मिली सलाह ने भी नागर जी के साहित्य को नई दिशा ही है। शरत साहित्य पढ़ने के लिए ही नागर जी ने बांग्ला सीखी थी। जब वे शरत जी ने मिलने गए तो वह मुलाकात नागर जी की साहित्य यात्रा में मील का पत्थर बनी। संस्मरण “शरत के साथ बिताया कुछ समय” में स्वयं नागर जी लिखते हैं :
उनके दर्शन करने मैं कलकत्ता गया। परिचय होने के बाद, दूसरे दिन जब मैं उनसे मिलने गया, मुझे ऐसा मालूम पड़ा जैसे हम वर्षों से एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। इधर-उधर की बहुत-सी बातें होने के बाद एकाएक वह मुझसे पूछ बैठे, ”क्या तुमने यह निश्चय कर लिया है कि आजन्म साहित्य-सेवा करते रहोगे?”
मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, ”जी हां।”
वे बोले, “ठीक है। केवल इस बात का ध्यान रखना कि जो कुछ भी लिखो, वह अधिकतर तुम्हारे अपने ही अनुभवों के आधार पर हो। व्यर्थ की कल्पना के चक्कर में कभी न पड़ना।”
शरतचंद्र के प्रति अपने मोह का जिक्र करते हुए अमृतलाल नागर ‘जिनके साथ जिया’ में लिखते हैं, “याद आता है, स्कूल-जीवन में, जब से उपन्यास और कहानियां पढ़ने का शौक हुआ, मैंने शरत बाबू की कई पुस्तकें पढ़ डालीं। एक-एक पुस्तक को कई-कई बार पढ़ा और आज जब उपन्यास अथवा कहानी पढ़ना मेरे लिए केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं, वरन् अध्ययन का प्रधान विषय हो गया है, तब भी मैं उनकी रचनाओं को अक्सर बार-बार पढ़ा करता हूँ। उनकी रचनाओं को मूल भाषा में पढ़ने के लिए ही मैंने बांग्ला सीखी। सचमुच ही, मैं उनसे बहुत ही प्रभावित हुआ हूं। उनके दर्शन करने मैं कलकत्ता गया। परिचय होने के बाद, दूसरे दिन जब मैं उनसे मिलने गया, मुझे ऐसा मालूम पड़ा जैसे हम वर्षों से एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।”
अमृतलाल नागर अपने संस्मरण में लिखते हैं:
”शरतचंद्र की बातों से मैंने कई बार यह अनुभव किया कि उनमें स्नेह की मात्रा अधिक थी। कई बार बातचीत के सिलसिले में उन्होंने मुझसे कहा, “देखो अमरीत, तुम अभी बच्चे हो, फिर तुम्हारे सिर से तुम्हारे पिता का साया भी उठ चुका है। दुनिया ऐसे आदमियों को हर तरह से ठगने की कोशिश किया करती है। तुम्हारे साथ गृहस्थी है। इसी से मैं तुमसे यह सब कहता हूं। …और इस बात को हमेशा ध्यान में रखना कि अगर तुम्हारे पास चार पैसे हों तो अधिक से अधिक तुम उन्हीं चारों को ख़र्च कर डालो, लेकिन कभी किसी से पांचवां पैसा उधार न लेना।”
शरत जी से मिले साहित्य लेखन के सूत्र को आगे बढ़ाते हुए अमृत जी ‘टुकड़े-टुकड़े दास्तान’ में लेखकों के लिए मार्ग सा दिखाते हुए लिखते हैं कि दूसरों की रचनाएं, विशेष रूप से लोकमान्य लेखकों की रचनाएं पढ़ने से लेखक को अपनी शक्ति और कमजोरी का पता लगता है। यह हर हालत में बहुत ही अच्छी आदत है। इसने एक विचित्र तड़प भी मेरे मन में जगाई। बार-बार यह अनुभव होता था कि विदेशी साहित्य तो अंग्रेजी के माध्यम से बराबर हमारी दृष्टि में पड़ता रहता है, किंतु देशी साहित्य के संबंध में हम कुछ नहीं जान पाते। उन दिनों हिंदीवालों में बांग्ला पढ़ने का चलन तो किसी हद तक था, लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य हमारी जानकारी में प्रायः नहीं के बराबर ही था। इसी तड़प में मैंने अपने देश की चार भाषाएं सीखी।
नागर जी लिखते हैं, आज तो दावे से कह सकता हूं कि लेखक के रूप में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए मेरी इस आदत ने मेरा बड़ा ही उपकार किया है। विभिन्न वातावरणों को देखना, घूमना भटकना, बहुश्रुत और बहुपठित होना भी मेरे बड़े काम आता है। यह मेरा अनुभवजन्य मत है कि मैदान मैं लड़नेवाले सिपाही को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए जिस प्रकार नित्य की कवायद बहुत आवश्यक होती है, उसी प्रकार लेखक के लिए उपरोक्त अभ्यास भी नितांत आवश्यक है। केवल साहित्यिक वातावरण ही में रहनेवाला कथा लेखक मेरे विचार में घाटे में रहता है। उसे नि:स्संकोच विविध वातावरणों से अपना सीधा संपर्क स्थापित करना ही चाहिए।