- टॉक थ्रू टीम
यह आस्थाओं के कांपने का दौर है। खासकर राजनीति आस्था। कैसा विकट समय है, या कहिए कैसी गिरावट है कि जिस विचार का बरसों गुण गाया, जिसकी कसमें खायी, उसे पल में भूला देना और जिसे पानी पी-पी कर कोसा उसके प्रति सारी कड़वाहट को भूला देना इतना आसान, जितना पानी का घूंट गटकना सरल। राजनीति में तो यूं भी उदाहरण हैं कि एक सज्जन सुबह किसी और पार्टी में थे, दोपहर में दूसरी और शाम को तीसरी। ऐसा भी हुआ कि टिकट दिया एक पार्टी ने। उसीके नाम पर जीते और जीत के बाद दूसरी पार्टी के हो लिए। यूं भी हुआ है कि इधर से टिकट लिया और जा कर उधर बैठ गए। वक्त ने यह भी देखा है कि सुबह इस पार्टी में थे। दोपहर में उसमें चले गए। अगले दिन फिर इसमें आ गए।
यह भी हुआ कि पहले कप्तान थे। मैदान से बाहर बैठने की बारी आई तो 12 वें खिलाड़ी भी बनना मंजूर किया लेकिन पॉवर में बने रहे। ध्येय एक ही है, किसी तरह सत्ता बनी रहनी चाहिए, विचार की सत्ता जाए तो जाए। अगर आज के ऐसे नेताओं को दादा माखनलाल चतुर्वेदी का एक अनुभव बताएं तो देखना दिलचस्प होगा कि वे आंखें चुराते हैं या मोटी चमड़ी का प्रदर्शन करते हैं।
वाकया कुछ यूं है कि आजादी के बाद जब 1 नवंबर 1956 को मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो पहले मुख्यमंत्री के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी, रविशंकर शुक्ल और द्वारका प्रसाद मिश्र के नाम सुझाए गए। तब दादा ने यह कहते हुए पद ठुकरा दिया था कि मैं पहले से ही शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते ‘देवगुरु’ के आसन पर बैठा हूं। तुम लोग मुझे ‘देवराज’ के पद पर बैठना चाहते हो। यह पदावनति है जो मुझे सर्वथा अस्वीकार्य है।
आज के हालात होते तो समझा जा सकता है किसी नेता का क्या निर्णय होता। आज दादा माखनलाल चतुर्वेदी के आदर्शों का जिक्र इसलिए क्योंकि 4 अप्रैल को उनकी जयंती है। सहज साहित्यकार एवं निर्भीक पत्रकार दादा माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के बावई में हुआ था। 30 जनवरी 1968 को वे ब्रह्मलीन हुए। उन्होंने लगभग 16 वर्ष की आयु में आजीविका के लिए शिक्षण कार्य आरंभ किया लेकिन अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद शिक्षण कार्य त्याग दिया। तत्कालीन क्रांतिकारियों एवं पत्रकारिता के पुरोधा माधवराव सप्रे से मुलाकात के बाद जीवन दिशा परिवर्तित हुई।
दादा के पत्रकारीय जीवन का आरंभ 1913 में हुआ जब उन्होंने ‘प्रभा’ नामक पत्रिका का संपादन आरंभ किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात गणेशशंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि से हुई. माधवराव सप्रे ने कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके दादा माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन में देशभक्ति के भावों को मुखर किया। सप्रे जी ही बाद में दादा के राजनीतिक गुरु भी बने। सप्रे जी के प्रधान संपादन में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘कर्मवीर’ से 1920 में दादा आ जुड़े। तथ्य है कि ‘कर्मवीर’ नाम भी दादा माखनलाल ने ही सुझाया था।
दादा को अपनी निर्भीक पत्रकारिता के कारण ‘राजद्रोह’ के मुकदमे में जेल भी जाना पड़ा, लेकिन पत्रकारिता का पैनापन कभी खत्म न हुआ. अंदाज ऐसा कि 15 से ज्यादा रियासतों ने ‘कर्मवीर’ पर पाबंदियां लगा दी मगर पत्रकारिता की धार वैसी ही बनी रही। जब अंग्रेज सरकार ने गणेशशंकर विद्यार्थी को गिरफ्तार कर लिया तो विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ को कुछ समय तक दादा माखनलाल ने संभाला।
दादा माखनलाल की साहित्य यात्रा का उल्लेख करते हैं तो ‘हिम किरीटिनी’, ‘हिमतरंगिणी’, ‘समर्पण’, ‘युग चरण’ ‘मरण ज्वार’ (कविता-संग्रह), ‘कृष्णार्जुन युद्ध’, ‘साहित्य के देवता’, ‘समय के पांव (गद्य रचना) जैसे नाम याद आते हैं। ‘हिम किरीटिनी’ के लिए ‘देव पुरस्कार’ तो ‘हिमतरंगिणी’ के लिए दादा माखनलाल को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1963 में भारत सरकार ने दादा को ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया. जब 1967 में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की प्रक्रिया के दौरान विधेयक पारित किया गया तो इसके विरोध में उन्होंने ‘पद्मभूषण’ सम्मान लौटा दिया था।
राष्ट्र प्रेम के साहित्य को भारी-भरकम शब्दावली से मुक्त करवा कर उसे सहज रूप से जनता तक पहुंचाने का श्रेय दादा माखनलाल चतुर्वेदी को जाता है. उनकी रचनाओं में जितना राष्ट्र प्रेम मुखरित हैं उतनी ही पर्यावरण चेतना भी। जो खुद कभी ईमान से नहीं डिगे, जिन्होंने अपने आचरण से हमेशा संघर्ष की सीख दी उनकी रचनाओं में प्रकृति के सहारे जीवन उन्नत बनाने की प्रेरणा बार बार रेखांकित होती है। शिखर की ओर तकने वाले, शिखर की ओर बढ़ने वाले, ऊंचाई के लिए स्वयं को गिरा देने वाले इस समय में ‘गंगा की विदाई’ में निराली प्रेरणा उद्घाटित होती है:
शिखर शिखारियों मे मत रोको,
तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,
भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,
तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।
यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित ‘भू’
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,
इसका तट-धन लिए तरानियां, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।
माखनलाल चतुर्वेदी को भारतीय आत्मा भी कहते हैं वर्तमान नर्मदा नदी किनारे के बावाई नगर जो आज माखन नगर कहा जाता है ।नर्मदा की कछार स्थित इस ग्राम का नाम माखनलाल चतुर्वेदी जी की स्मृति से ध्रुव तारे तरह चमकता है। आज ऐसे उच्च विचारों के व्यक्ति की समाज में नितांत कमी है।