कम होने के बेशुमार गम: बाशिंदों के लिए तरस रही दुनिया

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

क्या आपने किशोर वय के बच्चों को यह कहते सुना है कि विवाह करना व्यर्थ है और यह कि उनको इस संसार में जन्म देने की जरूरत ही क्या थी? क्या है इस दुनिया में कि उन्हें उनकी मर्जी के बगैर जन्म दिया गया है? यदि नहीं सुना तो समझ लीजिये कि आप तेजी से बदलती हुई सामाजिक सोच और बच्चों पर उसके असर से बिलकुल भी वाकिफ नहीं।

परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि जन्म के बाद सिर्फ तीन चार साल तक बच्चे मां-बाप के दुलार में पलते हैं और इसके बाद उन्हें एक तरह से फेंक दिया जाता है अजनबियों के हवाले। यह बच्चे के लिए बहुत ही अप्रत्याशित और एक सदमे की तरह होता है। समाजीकरण की यही प्रक्रिया प्रचलित है। बहुत लंबे समय से। बड़ा होते-होते बच्चा दुनिया के कई ऐसे रूप देख चुका होता है जों उसके कोमल मन को चोट पहुंचाते हैं। यह सब कुछ पिछले तीन दशकों में अधिक देखा गया है। इंटरनेट ने बच्चों की दुनिया को बहुत बदल दिया है। अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ उसके रिश्तों में बुनियादी बदलाव आये हैं। अक्सर वह निराश भी हो जाता है। हर दिन उसके लिए एक संघर्ष होता है। कहीं न कहीं उसके मन में यह बात बैठ जाती है कि इस दुनिया में रहना आसान नहीं। इसमें और लोगों को लाना तो एक तरह से अपराध है। हमारी पीढी के सामने कई उम्मीदें थीं, लोग उतने अधिक आत्मकेंद्रित नहीं थे जितने शायद वे अब हैं। बच्चे भी और उनके अभिभावक भी।  

उदास, थके हुए और परेशान लोग आत्मविस्तार में रूचि नहीं रखते। समझदार लोग भी नहीं। इसलिए पश्चिम में लोग विवाह करने से पहले, किसी स्थाई, कानूनी संबंध में पड़ने से पहले खूब सोचते हैं। उन्हें अक्सर लगता है कि जीवन में अनावश्यक संघर्ष बहुत ज्यादा है। ऐसे में बेहतर यही है कि और बच्चे दुनिया में न लाये जाएं। इस दुःख को अपने आप में सीमित रखते हुए ही जीवन को ख़त्म कर दिया जाए। कई लोग अपने सुख को भी बांटना नहीं चाहते। सोचते हैं कि बच्चे हुए तो खुद की खुशी के लिए समय कम बचेगा। नींद पूरी नहीं हो पायेगी। कॅरियर के विकास में दिक्कतें आएंगी, वगैरह।

जापान में तो सरकारें किसी भी तरह आबादी बढाने के लिए परेशान हैं। इस उद्देश्य में कामयाब नहीं हो रही तो बाहर के लोगों को अपने देश में बुला रही है। छात्रों को पढने के लिए आमंत्रित कर रही है। सिर्फ अपना पहचान पत्र दिखाने भर से उनको वीज़ा देने का वादा कर रही है। करीब आठ वर्ष पहले सरकार ने वहां कहा था कि देश में आबादी कम होने की समस्या बहुत गंभीर शक्ल ले रही है। और अब आठ साल बाद वहां की सरकार अभी भी कह रही है कि आबादी की समस्या को लेकर कुछ करना बहुत जरूरी है क्योंकि ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ वाली स्थिति आ गई है। 2023 में लगातार आठवें साल में जापान की आबादी कम हुई है। 2022 की तुलना में वहां आबादी में 5.1 फीसदी की गिरावट आई है। देश में लोगों में प्रजनन की क्षमता कम हुई जा रही है और दूसरी तरफ बूढ़े लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। जापान की सरकार ने पचहत्तर साल से ऊपर के लोगों को इच्छामृत्यु की इजाजत देने के लिए एक कानून लाने पर भी विचार किया है। जहां जन्म लेने वालों से अधिक मरने वालों की संख्या बढ़ आयी, वहां अर्थव्यवस्था, कल्याणकारी नीतियों और काम करने वाली आबादी की गुणवत्ता पर भारी असर पड़ता है। बहुत कुछ उथल-पुथल हो जाता है।     

जापान अकेला नहीं इस मुसीबत में

जापान घटती आबादी की समस्या से जूझने वाला अकेला देश नहीं है। अलग-अलग शोध कार्यों और साइट्स से जुटाए गए आंकड़ों से पता चलता है चीन, हांगकांग, ताइवान और दक्षिण कोरिया के अलावा फ्रांस, इटली, जर्मनी सहित कई यूरोपीय देश भी इस समस्या का शिकार हुए हैं। पर जापान इन देशों और अमेरिका की तरह बाहर के लोगों को अपने देश में बुलाकर, अप्रवासन के जरिये उन्हें स्थापित करके आबादी बढाने के पक्ष में नहीं है। आपको बता दें कि दक्षिण कोरिया की प्रजनन दर फिलहाल दुनिया में सबसे कम है। जिन देशों ने इस रास्ते को अपनाया है उन्हें अलग तरह की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। आमतौर पर जो विकसित देशों में जाकर बसना चाहते हैं वे अविकसित या अल्प विकसित देशों के लोग होते हैं। विकसित देशों में अपने साथ अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक आदतों के साथ जाते हैं। वहां पहले से स्थापित मूल निवासियों के साथ उनके तरह तरह के संघर्ष होते हैं जिनकी वजह से कई विकसित देशों में बाहरी लोगों के खिलाफ अक्सर विरोध की खबरें मिलती रहती हैं। पर जापान की समस्या तो अनूठी है और दिनों-दिन जटिल होती जा रही है। जापान जो रास्ता अख्तियार करेगा वह अन्य कम आबादी की समस्या से जूझ रहे कई देशों के लिए एक उदाहरण बनेगा, इसकी भी उम्मीद है।

आबादी को लेकर जापान की समस्या मात्र लोगों के मनोवैज्ञानिक व्यवहार की वजह से ही नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि किसी देश की आबादी स्थिर रहे, इसके लिए जरूरी है कि 2.1 की प्रजनन दर बनी रहे। इसका अर्थ यह है कि एक स्त्री अपने जीवन काल में कितने लोगों को जन्म दे सकती है। प्रजनन दर इसी के आधार पर परिभाषित होती है। दर इससे अधिक हुई तो जनसंख्या बढ़ेगी और उसमें बच्चों और युवाओं की संख्या अधिक रहेगी। जैसा कि अफ्रीका के देशों और भारत में देखा जाता है। यह जान कर आश्चर्य होता है कि जापान मेनन पिछले 50 वर्षों से जापान की प्रजनन दर 2.1 से कम बनी हुई है। 1973 के बाद यह  इससे कम हो गई और इसके बाद बढ़ ही नहीं पाई। पिछले साल जापान की प्रजनन दर थी 1.3 । ऐसी स्थिति में जनसंख्या में बच्चों और युवाओं की तादाद काफी कम हो जाती है और बूढ़े लोगों की आबादी बढ़ती जाती है। उनकी मदद का काम युवाओं को या फिर सरकार को करना पड़ता है और देश की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे बिगड़ने लगती है। हर साल प्रजनन क्षमता वाली महिलाओं की संख्या भी घटने लगती है और लगातार घटती चली जाती है। विशेषज्ञ यह बताते हैं कि यदि जापानी दंपति औसतन तीन बच्चे भी पैदा करने लगे तो भी वहां की आबादी घटती चली जाएगी। जब तक नवजात बच्चे संतानोत्पत्ति के लायक नहीं हो जाते, इस समस्या का कोई हल नहीं। पर उनके बड़े होने तक लोगों के व्यवहार, उनकी सोच और बाकी बाहरी हालात कैसे रहेंगे, यह कहना अभी मुश्किल है।

विवाह ही नहीं करना

जापान में लोग विवाह की संस्था से विमुख होते जा रहे हैं। अकेले पुरुष या महिला या अविवाहित स्त्री का बच्चों को जन्म देना पश्चिमी देशों की तरह कोई सामान्य बात नहीं मानी जाती। जापान में विवाहों की संख्या 2023 में पिछले वर्ष की तुलना में 6 प्रतिशत घट गई। 90 वर्षों में पहली बार पांच लाख विवाह हुए। तलाक पिछले साल की तुलना में 2.6 प्रतिशत बढ़ गए। कई विशेषज्ञ बताते हैं कि जापान में रहन सहन बहुत महंगा है, अर्थव्यवस्था एक ही जगह अटक सी गई है, लोगों की तनख्वाह और रहने की जगह भी कम होती जा रही है और लोगों को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। हफ्ते में 70 घंटे काम करना वहां आम बात है। इन कारणों से भी लोग विवाह और उससे जुड़ी जिम्मेदारियों से घबराते हैं। वे रिश्तों से घबराते हैं, बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी लेने से परेशान हो जाते हैं।

पूर्वी एशिया के कई देश इस तरह की समस्या से ग्रस्त हैं। चीन में विवाह के इच्छुक लोगों की संख्या कम होती जा रही है। दक्षिण कोरिया में तीन में से सिर्फ एक युवा विवाह के बारे में सकारात्मक विचार रखता है। अधिकांश लोग कहते हैं कि उनके पास इतने पैसे नहीं कि वे विवाह के बारे में सोच भी सकें। कई यह मानते हैं कि विवाह की कोई जरूरत ही नहीं।

घटती आबादी के परिणाम

उद्योगों-धंधों में काम करने वालों की कमी हो जाती है। नौकरियां खाली होने पर भी लोग नहीं मिलते क्योंकि मेहनती युवाओं की आबादी कम हो रही है। कई ग्रामीण समुदाय समाप्ति के कगार पर हैं। एक गांव में तो पिछले 25 सालों से किसी बच्चे का जन्म ही नहीं हुआ! शहरों में भी कई रिक्तियां हैं पर उनको बाहर से आये लोगों की मदद से भरा जा रहा है। इनमें ज़्यादातर युवा चीन, वियतनाम जैसे देशों से आते हैं। सरकार लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए तरह तरह के प्रोत्सहन दे रही है। उन्हें बच्चों की देखभाल के लिए बेहतर सुविधाएँ और घर खरीदने पर सब्सिडी भी दे रही है। पर इनका कोई ख़ास सकारात्मक परिणाम देखने में नहीं आता। आबादी में संतुलन बनाने के लिए हो सकता है जापान को कई दशक लग जाएँ। ऐसी स्थिति किसी देश में कभी नहीं देखी गई है। इसका एक समाधान शायद यही है कि बड़ी संख्या में बाहर के लोगों को जापान बुलाकर वहीं बसाया जाए। पर जैसा कि पहले कहा जा चुका है, दुनिया के कई देश इसके बुरे परिणाम भुगत रहे हैं और जापान की सरकार ऐसा करने से पहले कई बार सोचेगी। वैसे भी जापान की सामजिक सोच ऐसी कभी नहीं रही कि लोग बाहरी आप्रवासियों का स्वागत करें।   

जहां भारत और पकिस्तान जैसे देशों में लोगों की कमी नहीं, आबादी लगातार बढ़ती जा रही है, नौकरियों के लिए लोग होड़ लगाये हुए हैं, वहीं दुनिया में ऐसे भी देश हैं जो बाशिंदों के लिए तरस रहे हैं। क्या यह जीवन के प्रति भयावह मोहभंग की स्थिति है जिसके कारण लोग अचेतन तल पर, अनजाने में ही सामूहिक निर्वाण की तरफ बढ़ रहे हैं जिसका अर्थ ‘बुझ जाना’ भी होता है। क्या सामाजिक विकास के किसी चरण में जीवन को आगे बढाने की कामना बुझ जाती है और बगैर किसी बाहरी आपदा या हिंसा के भी इंसानियत खत्म हो सकती है, यह सवाल मन में उठता है।      


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