बेटे का नाम तो बदला लेकिन किस्मत नहीं बदल पाई मां
चमकीला रजत पट सभी को लुभाता है। ऐसा बीसियों बार होता है जब हम फिल्म देखते हुए खुद को उसका एक हिस्सा मान लेते हैं। ऐसे रजत पट के सितारे भी किसी ख्वाब से कम नहीं होते। जिनका होना, जिन्हें देख लेना, कुछ पल का संग पा लेना ऐसा ख्वाब है जिसे लोग ताउम्र जिया करते हैं। कई सांसें इसी ख्वाब को पूरा होने की उम्मीद लिए खत्म हो गईं। ऐसा ही एक सितारा है गुरुदत्त। गुरुदत्त जिनके काम को देख प्रशंसा ही निकलती है तो उनका जीवन देख अफसोस। अफसोस कि वे और क्यों न जिए? क्यों उनके साथ जिंदगी ने ऐसा खेल रचा?
9 जुलाई हिंदी फिल्म जगत के लिए एक खास दिन है। 1925 का यही वह दिन था जब कर्नाटक में एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया बसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण। इसी बसंथ कुमार को बाद में दुनिया ने गुरुदत्त के नाम से पहचाना और प्यार किया। गुरुदत्त आज होते तो 100 साल के होते। यानी आज उनकी सौ वीं जयंती हैं। बसंथ कुमार के गुरुदत्त हो जाने के पीछे भी एक अनूठी कहानी है। उनका यह नाम फिल्म दुनिया के चलन के हिसाब से नहीं बदला बल्कि इसका कारण एक भविष्यवाणी थी। किसी ने आशंका जताई थी कि बसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण नाम बालक के जीवन में मुश्किलें लेकर आएगा तो घबरा कर मां ने बेटे का नाम गुरुदत्त रख दिया था। मां ने नाम तो बदला लेकिन वे अपने बेटे की किस्मत नहीं बदल पाई।
हम गुरुदत्त को उनकी फिल्मों से जानते हैं। ‘प्यासा’, ‘साहब, बीबी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ ‘चौदहवीं का चांद’, ‘बाजी’ जैसी फिल्में उनका परिचय हैं। इन फिल्मों के गीतों, ट्रीटमेंट और पर्दे पर उभरी श्रेष्ठता आज भी फिल्म प्रेमियों को हतप्रभ करती है। जब हम नाम सुनते हैं, गुरुदत्त तो हमारे जेहन में श्वेत-श्याम रंगों के तालमेल से प्रभाव उत्पन्न कैमरे के पीछे बैठे एक मकबूल निर्देशक की छवि बन जाती है।
संघर्ष के दिनों के मित्र देवानंद ने अपने बैनर तले ‘बाजी’ फिल्म का निर्देशन सौंपा। इस फिल्म ने गुरुदत्त को पहचान दे दी। ‘साहब, बीवी और गुलाम’ का तो कहना ही क्या. न सिर्फ बॉक्स ऑफिस बल्कि अवार्ड के मामले में भी यह बेहद सफल रही। मीना कुमारी ट्रेजेडी क्वीन कहलाई तो इसे सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इस फिल्म के लिए मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए, अबरार अल्वी को निर्देशन के लिए, गुरुदत्त को बतौर निर्माता सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए और वीके मूर्ति को सिनेमेटोग्राफी के लिए चार-चार फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिले। और ‘प्यासा’ का जिक्र ही अनूठा है। यह भारतीय सिनेमा की प्रतीक फिल्म है। इसकी खूबियों के कारण टाइम मैगजीन की सार्वकालिक सौ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में इसे शामिल किया गया है।
जैसा पर्दे पर है, वैसा ही कुछ गुरुदत्त के निजी जीवन में भी है। मशहूर गायिका गीता रॉय का प्रेमी गुरुदत्त। अभिनेत्री वहीद रहमान का दीवाना गुरुदत्त। गुरुदत्त जिसकी जिंदगी प्रेम के कारण बिखर गई। अपने काम का सिद्ध व्यक्ति, जिद की हद तक परफेक्शनिस्ट, ऐसा बावरा जिसने सबकुछ पाने की चाहत में सबकुछ लूटा दिया।गुरुदत्त पर लिखी गई विभिन्न किताबों में गुरुदत्त के बचपन से लेकर मृत्यु तक कई तथ्य दर्ज हैं। उस जमाने की ख्यात गायिका गीता रॉय से ‘बाजी’ के सेट पर मुलाकात हुई। गीता स्थापित गायिका और गुरुदत्त के कॅरियर की शुरुआत लेकिन दोनों में प्यार हुआ। करीब तीन साल का प्रेम संबंध 26 मई 1954 को विवाह के रूप में तब्दील हुआ। जब यह बात होती है तो स्वत: ही प्रेम त्रिकोण का जिक्र आ जाता है और वहीदा रहमान की बात होती है।
गुरुदत्त की तीन सबसे मशहूर फिल्मों ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’ और ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ का हिस्सा रहीं वहीदा रहमान को जब पता चला कि उनके कारण गुरुदत्त और गीता दत्त में दूरियां आ रही हैं तो उन्होंने खुद को अलग कर लिया। यहीं से सबकुछ बदल गया। यह गुरुदत्त के खत्म होने की शुरुआत थी। इसके बाद का समय गीता दत्त के लिए नारकीय जीवन का पर्याय रहा। गुरुदत्त का जीवन तो खत्म हुआ ही, गीता दत्त भी इस सदमे से कभी उबर ही नहीं पाई। हालांकि, तथ्य यह भी है कि गुरुदत्त अपने अंतिम समय में बच्चों को लेकर दूर जा चुकी गीता दत्त को याद करते रहे थे।
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
गाने वाला नायक गुरुदत्त जब ‘कागज के फूल’ में एक फिल्म निर्देशक का किरदार निभाता है तो दुनिया के नकलीपन पर यही भाव उभर कर आता है।
उड़ जा उड़ जा प्यासे भंवरे
रस न मिलेगा खारों में
कागज के फूल जहां खिलते हैं
बैठ न उन गुलजारों में
एक हाथ से देती है दुनिया, सौ हाथों से लेती है;
ये खेल है कब से जारी
बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी-बारी
फिर आई वो 10 अक्टूबर 1964 की वह रात जब गुरुदत्त नींद की गोलियों संग ऐसे सोए कि फिर उठे ही नहीं। कुछ लोग मानते हैं कि वहीदा रहमान को गुरुदत्त से शादी कर लेनी थी लेकिन वहीदा रहमान ने गीता दत्त का ख्याल एक गरिमापूर्ण रिश्ता निभाया और खुल कर कभी इस बारे में बात नहीं की। दूसरी, ओर यह भी माना जाता है कि जिस तरह का सर्जनात्मक गुरूर का टकराव गुरुदत्त और गीता दत्त के बीच हुआ क्या गारंटी है कि वैसा गुरुदत्त और वहीदा रहमान के बीच नहीं होता? जिस तरह की ‘कैद’ गुरुदत्त ने गीता दत्त को दी थी वैसी वहीदा को भी मिलती तो भविष्य कुछ ओर ही होता।
गुरुदत्त के न होने के बाद उनकी छोटी बहन फिल्म निर्माता ललिता लाजमी ने एक अफसोस का जिक्र किया है। यासिर उस्मान ने अपनी किताब ‘गुरुदत्त एक अधूरी दास्तान’ इस अफसोस का जिक्र किया है। गुरुदत्त की छोटी बहन ललिता लाजमी कहती हैं कि हमने एक मनोचिकित्सक को बुलाया था। उसने एक मुलाकात के लिए 500 रूपए फीस ली थी। मेरा भाई आत्मा हँसा था कि वह गुरु के साथ ‘सिर्फ बात कर रहा था’ और इस काम के इतने पैसे लिए। हमने उस डॉक्टर को दोबारा कभी नहीं बुलाया। बहन ने अफसोस जताते हुए कहा है कि वह अपने भाई के मानसिक इलाज के लिए पर्याप्त प्रयास न करने के लिए खुद को दोषी मानती है। गुरुदत्त मानसिक रूप से परेशान थे। वे बार-बार मरने की बातें किया करते थे। यहां तक कि जान देने की कोशिश भी कर चुके थे। उन्हें एक मानसिक चिकित्सक की जरूरत थी लेकिन मिला शराब का साथ। और इस तरह हिंदी फिल्मों का एक बेहतरीन निर्माता, निर्देशक, अभिनेता इस दुनिया से रूखसत हो गया।
उफ्फ! ‘बाजी’, ‘जाल’, ‘बाज’ और ‘सीआईडी’ जैसी मनोरंजक फिल्मों से शुरू हुआ सफर ‘कागज के फूल’ जैसी फिल्मों पर आकर खत्म हुआ जिसका गाना कहता है:
जाएंगे कहां सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम
वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
वक्त ने किया क्या हसीं सितम…
बेहतरीन आलेख
– वंदना दवे