विश्व पर्यावरण दिवस: एक चींटी प्रयास
प्रीति राघव, गुरुग्राम
फोटो: गिरीश शर्मा
कुछ दिनों पहले घर में एक कांच का शो-पीस टूट कर चकनाचूर हो गया। मैंने उसके टुकड़े बटोर कर एक मोटी थैली में भरे और फिर थैली को मोटे खाकी कागज के बैग में डाल कर डस्टबिन के पास रख दिया। हाल ही में लगी एक हाउस-हेल्प, जब अगली सुबह झाडू-पोंछे के लिये आई तो सब काम खत्म करने के बाद वो सारा कूड़ा एक गार्बेज बैग में डालने लगी। मैंने उस से वो लिफाफा मांग लिया और उस पर मार्कर से बड़ा सा क्रॉस बनाकर हिंदी में ‘ग्लास’ लिख दिया।
उसने मुझसे तपाक से पूछा-“दीदी आपने ऐसा क्यूं किया? कचरे वाले के लिए ना!”
उसके उस एक सवाल ने मेरे जेहन में बेचैनी भरी उथल-पुथल मचा दी कि ये बहुत से संभ्रांत घरों में खाना बनाने, डस्टिंग और झाडू करने जाती है। तब भी उसका अकस्मात यूं प्रश्न कर देना, मुझे सोचने पर विवश कर गया कि हम सब, सो कॉल्ड पढ़े लिखे लोग क्या सच में सुशिक्षित हैं?
मेरी हमेशा से तो नहीं परंतु विगत कुछ सालों से आदत रही है कि टूटे कांच, सेनेटरी या मेडीकल वेस्ट अलग-अलग गार्बेज बैग में डालकर रखूं। कचरा जो कोई भी ले जाए, उन्हें निश्चित तौर पर इंगित करूं कि इसे संभाल कर उठाएं ताकि उन्हें चुभे ना! या इसे बिना खोले ही उस ढ़ेर में डालें जिसे उन्हें नहीं खंगालना, जिससे उनका मन घिनियाये नहीं।
अब आप हँसेंगे कि घिन या चोट कैसी? कचरेवालों का तो ये रोज का काम है!
बस यहीं पर मजबूरी और जिम्मेदारी के बीच में महीन अंतर पहचाना जा सकता है! कचरा उठाना उनकी मजबूरी है क्योंकि उन्हें शुरू से इसी में ढाल दिया गया है,जिम्मेदारी हमारी है कि हम उनकी मजबूरी का फायदा ना उठाकर उन्हें इंसान ही समझें। इस अंतर को समझने में वक्त नहीं लगता लेकिन ना समझने पर टनों कचरे का ढ़ेर जरूर लग जाता है। जो कि हमारे पर्यावरण, हमारी धरती व हमारी आने वाली संततियों को खतरे में डाल रहा है।
मैं हमेशा से ऐसी कतई नहीं थी। पहले मैं भी एक ही थैले में सारा कचरा भर कर रख आती थी। ये सोचकर कि ये भाईसाब कौन सा अलग-अलग रखते हैं! सब एक में ही तो पटक देते हैं। सच में कभी ध्यान भी तो नहीं दिया मैंने। गाड़ी देखना तो दूर उसके आने पर बजने वाले गीतों से चिढ़-सी हो गई थी।
फिर, किसी दिन की सुबह बालकनी में पौधे ठीक करते हुए, उन्हें पानी देते समय कचरेवाली गाड़ी आ गई। मैंने उस रोज पहली दफा वो पूरा तामझाम सुना उस गाड़ी का, जिसका गीत सुनकर अक्सर इरीटेशन हुआ करती है! उसमें गीत बजने से पहले सूचित किया जाता है कि फलां तरह का कचरा इस तरह से या फलां रंग के गार्बेज बैग में रखें। गीला कचरा, सूखा सब किस तरह अलग रखना है, वो सब बताने के बाद ही गाना चलता है। तब मैंने पौधों से ध्यान हटाकर नीचे झांका। हमारे घर का कचरा वो उठा चुका था, बाकी कुछ लोग बिना थैली का डस्टबिन उसे ही पकड़ा रहे थे गाड़ी में पलटने के लिए। कोई पोलीथिन उछालकर गाडी में ही निशाना साध रहा था।
अजीब लगा उस रोज! शर्मिंदगी भी हुई। गाड़ी में प्लास्टिक टाट के चार बड़े थैले थे। एक लड़का सबके मिक्स कचरे को अलग-अलग कर रहा था। उन्हीं में से एक थैली में टूटी बीयर बॉटल भी थी जिससे चोट लगने से वो बाल-बाल बचा! हम बिना ध्यान दिए कितनी आसानी से अपनी नालायकी का दोष उन कचरेवालों पर डालते रहते हैं कि “ये लोग नशे में रहते हैं,या ये लोग कचरा ठीक से नहीं अलग करते” ब्ला ब्ला ब्ला! जबकि हमारी ही सोच में कचरा और बदबू है।
इस सबमें सुखद ये रहा कि वो सुबह मेरे बदलाव की पहली सीढी थी। तब से आज दिन तक, मैं खुद अपने घर से निकले कचरे को सैग्रीगेट करने लगी। प्रश्न ये नहीं कि मैं क्या करती हूं,प्रश्न ये है कि ‘हम क्या कर रहे हैं?’
मैंने सालों तक अपने प्रतिदिन के कार्य बिना किसी हैल्पिंग हैंड के स्वयं ही किए हैं। अब कुछ समय से झाडू-पोंछे के लिए किसी को लगाया है। आप सबमें हजारों-लाखों घर होंगे जो सालों से हाउस-हेल्प पर टिके होंगे, निश्चित ही सबकी अपनी वज़हें व मजबूरियां होती होंगी!
मेरे यहां जो आती है, उसे नहीं पता कि कचरा भी अलग करना रहता है! जबकि वो ढ़ेरों घरों में बहुत सालों से काम कर रही है। इसका मतलब है कि अगर वो मुझसे सवाल करती है तो पिछले बाकी के घरों में उसे ऐसा कुछ देखने नहीं मिला, ना ही उसे किसी ने टोका कि कचरा अलग-अलग ले जाए।
हालांकि मेरे घर मे कुछ ही वक्त में वो जान चुकी है और फेंकने से पहले पूछती है, “दीदी सब्जी के छिलके वगैरह रहने दूं ना! उन्हें तो आप खाद बनाने में डालेंगी।”
अच्छा लगता है मुझे कि वो ध्यान रखती है, मगर कितने और घर इस प्रक्रिया के लिये कहते, करते होंगे?
मैं जब कभी भी फरीदाबाद पहाड़ वाले रास्ते से जाती थी या करनाल और गाजियाबाद जाते वक्त गाजीपुर पर मंडराते गिद्ध, बाज देखती थी तो एक पल को दहल जाती थी! उन जगहों पर कचरों के पहाड़ देखकर। सोचने पर आज भी विवश हो जाती हूं कि कितने एकड़ की उपजाऊ जमीन को कचरे के टनों ढ़ेर ने ढाँप लिया है।
सरकार और सरकार की योजनाओं से इतर, उन्हें गालियां देने, कोसने से इतर, यदि मैं ये आपसे पूछूं कि आपने अपने हिस्से की कितनी जिम्मेदारी निभाई है इस बाबत?
क्या उत्तर दे सकेंगे आप?
कभी ठहरकर सोचा भी है आपने कि ये ‘कचरे के पहाड़’ हमारे ही साफ-सुसज्जित घरों की ही तो देन हैं? हम पर्यावरण को अपने आलस व नासमझी से कितना नुक़सान पहुंचा रहे हैं?
आज हम कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से जूझ कर पूरी तरह उबरे भी नहीं हैं, न्यू नॉर्मल से गुजरते हुए आज भी ढ़ेरों लोग घरों से काम कर रहे हैं। तब भी ये कचरे-वाले आते हैं अपनी जिम्मेदारी निभाने। सोचिये यदि वो महीनेभर गाड़ी ना लायें तो? क्या आप अपने ही घर से निकले कचरे के, घर पर ही एकत्र ढ़ेर की बदबू से घबरा नहीं जाएंगे? सोचिये, उन रिहायशी इलाकों के बारे में,जो वहां तब से स्थापित हैं, जब ये कचरे के पहाड़ नहीं बल्कि कचरे का घूरा भर थे। कैसे और किन मजबूरियों में आज भी रहते होंगे वे लोग वहां?
आपको करना कुछ नहीं है, बस तनिक सी सोच और नजरिया बदलने के सूक्ष्म से प्रयास भर ही तो करने हैं। ईश्वर की कृपा से आप सब इतने समर्थ हैं कि सबके घरों में एक या दो हाउस-हेल्प रहती ही हैं तो दो या तीन डस्टबिन रखने में तो हर महीने की हाउस-हेल्प की पगार जितना खर्चा तो नहीं होगा ना? एक बार का इंवेस्टमेंट है, स्वच्छता के प्रयास की ओर, कतई घाटे का सौदा नहीं।
चलिये, अगर सिरदर्दी लगती है तो डस्टबिन भी अलग-अलग मत रखिये, खुद भी मत करिये वेस्ट सैग्रीगेट। उस हाउस-हेल्प से ही करा लीजिये, खड़े होकर समझा कर। मॉनिटर तो कर ही सकते हैं कि नहीं! इतना तो मैनेज हो ही जाएगा ना! वो आपके घर से सीखकर चार और घरों में बताएगी और खुद भी अपने घर पर करने लगे शायद!
मेरे घर में डस्टबिन की जरूरत ना के बराबर रह गई है। वैसे हैं तो तीन-तीन। अर्रे! चौंकिये मत, इसे यूं समझिए कि एक बड़ा डस्टबिन रोज के फल-सब्जी के छिलके और पौधों से निकले वेस्ट यानी ऑर्गेनिक वेस्ट से भरता है। जिसमें बासी-सड़ा खाना, टैट्रापैक, दूध की थैली वगैरह कुछ नहीं डाला जाता। अब दूसरे का भी वही आलम हो गया है। इस ‘एक पंथ दो काज’ में मेरे पौधों को घर की बनी खाद मिलने लगी है और मेरे घर से गीला कचरा भी नहीं निकलता। टैट्रापैक लाना, प्लास्टिक बॉटल में पैक कोल्डड्रिंक वगैरह लाना सब बंद हो गया है तो भी हानिकारक कचरा भी ना के बराबर हो गया है। इसी कारण से तीसरा बचा डस्टबिन कभी भरता ही नहीं! मेरा खुद का टारगेट ‘ज़ीरो वेस्ट’ की तरफ़ है, इस बाबत किसी और दिन विस्तार से बात करूंगी आपसे।
इस लेख को नजरंदाज किए बगैर आप सभी निम्नलिखित कुछ सवाल-जवाब खुद से करिए, तब शायद समझ सकेंगे आप मेरी बात और उसकी आवश्यकता को।
*सरकार या सरकारी डिपार्टमेंट (जिनसे उम्मीद लगाना मुंगेरीलाल के सपने बुनना ही ठहरा) के ऊपर दोषारोपण करने से पहले क्या हमने खुद से कभी इस दिशा में प्राथमिक प्रयास किए हैं?
*कचरेवाले भी इंसान हैं। सैग्रीगेशन के दौरान उन्हें भी टूटे कांच चुभ सकते हैं! हम किसी और की गंदगी छूना तो दूर देख कर भी नाक-मुंह सिकोड़ते हैं तो कचरे वाले भी तो अचानक बिना इंगित किया आपका सेनेटरी या मेडीकल वेस्ट खोल लेते हैं। उबकाई तो उन्हें भी आती ही होगी ना! सोचा है कभी?
*क्या हम एक चींटी कोशिश भी नहीं कर सकते अपनी धरती, अपनी प्रकृति के रखरखाव में? ऐसी खरीदारी न्यूनतम करके जिनकी पैकिंग मटीरियल रीसाइकल नहीं हो सकते या री-यूज नही किए जा सकते?
मैं सब्जीमंडी में या राशन लाने खुद के बनाए पुराने कपड़ों के थैलों या जूट के थैलों को लेकर जाती हूं ताकि पोलीथिन कम से कम इस्तेमाल हों। शहर से बाहर जाती हूं या घुमक्कड़ी के दौरान कहीं बाहर कुछ खाती-पीती हूं तो एक थैले में वो सब कचरा एकत्र कर घर पर लाकर अपने डस्टबिन में डालती हूं। शुरू में पतिदेव हंसते थे पर मुझे और बेटी को ऐसा करता देख अब वो भी यही करते हैं।
मेरे घर में पूजा में इस्तेमाल की जाने वाली फूल-मालाएं, पैटल्स,सामग्री वगैरह सब मेरे खाद वाले डिब्बे में डालती हू्ं। अब ना वो किसी डिवाइडर पर रुलते ना किसी बरगद-पीपल के नीचे रखे जाते और सबसे आवश्यक बात कि वो सब सिराने के नाम पर किसी भी जल-इकाई को बर्बाद नहीं करते बल्कि मेरे पौधे मुस्कुराते हैं। भोजन भी उतना ही पकाती हूं कि एक दफे में पूर्ति हो जाए या बचे भी तो सुबह का शाम या शाम का दोपहर में खाया जा सके। रेफ्रिजरेटर घर पर होने का ये बेहतर फायदा तो उठाना ही चाहिए, है ना!
गाजीपुर और फरीदाबाद के कचरे के पहाड़ देखकर अब शर्मिंदगी नहीं होती, मुस्कान और एक सुकून होता है कि खुद अपने घर से मैंने शुरूआत की है। मैं मेरे हिस्से की जिम्मेदारी आंशिक रूप से निभा रही हूं। जी हां, आंशिक इसलिए कि मेरे बोलने- समझाने के बाद, जब भी मुझ से जुड़े परिवार, पड़ोसी, मित्रगण आदि भी ये प्रयास करना शुरू करेंगे तब मैं पूर्ण रूप से सफ़लता समझूंगी अपनी।
चलिए ना! आज विश्व पर्यावरण दिवस पर करिए एक शुरूआत मेरे संग अपनी धरती और प्रकृति की खिलखिलाहट बचाये रखने के लिये। यकीन मानिये… ज्यादा ना तो एफर्ट्स लगते हैं और ना ही समय! बस राई के दाने जितने प्रयत्न और जागरूक हो जाने भर से ‘राई के पहाड़’ वाले पहाड़ नहीं बल्कि प्रयत्नों के सकारात्मक पहाड़ बना लीजिए। जिनके नीचे दब जाएं देशभर और फिर विश्वभर के एकड़ों में फैले टनों कचरे के ढ़ेर।
सोचकर देखिये! हम भी तो बिना शस्त्र उठाये, धरती के, पर्यावरण के रक्षक सिपाही बन सकते हैं।
प्रीति राघव/गुरुग्राम